सबको समान अधिकार, फिर अतिरिक्त छूट का क्या मतलब ..!
समान नागरिक संहिता: भेदभाव खत्म होगा, तभी बनेगा देश विकसित राष्ट्र …
आधुनिक युग के राजनीतिक इतिहास में गणतांत्रिक शासन प्रणाली का अनुभव विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में मानव-कल्याण की दृष्टि से अधिकाधिक उपयोगी पाया गया है। जिन देशों में यह व्यवस्था नहीं है, वहां पर इसे लाने के लिए संघर्ष जारी है। इस प्रणाली में न केवल जनता की भागीदारी प्रमुख होती है, बल्कि सभी लोग एक धरातल पर होते हैं। दूसरे शब्दों में सबको समान अवसर मिलता है और देश के नागरिक के रूप में एक-सी पहचान मिलती है। ऐसे में भारतीय समाज में यह सर्वस्वीकृत अपेक्षा बन चली है कि राष्ट्र की अभिव्यक्ति में उसके सभी नागरिकों की साझेदारी और सहमति हो। इसी दृष्टि से सब लोग देश के अंग होने और उसी रूप में पहचान पाने के लिए नागरिक होने की इकाई को स्वीकार करते हैं। नागरिकता की अवधारणा नागरिक होने और बने रहने की उस न्यूनतम व्यवस्था को रेखांकित और व्यक्त करती है, जो सबकी सहमति से अंगीकार की जाती है। इसकी सामान्य स्वीकृति देश की सीमा में रहने वालों को जीने का एक समान आधार मुहैया कराती है। इस दृष्टि से समान नागरिक संहिता का प्रावधान विभिन्न प्रकार के मानवीय भेदभावों को समाप्त करने के लिए एक जरूरी कदम सिद्ध होगा ।
विधान में निहित समता और समानता की आकांक्षाओं को हकीकत में बदलने के लिए देश के सभी नागरिकों को नागरिक की हैसियत में एक तरह के बर्ताव की पात्रता जरूरी है। ऐसा न करना विश्व-पटल पर देश के लिए हास्यास्पद स्थिति पैदा करता है। यदि हम प्रगति और समतामूलक समाज की स्थापना चाहते हैं, तो इसी के अनुसार चलना होगा। इसलिए इसका विरोध सीमित स्वार्थ के चलते किया जाता है। वैसे भी नागरिक के रूप में सबको प्राप्त समान अधिकारों के साथ अतिरिक्त छूट लेना किसी के भी हित में नहीं होगा। सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता का आशय एकता का विखंडन तो कदापि नहीं होना चाहिए। राष्ट्रीय हितों की परिधि में ही विविधता को ग्रहण किया जाना श्रेयस्कर होगा। गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता न होने से मिलने वाली स्वच्छंदता अन्य की स्वतंत्रता को सीमित करने वाली हो रही है। तलाक, विवाह, उत्तराधिकार तथा धन-सम्पदा आदि के मसलों को लेकर कई प्रावधान पंथ या समुदाय विशेष की पुरानी रूढ़िवादी सोच को दर्शाते हैं। फलत: लाभों का बंटवारा अलग-अलग पैमानों पर होता है।
धर्म-पालन की आड़ में पुराने ढांचे को जायज ठहराना और निजी मामले में दखलअंदाजी कह कर समान नागरिक संहिता का विरोध मानव मूल्यों के विरुद्ध है। जब ये अपनाए गए थे परिस्थिति विशेष में अपनाए गए थे। वे अब असंदिग्ध रूप से न केवल अनुपादेय हो चले हैं, बल्कि घोर शोषण और अनावश्यक भेदभाव को भी जन्म दे रहे हैं। तीन तलाक का प्रावधान इसका ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे प्रावधान विचार करने पर न विवेक सम्मत लगते हैं, न तर्कबुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टि के ही अनुकूल हैं। उनमें कई तो स्पष्ट रूप से मनुष्यता और जीवन के आधारभूत मूल्यों के भी विरुद्ध दिखते हैं ।
आज के युग में जब पंथनिरपेक्षता, वैज्ञानिकता, राष्ट्रीय एकता तथा सामाजिक समता को लक्ष्य स्वीकार किया जा रहा है, तो सारे देश के लिए समान नागरिक संहिता एक स्वाभाविक आवश्यकता हो गई है। न केवल वैधानिक दृष्टि से, बल्कि मानव धर्म की प्रतिष्ठा के लिए भी समान नागरिक संहिता आवश्यक है। यह सबको साथ लेकर चलने के लिए अवसर पैदा करती है। भारत के सभी नागरिक बिना किसी भेदभाव के नागरिकता के हकदार हैं। प्रभुसत्ता सम्पन्न भारतीय गणतंत्र के लिए यह गौरव का विषय होगा। एक सशक्त राष्ट्र बन कर विकसित राष्ट्रों के साथ उत्पादक संवाद में शामिल होने के लिए भी यह जरूरी है। भारत देश के स्वतंत्र होने के पचहत्तर वर्षों के सामाजिक-राजनीतिक अनुभव भी इसकी प्रासंगिकता को स्थापित करते हैं।