पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन: क्या कभी चुनाव का मुद्दा बनेगा?

र्यावरण और जलवायु परिवर्तन: क्या कभी चुनाव का मुद्दा बनेगा?

भारत अभी चुनावी उत्सव में रंगा है.  कई मामलों  में लोकसभा का मौजूदा चुनाव विश्व का सबसे बड़ा चुनाव है, क्योंकि भारत विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है, सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला लोकतंत्र है, सबसे ज्यादा मतदाता लगभग 97 करोड़ इस चुनाव में भाग ले रहे हैं  और इस चुनाव में सफल हरेक प्रतनिधि सबसे ज्यादा लोगों को,औसतन 18 लाख लोगों का संसद में प्रतिनिधित्व करंगे. छ: चरण के चुनाव बीत चुके हैं, पर मतदान का ग्राफ पिछले आम चुनाव के मुकाबले काफी कम है.  कम मतदान के राजनैतिक मायने तलाशे जा रहे हैं  पर प्रचंड गर्मी और हीटवेव की बढ़ती घटनाओं  पर शायद ही मतदाता या राजनीतिक दलों का ध्यान  हो. 

हाय-हाय गर्मी, उफ-उफ गर्मी

बीते अप्रैल का महीना  जब से आधिकारिक रूप से तापमान मापा जा रहा है, यानी  1850 के बाद से, अब तक का सबसे गर्म अप्रैल साबित हुआ है और यह  लगातार ग्यारहवां  महीना था, वर्तमान मई भी उसी राह  पर है, और तो और साल 2023 अब तक का सबसे गर्म साल था ही.  मतलब विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के चुनाव में मानवता के सामने की सबसे बड़ी चुनौतियाँ  जो मानव के अस्तित्व का सवाल बनी हुई है, पर्यावरण का नाश, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, पानी, मिट्टी, नदी, जंगल आदि कोई मुद्दा नहीं है.  ये ना 56 मान्यता प्राप्त राजनैतिक  दलों के  चुनावी नारों में दिख रहा है, ना ही किसी भी स्तर के राजनैतिक  विमर्श में. मौजूदा मतदाता और चुनाव क्षेत्र पर  नज़र डाले तो पाते हैं  कि अधिकांश ज्वलंत चुनावी मुद्दों के मूल में प्रकृति के साथ हमारे नकारात्मक रूप से तेजी बदलते समीकरण ही तो है. हर दूसरा मतदाता किसान है, जिनके खेत या तो बाढ़, नहीं तो सुखाड़ या फिर उचित बाज़ार या फिर अन्य आपदा से प्रभावित है.  हर आठवां  मतदाता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जंगल पर निर्भर है, और जंगल या तो साफ किये जा रहे हैं  या फिर उनकी संरचना में बदलाव आ रहा है. 

2023 की  एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले तीस सालों में औसत जंगल के कम होने की दर ब्राज़ील के बाद दूसरे स्थान पर रही है.  पिछले कुछ हफ़्तों से जल रहे उत्तराखंड, हिमाचल और यहां तक कि जम्मू कश्मीर के जंगल बानगी भर है. भले मौजूदा सरकार ने गरीबी उन्मूलन के लिए प्रभावी ढंग से काम किया है, पर अभी भी एक बड़ी संख्या गरीबी रेखा के नीचे है, जिस पर  बदलते मौसम और पर्यावरण के विघटन का प्रभाव सबसे ज्यादा पड़ता है.  यानी  हर मतदाता तक बदलते जलवायु की धमक पहुँच रही है. सेंटर ऑफ़ साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार पिछले तीन सालों  में औसतन देश का हर लोक सभा निर्वाचन निर्वाचन क्षेत्र कम से कम मौसम की तीन चरम परिस्थितियों का शिकार हुआ है| 

आम जनता को भी है खबर

ऐसा नहीं है कि आम जन को पृथ्वी पर मुश्किल होते हालत का अंदाज़ा नहीं है या पूरी तरह से बेखबर है. येल विश्वविद्यालय और सी-वोटर के भारतीय मतदाता पर किये गए सर्वे में जलवायु परिवर्तन पर जागरूकता की बात स्पष्ट  हो जाती है.  हर छ: में से पांच आदमी जलवायु परिवर्तन होने की पुष्टि करता है, हर पांच में से चार जलवायु परिवर्तन से चिंतित है और लगभग तीन-चौथाई मतदाता मौसमी बदलाव को महसूस करता हैं.  आधे से अधिक लोग सरकार से जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों की कमी की अपेक्षा रखते है और समय के साथ-साथ जागरूक लोगों  की संख्या बढती जा रही है. पहली बार के शहरी मतदाता पर किये गए एक अन्य सर्वे के अनुसार पर्यावरण  और जलवायु परिवर्तन तीसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है. पर भारतीय मतदाता के बीच बढती जागरूकता के बाद  भी इतने महत्वपूर्ण  मुद्दे पर्यावरण की राजनीति  ना मतदाता साध पा  रहे हैं  और ना ही एक-एक मत के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते राजनैतिक दल. 

