औरत क्या चाहती है ?

औरत क्या चाहती है, समझने के लिए त्यागनी होगी पुरुषवादी सोच
ज्यादातर स्त्रियों के सपने उनके पुरुषों से जुड़े हैं। ठीक इसी तरह स्त्रियों का सुख उनके पुरुषों के साथ होने और उन्हें सुखी रखने में है। कहीं भी स्त्रियों को स्वतंत्रता नहीं है। पुरुष, परिवार और समाज यह कल्पना तक नहीं कर सकते कि स्त्रियों का जीवन पुरुषों के जीवन से अलग या स्वतंत्र भी हो सकता है। जब तक इस तरह की सोच नहीं बदलेगी, तब तक इस बारे में सोचा भी नहीं जाएगा कि आखिर औरत चाहती क्या है?

To give up a woman feelings, one has to give up male thinking

वर्ष 1991 में मैंने निमंत्रण नाम से एक उपन्यासिका लिखी थी, जिसमें स्त्री शोषण और पुरुषतंत्र की भयावहता के बारे में बताया गया था। निमंत्रण लिखने के कारण मुझे अनेक लोगों की निंदा-आलोचना सुननी पड़ी थी। कुछ लोगों के मुताबिक, वह पोर्नोग्राफी थी, जिसमें यौन संबंधों का खुला चित्रण था। बस, फिर क्या था, चारों ओर मेरी बदनामी कर दी गई। मेरी बदनामी फैलने लगी। कहा गया कि मैं पोर्नोग्राफी लिखती हूं। मेरी उस उपन्यासिका में आखिर था क्या?

कहानी यह थी कि अट्ठारह साल की किशोरी एक सुदर्शन युवक के प्रेम में पड़ जाती है। जबकि वह युवक उस तरुणी के दायरे से बहुत दूर है। तरुणी उस युवक को रोज चिट्ठी लिखती है, जिसमें वह अपना प्रेम निवेदन करती है। लेकिन युवक के पास वे चिट्ठियां पहुंचती ही नहीं। आखिरकार जब युवक को किशोरी के उससे एकतरफा प्रेम का पता चलता है, तब दो दिन प्रेम का अभिनय कर एक दोपहर को वह उसे अपने घर लंच के लिए आमंत्रित करता है। किशोरी सज-धजकर अपने प्रेमी के लिए कीमती उपहार खरीदकर उसके यहां पहुंचती है। वहां युवक और उसके सात दोस्त थे। वे सब उससे बलात्कार करते हैं।

सामूहिक बलात्कार के बाद अंदर और बाहर से गंभीर रूप से घायल वह किशोरी घर लौटते हुए मन ही मन सोचती है कि पिता जब उससे पूछेंगे कि कहां गई थी, तब वह झूठ नहीं बोलेगी। उन्हें बता देगी कि वह किसी के निमंत्रण पर उसके घर गई थी। उपन्यासिका यहीं खत्म हो जाती है। उसमें बलात्कार के जो ब्योरे दिए गए थे, स्त्री-विरोधियों ने उसे पोर्नोग्राफी कहा था। समाज में जब स्त्री विरोधियों की संख्या बढ़ जाती है, तब औरतों के शोषण को स्वाभाविक समझ लिया जाता है। ऐसे तत्वों के लिए बलात्कार भी स्वाभाविक घटना है। निमंत्रण की कहानी काल्पनिक नहीं थी। हालांकि समाज का एक वर्ग मानता है कि इस तरह की घटनाएं नहीं होतीं। दूसरा वर्ग यह तो मानता है कि इस तरह की घटनाएं होती हैं, लेकिन उसका कहना है कि इसके लिए महिलाएं ही दोषी हैं। वे क्यों दोषी हैं, इसकी वजह भी बताई जाती है। दोष यह है कि वे प्रेम में पड़ती ही क्यों हैं? वे पुरुषों के पास जाती ही क्यों हैं? जाने पर तो उनके साथ गलत होगा ही। जो लोग बलात्कार का शिकार होने वाली महिलाओं पर ही बलात्कार की जिम्मेदारी डाल देते हैं, वे चाहते हैं कि लड़कियां घर से बाहर न निकलें, किसी के प्रेम में न पड़ें, किसी पर भरोसा न करें और किसी के निमंत्रण पर उसके यहां या उसके साथ न जाएं। वे महिलाओं को तो जिम्मेदार ठहरा देते हैं, लेकिन पुरुष की आंखों में उंगली डालकर नहीं कहते कि महिलाओं के साथ अत्याचार करने का पुरुषों को कोई अधिकार नहीं है। यह अजीब है कि घर से बाहर तक लड़कियों-महिलाओं के साथ गलत बर्ताव और यौन हिंसा को अंजाम तो पुरुष देते हैं, लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार महिलाओं को ठहराया जाता है। पुरुषवर्चस्ववादी समाज में पुरुषों की बर्बरता को कमतर करके दिखाने या उन्हें निर्दोष बताने की प्रवृत्ति पुरानी है।

