यूपी में मुस्लिम ओबीसी आरक्षण की समीक्षा!
मुस्लिम ओबीसी के आरक्षण पर बहस के बीच समझिए पूरा गणित
केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर मुस्लिम समुदायों को ओबीसी कोटा से आरक्षण देने का प्रावधान है. फिर क्या है विवाद? समझिए आरक्षण का पूरा गणित.
लोकसभा चुनाव के लिए करीब 500 सीटों पर वोटिंग हो चुकी है, अब अगले एक चरण में 57 सीटों पर वोटिंग होना बाकी है. लेकिन इससे पहले ओबीसी मुस्लिम आरक्षण को लेकर सियासत तेज हो गई है. इसका कारण है कोलकाता हाईकोर्ट का एक फैसला.
कोलकाता हाईकोर्ट ने बुधवार (22 मई) को एक अहम फैसला सुनाया. अदालत ने कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार ने 2010 से 2012 के बीच मुस्लिम समुदाय के 77 तबकों को पिछड़ा (ओबीसी) घोषित कर उन्हें ‘सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल किया’. जस्टिस तपब्रत चक्रवर्ती और जस्टिस राजशेखर मंथा की खंडपीठ ने टिप्पणी की कि राज्य का यह फैसला पूरे मुस्लिम समुदाय का अपमान है क्योंकि उन्हें सिर्फ वोट बैंक की तरह समझा गया.
हाईकोर्ट का मानना है कि सरकार ने सिर्फ वोट पाने के लिए मुस्लिम समुदाय के 77 वर्गों को OBC में शामिल किया, न कि उनकी भलाई के लिए. इससे ये समुदाय राजनीतिक पार्टियों के हाथों में कठपुतली बन जाएगा और उनके बाकी अधिकार भी छिन सकते हैं. ये फैसला लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ है क्योंकि इसमें सिर्फ राजनीतिक फायदे को तरजीह दी गई, लोगों के असल हितों को नहीं.
हालांकि ममता बनर्जी ने कोलकाता हाईकोर्ट का फैसला स्वीकार करने से साफ-साफ इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी.
यूपी में मुस्लिम ओबीसी आरक्षण की होगी समीक्षा!
दावा किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में 24 से ज्यादा मुस्लिम जातियों को ओबीसी कोटे में आरक्षण मिलता है. अब कोलकाता हाईकोर्ट के फैसले के बाद योगी सरकार ओबीसी कोटे (27%) में मुसलमानों को दिए जा रहे आरक्षण की समीक्षा कर सकती है. इस समीक्षा से यह पता किया जाएगा कि मुसलमानों को आखिरकार किस नियम और व्यवस्था के तहत ओबीसी कोटे में आरक्षण दिया जा रहा है.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कोलकाता हाईकोर्ट के फैसले का स्वागत किया. उन्होंने कहा, भारत का संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और टीएमसी सरकार ने राजनीतिक तुष्टीकरण करते हुए साल 2010 में 118 मुस्लिम जातियों को जबरन ओबीसी कैटेगरी में डालकर उन्हें ये आरक्षण दिया था. इस असंवैधानिक कृत्य पर कोलकाता हाईकोर्ट ने टीएमसी सरकार का फैसला पलट दिया और जोरदार तमाचा मारा है.
सीएम योगी ने आगे कहा, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने भी देश की संविधान सभा में बार-बार कहा था कि आरक्षण अनुसूचित जाति-जनजाति और मंडल कमीशन के बाद ओबीसी के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए इस आरक्षण की व्यवस्था की गई है. लेकिन धर्म के आधार पर आरक्षण देने की इजाजत भारत का संविधान कभी नहीं देता है.
समझिए अभी कितनी है आरक्षण की व्यवस्था?
1992 के एक मशहूर केस (इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार) में सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा था कि आरक्षण की कुल सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती है. साथ ही कोर्ट ने ये भी कहा था कि ये 50% की सीमा उस साल खाली हुई सीटों के आधार पर तय होनी चाहिए, न कि कुल पदों की संख्या के आधार पर.
यानी कि अगर किसी विभाग में कुल 100 पद हैं लेकिन उस साल सिर्फ 20 पद खाली हुए तो 50% आरक्षण का मतलब होगा कि इन 20 खाली पदों में से 10 पद आरक्षित होंगे. ये 50% पूरे 100 पदों पर लागू नहीं होगा.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही 50% आरक्षण की सीमा को एक तरह का नियम मान लिया गया है. हालांकि कुछ राज्य सरकारें इस सीमा को बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के चलते ये मामला अभी भी बहस का विषय बना हुआ है.