पर्यावरण पर खानापूर्ति

पर्यावरण को लेकर अदद जागरूकता ना सिर्फ मतदाता में है बल्कि राजनैतिक दल भी इसे खानापूर्ति के स्तर पर ही सही इसे चुनावी घोषणापत्र में शामिल जरुर ही कर रहे हैं.  दो दशक पहले शायद ही कोई दल प्रदूषण, जैव-विविधता या जलवायु परिवर्तन की तरफ ध्यान भी देता था, पर ये मुद्दे मौखिक ना सही कम से कम लुभावने वादों के साथ कागज पर इस बार अनेक पार्टियों की  गारंटी में शामिल हैं.  इस बार ही क्यों…? पिछले 2019 के आम चुनाव में कम से कम दो प्रमुख राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) और कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को विशेष स्थान देना शुरू कर चुके थे जो इस बार भी जारी है.  कम से कम पिछले दो आम चुनाव में मुख्य पार्टियों के घोषणापत्र में शामिल होने के बाद भी संसद में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कम से कम हो पाती है. पिछले आम चुनाव से पहले के बीस साल में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर मात्र एक प्रतिशत से भी कम सवाल उठाये गए और यही हाल अभी चल रहे चुनाव प्रचार में भी दिख रहा है. 

घोषणापत्र और पर्यावरण

इस बार कई प्रमुख पार्टियों ने सधे शब्दावली के साथ इस मुद्दों को अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया है जिसमें  सत्तारूढ़ भाजपा, मुख्य विपक्षी कांग्रेस सहित कम्युनिस्ट पार्टी और तृणमूल कांग्रेस शामिल हैं. खास कर भाजपा ने बड़ी  तकनीकी सलाहियत के साथ पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और सतत विकास से जुड़े ज्वलंत मुद्दों को समग्रता के साथ उचित स्थान दिया है. चाहे वो खेती किसानी से जुड़े  मिलेट का मुद्दा हो, सतत आर्थिक विकास हो, उर्जा से जुड़ा बायो एनर्जी, सौर उर्जा और नवीकरणीय  उर्जा के लक्ष्य हो, शहरी विकास से जुड़ा यातायात, इ व्हीकल, जल प्रबंधन हो , मिशन  लाइफ हो, नमामि गंगे और नदी बेसिन प्रबंधन से जुड़े तमाम मुद्दे हो को शामिल कर एक पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को प्रमुखता से उठाते दिख रही  है. वहीं  कांग्रेस जिसके शासन में अधिकांश पर्यावरण से जुड़े कानून पारित हुए हैं, ने भी इस बार पर्यावरण, जलवायु, आपदा और जल प्रबंधन को अलग से 20 अलग-अलग वादों के रूप में स्थान दिया है और जलवायु संकट से बचाव के लिए अलग से प्राधिकरण और कोष बनाने का वादा किया है.  कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी विचाधारा के अनुरूप ही सही जलवायु के मुद्दे को रखा है. जिन-जिन पार्टियों ने भी पर्यावरण को अपने घोषणापत्र में शामिल किया है उन  सबमें एक बात समान है कि सबने इस मुद्दे को आखिर में स्थान दिया है.  

भाजपा  सत्तारूढ़ दल है और उसने अपने घोषणापत्र में वैज्ञानिक तरीके से जलवायु, पर्यावरण आदि मुद्दे को समग्रता से स्थान दिया है तो इस बार वहाँ  ‘नदी जोड़ो परियोजना’ का ना होना एक मुख्य बात समझ आती है. जबकि बाजपेयी जी की सरकार के समय से ही भाजपा  नदी जोड़ो परियोजना की वकालत करती आ रही थी और 2014 में सत्ता में आने के बाद से केन-बेतवा नदी लिंक के रूप में इसे क्रियान्वयन भी किया जाने लगा था.  वैसे नदी जोड़ो परियोजना किसी भी लिहाज से पर्यावरण के अनुकूल प्रकल्प नहीं माना गया है और अगर सैद्धांतिक रूप से भाजपा  ने इसे अपने उद्देश्य से बाहर किया है तो यह  एक अच्छी घोषणा कही जाएगी. 

