क्या जागरूकता और मतदान प्रतिशत बढ़ाकर हो सकता है कुछ

राजनीतिक फंडिंग: आखिर यह साफ कैसे होगा, क्या जागरूकता और मतदान प्रतिशत बढ़ाकर हो सकता है कुछ
राजनीतिक फंडिंग के मामले में आखिर हम कहां खड़े हैं? महंगी चुनावी प्रक्रिया, बेतहाशा बढ़ता खर्च, मतदाताओं में जागरूकता का अभाव वाले अपने देश में सिर्फ पारदर्शिता काफी नहीं है। सवाल यह है कि हम पूरे तंत्र को कैसे साफ करेंगे।

पूरी दुनिया में, चाहे उन्नत अर्थव्यवस्थाएं हों या छोटे देश, राजनीतिक दल धन पाना चाहते हैं। उन्हें मतदाताओं तक पहुंचने, उन्हें अपनी नीतियों के बारे में बताने तथा लोगों का इनपुट पाने के लिए धन की जरूरत होती है। ऐसा करने के लिए विभिन्न देशों के राजनीतिक दल राजनीतिक फंडिंग का सहारा लेते हैं। राजनीतिक दलों को कई चैनलों के माध्यम से फंडिंग मिल सकती है-व्यक्तियों और कॉरपोरेट्स द्वारा स्वैच्छिक योगदान से, सदस्यता अभियान के जरिये या राज्य फंडिंग के माध्यम से। रास्ते बहुत हैं, जिनमें मीडिया कवरेज, राजनीतिक दलों के लिए स्थान और अन्य संसाधनों का उपयोग के रूप में योगदान भी शामिल हैं।

हालांकि फंडिंग का एक रूप जो राजनीतिक दलों के खजाने में महत्वपूर्ण योगदान देता है, वह विभिन्न रूपों में कॉरपोरेट दान है। दुनिया भर में राजनीतिक दलों को मिलने वाले कॉरपोरेट दान को लेकर एक डर यह है कि ऐसे दानों से सरकारों के निर्णय लेने की प्रक्रिया न प्रभावित हो। चाहे अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा या कई अन्य उन्नत अर्थव्यवस्थाएं हों, कॉरपोरेट दान सामान्य बात है, ठीक उसी तरह, जैसे सदस्यता शुल्क या अन्य रूपों में व्यक्तिगत चंदा लिया जाता है।

लगभग हरेक देश में कानून द्वारा एक रूपरेखा तैयार की गई है, जिसके जरिये राजनीतिक दल चुनाव अभियान पर खर्च करने के लिए धन स्वीकार करते हैं। और इसकी एक सीमा होती है कि किस चुनाव में प्रत्याशी और राजनीतिक दल कितना खर्च कर सकते हैं। कई कॉरपोरेट अपने देशों में चुनिंदा या कई राजनीतिक दलों का समर्थन करते हैं, ताकि पार्टी की नीतियों के प्रति एकजुटता का संकेत दिया जा सके या किसी भी चुनाव परिणाम के साथ अपने हितों की रक्षा की जा सके।

लेकिन इसमें कॉरपोरेट की भूमिका संदिग्ध हो जाती है, क्योंकि अक्सर कॉरपोरेट दान कुछ शर्तों के साथ मिलता है। अक्सर फंडिग की स्थिति स्पष्ट नहीं होती, बल्कि इसमें निहित स्वार्थ छिपे होते हैं। उदाहरण के लिए, 14 अप्रैल, 2021 को जॉर्जिया में प्रतिबंधात्मक रिपब्लिकन प्रायोजित मतदान कानून के जवाब में गूगल के सीईओ ने 200 अन्य सीईओ के साथ मिलकर द न्यूयॉर्क टाइम्स और द वाशिंगटन पोस्ट में एक खुला पत्र प्रकाशित करवा कर  ऐसे ‘किसी भी भेदभावपूर्ण कानून’ का विरोध किया, जिससे अमेरिकियों के लिए मतदान करना और मुश्किल हो जाएगा।

लेकिन एक दिक्कत थी-गूगल ने चुपचाप रिपब्लिकन स्टेट लीडरशिप कमिटी, एक ऐसा संगठन, जो जॉर्जिया कानून और इसी तरह के अन्य राज्यों के कानून का समर्थन करता है, के साथ ‘चुनावी अखंडता’ पर एक ‘नीति कार्य समूह’ को वित्त पोषित किया था। ब्रिटेन में पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन कॉरपोरेट फंडिंग के लिए आलोचनाओं के घेरे में आ गए, जिन्होंने दानदाता के पक्ष में नीतिगत समर्थन दिया था। वर्षों से, कई प्रमुख व्यवसायी राजनीतिक दलों के साथ लॉबिंग करते रहे हैं और जनादेश तथा नीति-निर्माण को प्रभावित करने के लिए फंड देते रहे हैं।

