पोर्श, पिता और पुत्र! आख़िर इसका दोषी कौन?

पोर्श, पिता और पुत्र! आख़िर इसका दोषी कौन?

नशे में धुत होकर कार दौड़ा रहे उस बेटे का है? या उस पिता का जिसने नाबालिग बेटे की ज़िद के आगे हार मानकर पोर्श की चाबी थमा दी?

आसानी से कहा जा सकता है कि रईस बाप की औलादें ऐसी ही होती हैं। पैसों के नशे में चूर। बेमुरव्वत। बेख़ौफ़।… और बहुत हद तक निर्दयी भी। कहा जा सकता है कि रईस बाप को फ़र्क़ नहीं पड़ता। बेटे को बचाने के लिए वो कभी ड्राइवर को ख़रीदता है। कभी डॉक्टर्स को ब्लड सैंपल डस्टबिन में फेंकने को मजबूर करता है। पुलिस, न्याय व्यवस्था आदि को ख़रीदने की कोशिश भी करता है। सही है, ऐसा अक्सर होता है।

तस्वीर पब के CCTV फुटेज की है। हादसे से पहले नाबालिग ने दोस्तों के साथ शराब पी और नशे में कार लेकर निकल गया। उसने 90 मिनट में 48 हजार रुपए का बिल चुकाया था।
तस्वीर पब के CCTV फुटेज की है। हादसे से पहले नाबालिग ने दोस्तों के साथ शराब पी और नशे में कार लेकर निकल गया। उसने 90 मिनट में 48 हजार रुपए का बिल चुकाया था।

कोई अपनी इस मंशा मे सफल होता है। कोई विफल। सवाल यह है कि इस पूरी समस्या की जड़ क्या है? क्या उस पिता ने अपने नाबालिग बेटे को कार ले जाने से मना नहीं किया होगा? ज़रूर किया होगा, लेकिन आजकल के जवान होते बेटे मानते कहाँ हैं? पिता भी बेटे और उसके दोस्तों के सामने कंजूस नहीं कहलाना चाहते।

नहीं चाहते कि आज की पीढ़ी उन्हें पुरातन कहकर चिढ़ाए। सकुचाते हैं कि उनके बच्चे ये न कहने लगें कि हमारे पिता तो कतरे- ब्योंते, सड़े-गले, नियम- सिद्धांतों की अंधी गली में खोए रहते हैं।

यही सब सोचकर पिता कार की चाबी नाबालिग को देने पर मजबूर हो जाता है। बच्चों की नज़र में प्रोग्रेसिव कहलाने की चाह उससे यह सब करवाती है, लेकिन फिर पिता की सीरियसनेस सामने आती है। ड्राइवर साथ ले जाने की शर्त पर चाबी देता है, लेकिन नशे में धुत बेटा ड्राइवर को पीछे बैठाकर गाड़ी उड़ाता है और उड़ जाते हैं निर्दोष लोगों के प्राण!

घटनास्थल पर लगे CCTV में तेज रफ्तार से गुजरती हुई पोर्श दिखाई दी थी।
घटनास्थल पर लगे CCTV में तेज रफ्तार से गुजरती हुई पोर्श दिखाई दी थी।

आख़िर इसका निदान क्या? – सच है, सोलह-सत्रह की उम्र में जाना- पहचाना सब कुछ शरीर के वस्त्रों की तरह तंग हो जाता है। होंठ ज़िंदगी की प्यास से खुश्क हो जाते हैं। आकाश के तारे, जिन्हें बचपन में सप्त ऋषियों के आकार में देखकर दूर से प्रणाम करना होता है, पास जाकर छूने, बल्कि ख़ीसे में डालने को मन करता है। इर्द- गिर्द और दूर- पास की हवा में इतनी मनाहियां, इतने इनकार और इतने विरोध होते हैं कि साँसों में आग सुलग उठती है।

युवा मन की यही आग पिता- दादा को मजबूर बनाती है और कभी- कभी सड़क चलते निरपराध की जान लेने पर भी बन आती है। होना यह चाहिए कि पिता अपनी सख़्ती पर क़ायम रहे। बच्चे इस पितृात्मक अनुशासन की हंसी उड़ाने या उसे अपना अपमान समझने की बजाय हालात की गंभीरता को समझें।

निश्चित ही ऐसे हादसों से बचाव का उपाय बच्चों और पिता की गंभीर समझ से ही निकल सकता है। पुलिस, प्रशासन, थाने, ये सब तो सबूत बनाने और उन्हें मिटाने के उपक्रम में लगे रहते हैं। वहाँ से किसी तरह के निदान की कल्पना करना बेमानी ही लगता है।

कुल मिलाकर पुणे की यह घटना देशभर के पिताओं और उनके जवान होते बच्चों के लिए एक सबक़ है। एक हिदायत है। … और बहुत हद तक एक लक्ष्मण रेखा भी।

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