इस तरह देश में सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जातियों (SC) को 15%, अनुसूचित जनजातियों (ST) को 7.5% आरक्षण दिया जाता है. इसके अलावा ओबीसी वर्ग को 27% आरक्षण मिलता है. हालांकि राज्यों को ओबीसी वर्ग की समीक्षा का अधिकार है. इस कारण कुछ राज्यों में ओबीसी के लिए 27% वाली लिमिट पार हो गई है.
क्या संविधान में मुस्लिमों को आरक्षण देने की व्यवस्था है?
भारतीय संविधान सभी देशवासियों के लिए समानता के अधिकार की बात करता है. संविधान मुस्लिम समाज को भी आरक्षण देता है मगर धर्म के आधार पर नहीं. केंद्र और राज्य स्तर पर मुस्लिमों की कई जातियों को ओबीसी वर्ग के तहत आरक्षण दिया जाता है. उन्हें ये अधिकार संविधान के अनुच्छेद 16(4) से मिलता है. इसमें कहा गया है कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण दिया जा सकता है जिन्हें सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है.
इसी तरह संविधान का अनुच्छेद 15(1) राज्य को नागरिकों के विरुद्ध धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है. अनुच्छेद 16(1) सभी लोगों को समान अवसर प्रदान करता है और अनुच्छेद 15 (4) के तहत राज्य सरकार किसी भी सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए आरक्षण दे सकती है.
गौर करने वाली बात यह है कि ये आरक्षण सिर्फ उन्हीं मुसलमानों के लिए है जो सच में पिछड़े हैं. जिन मुसलमान परिवारों की सालाना आमदनी 8 लाख रुपये या उससे ज्यादा है, उन्हें ‘क्रीमी लेयर’ माना जाता है. यानी ये लोग पिछड़े नहीं समझे जाते हैं क्योंकि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति अच्छी हो चुकी है. ऐसे अमीर या अच्छे खासा कमाने वाले मुसलमानों को ये आरक्षण नहीं दिया जाता है. साथ ही ये आरक्षण हर राज्य में अलग-अलग हो सकता है.
किन राज्यों में मुसलमानों को दिया जा रहा है आरक्षण
कुल 12 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ऐसे हैं जहां ओबीसी की केंद्रीय सूची के तहत मुसलमानों को आरक्षण दिया जाता है. जैसे कि कर्नाटक में ओबीसी के लिए जो 32% आरक्षण है, उसमें से 4% मुस्लिमों के लिए एक अलग श्रेणी बनाई गई है. वहीं आंध्र प्रदेश में जहां मुस्लिम आबादी 9.5% है, वहां कुछ मुस्लिम जातियों जैसे दुदेकुला, लद्दाफ, नूरबाश और मेहतर को 7% से 10% तक ओबीसी कोटा मिलता है.
केरल में 30% ओबीसी कोटे में 12% मुस्लिम समुदाय का भी हिस्सा है. ऐसे ही तमिलनाडु में मुसलमानों को 3.5% आरक्षण मिलता है. उधर यूपी में भी 27% ओबीसी कोटा के अंदर ही मुस्लिमों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. अब यूपी में मुस्लिम कोटा के आरक्षण की समीक्षा किए जाने की बात कही जा रही है.
क्या अनूसचित जाति में शामिल हैं मुस्लिम?
संविधान का आर्टिकल 341 और 1950 का प्रेसिडेंशियल ऑर्डर धार्मिक आधार पर आरक्षण की प्रावधान करता है. लेकिन, भारत में आरक्षण मुख्य रूप से जातियों के आधार पर ही दिया जाता है. अनूसचित जाति में सिर्फ हिंदू ही शामिल हो सकते हैं. मगर बाद में 1956 में सिख और 1990 में बौद्ध धर्म के लोगों को भी इसमें शामिल कर लिया गया. मुसलमान और ईसाई धर्म के लोग इस कैटेगरी में आरक्षण नहीं ले सकते हैं.
हालांकि, कुछ दलित मुस्लिम अनुसूचित जाति कोटे में शामिल होने की मांग कर रहे हैं. लेकिन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस मांग का विरोध किया है. सरकार का कहना है कि ईसाई और मुसलमान धर्म भारत के मूल धर्मों (हिंदू, सिख, बौद्ध) की तरह के नहीं हैं. इसलिए, दलित मुसलमानों को SC का आरक्षण नहीं मिल सकता.
सरकार ने कोर्ट में एक लिखित जवाब दिया है. उसमें कहा गया है कि ये मामला भारतीय नागरिकों और विदेशियों के बीच भेदभाव का है. हालांकि, अभी कोर्ट में किसी विदेशी नागरिक की बात नहीं हो रही है, ये सिर्फ भारतीय दलित मुसलमानों की है.