पर्यावरण का सामाजिक-आर्थिक संदर्भ

वैसे पर्यावरण के मुद्दों का भारत के चुनावी नारों, वादों, विमर्श आदि में ना दिखने की पीछे का सामाजिक और आर्थिक सन्दर्भ भी हो सकता है.  बिगड़ते पर्यावरण और बदलते मौसम के सवाल पर पहली बार उस समय के सभी देशों  के राजनैतिक प्रतिनिधियों के सम्मलेन स्टॉकहोम कॉन्फ्रेंस  में भारत की  प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने स्पष्ट  रूप से इन  मुद्दों पर गरीब और विकासशील देशों  का रुख स्पष्ट करते हुए कहा था कि  गरीबी हटाना और अपने नागरिको के लिए आधारभूत संरचना खड़ा  करना हमारा मुख्य लक्ष्य है. तब से आज तक हमारा लक्ष्य उसी के इर्द-गिर्द घूम रहा है. आज भी गरीबी उन्मूलन सत्ता के लिए सबसे गंभीर चुनौती है, तभी राजनैतिक दल चाहे तब भी आर्थिक विकास के मुद्दों से इतर जा नहीं सकते, वहीं मतदाता कम से कम चुनाव के समय लोक लुभावन मुद्दों के इर्द-गिर्द ही घूमते नज़र आते हैं, क्योंकि पर्यावरण के मुद्दे उनको सीधे प्रभावित ना कर परोक्ष रूप से नुकसान पहुंचाते हैं. हालांकि, जैसा कि विदित है, विगत कुछ वर्षो में जलवायु परिवर्तन की आंच हर मतदाता तक पहुंचने लगी  है, और धीरे-धीरे जागरूकता भी बढ़ी है.  

विकसित देश, पर्यावरण और जनमत

वहीं  विकसित देशों  में पर्यावरण से जुड़े मसलों  पर राजनैतिक दल जनमत बनाने में सफल भी हुए हैं, यहां तक कि कई देशों में केवल पर्यावरण के मुद्दों पर भी राजनीतिक दल उभरे हैं  और कुछ हद तक सफल भी हुए हैं. इसी कड़ी में जर्मनी का ग्रीन पार्टी को रख सकते हैं.  शुरू में अपने जलवायु, पानी, पर्यावरण आदि के मुद्दे पर काफी सफल रही पर हाल के बरसों  में यह  उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी है. चूंकि  ये मुद्दे इतने अहम हो चले कि  कोई  भी अन्य पार्टी इनको नज़रन्दाज करने जोखिम नहीं उठाना चाहेगी और नतीजा यह  हुआ कि ग्रीन पार्टी के सारे मुद्दे अन्य प्रमुख पार्टियों ने अपना लिये  और ग्रीन पार्टी का प्रदर्शन कम हो गया.  ग्रीन पार्टी जैसे आन्दोलन को सफल माना जा सकता है क्योंकि  समय के साथ प्रकृति के लिए जरुरी मुद्दों को इसी बहाने राजनितिक पार्टियों के बीच स्वीकार्यता मिली भारत में ग्रीन पार्टी जैसे किसी राजनीतिक हस्तक्षेप की सम्भावना नज़र नहीं आती क्योंकि  सारी पार्टियाँ  कमोबेश  लोकलुभावन नारों, वादों, बहस, विमर्श से मतदाता को लुभाने में लगी हैं.  यहाँ तक कि भाजपा  भी, जिसकी सरकार, अपने पिछले कार्यकाल में राष्ट्रीय  और वैश्विक स्तर पर पर्यावरण और जलवायु के मुद्दे पर ना सिर्फ प्रभावी फैसले लिए है बल्कि सोलर एलायन्स, जी20, और अन्य मंचो के माध्यम से दक्षिण के देशो की मुखर आवाज़ बन वैश्विक नेतृत्व प्रदान किया है, इन सारे मुद्दों को मतदाता के बीच नहीं रख पा रही है.  वहीं कांग्रेस जो अब तक के अधिकांश पर्यावरण से जुड़े कानून की सूत्रधार रही है, भाजपा  को घेरना नहीं चाहती.  पर्यावरण का मुद्दा चुनावी दौड़ में कछुए की गति से तो घोषणा पत्र तक पहुँच  गया है, देखना है चुनावी विमर्श, नारों के रूप में मतदाता तक खरगोश की छलांग  कब तक लगा पाता है?   

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