जिन लोगों ने निमंत्रण की कहानी को मनगढंत बताया था, उन्हें छत्तीसगढ़ के बिलासपुर की एक खबर से अवगत कराना चाहती हूं, जहां सोलह वर्षीय एक किशोरी के साथ उसके प्रेमी और उसके दो साथियों ने मिलकर बलात्कार किया। तीन युवाओं ने किशोरी को पूरी रात एक परित्यक्त घर में बंधक बनाकर रखा था। सुबह घर लौटी किशोरी ने पिता को सारी बातें बताईं, तो घरवालों ने थाने में रिपोर्ट लिखवाई। निमंत्रण नाम की उपन्यासिका मैंने लड़कियों-महिलाओं को सजग करने के लिए लिखी थी। मैं महिलाओं को यह बताना चाह रही थी कि उन्हें पुरुषों के जाल में नहीं फंसना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि शिक्षा ने आज की बहुत-सी स्त्रियों को जिस तरह आत्मनिर्भर बनाया है, उसी तरह उन्हें सजग भी किया है। लेकिन सभी स्त्रियां शिक्षित और सजग नहीं हैं, इसलिए वे पुरुषों के जाल में आसानी से फंस जाती हैं। हालांकि अनेक शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्रियां भी पुरुषों के धोखे और यौन अत्याचार का शिकार होती हैं। मौजूदा 21वीं सदी में भी स्त्रियों की यह दुर्दशा है, तो इसके लिए पुरुषवादी सोच जिम्मेदार है।

लेकिन मैं यहां यह भी बताना चाहती हूं कि शिक्षा ने स्त्रियों के प्रति अनेक पुरुषों की भी सोच बदली है। निमंत्रण उपन्यासिका में भी पुरुषों के लिए संदेश था, और मेरा मानना है कि उसे पढ़कर अनेक पुरुषों ने भी स्त्रियों के प्रति संवेदनशील व्यवहार करने के बारे में सीखा या सोचा होगा। लेकिन पुरुषों की बड़ी आबादी की सोच नहीं बदली है, इसी कारण महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा की घटनाएं कम होने का नाम ही नहीं ले रहीं। इस उपमहाद्वीप में धर्म या मजहब का महत्व सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बहुत बढ़ा है। देखने वाली बात यह है कि इसके बावजूद स्त्रियों के साथ होने वाली यौन हिंसा की घटनाओं में कमी नहीं आई है। पुरुष चाहता है, स्त्री उसके हिसाब से चले। समाज चाहता है कि स्त्री उसके मुताबिक चले। स्त्री क्या चाहती है, इस बारे में न पुरुष जानने की कोशिश करता है, न ही समाज को इसकी परवाह है। स्त्री क्या चाहती है? मुझे लगता है कि स्त्री की चाह अब भी स्पष्ट नहीं हो पाई है। स्त्री किस तरह अपना जीवनयापन करना चाहती है? मुझे लगता है कि ज्यादातर स्त्रियों में अभी तक यह सोच विकसित नहीं हो पाई है कि अपनी तरह से जीवन जीने का क्या अर्थ है। यह स्वाभाविक भी है। पुरुष रचित धर्म, पुरुष रचित समाज और पुरुष रचित पुरुष तंत्र जिस तरह स्त्रियों को चलाते रहे हैं, स्त्रियां उसी तरह संचालित होती रही हैं। स्त्रियों की खुशी, उसके सपने और उसके सुख वही हैं, जो पुरुष उसे बताता है। यह आकस्मिक नहीं है कि ज्यादातर स्त्रियों की खुशी उनके पुरुषों की खुशियों में है। ज्यादातर स्त्रियों के सपने उनके पुरुषों से जुड़े हैं। ठीक इसी तरह स्त्रियों का सुख उनके पुरुषों के साथ होने और उन्हें सुखी रखने में है। कहीं भी स्त्रियों को स्वतंत्रता नहीं है। पुरुष, परिवार और समाज यह कल्पना तक नहीं कर सकते कि स्त्रियों का जीवन पुरुषों के जीवन से अलग या स्वतंत्र भी हो सकता है। जब तक इस तरह की सोच नहीं बदलेगी, तब तक इस बारे में सोचा भी नहीं जाएगा कि आखिर औरत चाहती क्या है?

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