हालांकि अब राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखने के लिए कॉरपोरेट्स ने चुनावी ट्रस्टों के जरिये फंडिंग का रास्ता ढूंढ लिया है। ये मूल रूप से कंपनियों द्वारा स्थापित ट्रस्ट हैं, जिनका उद्देश्य अन्य कंपनियों और व्यक्तियों से प्राप्त योगदान को राजनीतिक दलों में वितरित करना है। चूंकि ट्रस्टों द्वारा संग्रहीत धन को इकट्ठा किया जाता है, तो कोई आसानी से नहीं जान सकता कि किस कॉरपोरेट ने ट्रस्ट को धन दिया है और ट्रस्ट किसी राजनीतिक दल को कैसे वित्त पोषित करेगा।

भारत में राजनीतिक फंडिंग और चुनाव कराने की लागत में उन दिनों की तुलना में बदलाव देखा गया है, जब चुनावी खर्च की कोई सीमा नहीं थी और न ही धन संग्रह के लिए कोई स्पष्ट तंत्र था। दान अधिकतर नकदी में होता था, जिसका मतलब था कि स्रोत का आसानी से पता नहीं लगाया जा सकता था और यह एक समानांतर काली अर्थव्यवस्था का भी समर्थन करता था। अन्य देशों की तरह हमने भी चुनावों पर खर्च करने के अपने तरीके बदल दिए हैं।

राजनीतिक दलों को अपनी पारदर्शिता में सुधार करने के लिए कहा गया और बड़े नकदी दान को प्रतिबंधित कर दिया गया। निस्संदेह, नियमों से बचने के कई तरीके हैं और पार्टियां चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करती हैं। इसके अलावा, राजनीतिक दलों द्वारा परोक्ष रूप से लाभ का वादा करके दान मांगने का मामला भी सामने आया। कई मायनों में, कॉरपोरेट घरानों को अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए अग्रणी पार्टियों को दान देने के लिए मजबूर किया गया।

कॉरपोरेट घरानों की इस परेशानी को दूर करने के लिए भारत सरकार ने चुनावी बॉन्ड की शुरुआत की, यह एक ऐसा रास्ता है, जिसमें दानकर्ता के विवरण सार्वजनिक निगरानी के लिए उपलब्ध नहीं होते। पहली नजर में यह एक बहुत अच्छा कदम था, जिसने दानकर्ताओं के ब्योरे की रक्षा की। साथ ही इसने दानदाता और उससे लाभ लेने वाले राजनीतिक दल के बीच हुई मिलीभगत को भी छिपाया। यदि वह खुलापन बुरा था कि किस कॉरपोरेट ने किस पार्टी का समर्थन किया, तो अब सूचनाओं की यह गोपनीयता कि किस कॉरपोरेट ने किस पार्टी को फंड दिया और बदले में उससे क्या लाभ पाया, ने राजनीतिक दलों की कॉरपोरेट फंडिंग पर अंकुश लगाने की इस पूरी कवायद को पराजित कर दिया है।

तो आखिर राजनीतिक फंडिंग के मामले में हम कहां खड़े हैं? भारत में सभी चुनाव बेहद महंगे होते हैं। उम्मीदवार के खर्च करने की सीमा होने के बावजूद सभी जानते हैं कि चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। दूसरी बात यह कि हम ऐसे देश नहीं हैं, जिसमें समान विचारधारा वाले लोगों द्वारा धन जुटाने के लिए राजनीतिक दलों की सदस्यता के माध्यम से विकास नीतियों पर काम किया जा रहा हो। साथ ही, चुनावों के लिए सरकारी फंडिंग भी काफी कम है। स्थानीय निकाय, राज्य और केंद्र में एक साथ चुनाव कराने पर होने वाली लागत बचाई जा सकती है और यह भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि फंडिंग का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल हो सके।

राजनीतिक फंडिंग व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा मतदाता मतदान में भाग लें और यह भी समझें कि राजनीतिक दल कैसे धन जमा और उसका इस्तेमाल करते हैं। चुनावी बॉन्ड की वैधता पर चर्चा के कई निहितार्थ हैं, जो कुछ स्पष्ट, तो कुछ उलझे हुए भी हैं। पर इतना तय है कि राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी और राजनीतिक दलों व सरकारों के प्रभाव व हस्तक्षेप से मुक्त करने की जरूरत है।  

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