युद्ध अगर जारी रहे तो पूरी दुनिया भुगतेगी ?
युद्ध अगर जारी रहे तो पूरी दुनिया भुगतेगी
हमें अपने घुटनों की अहमियत तभी पता चलती है, जब वो काम करना बंद कर देते हैं। दुनिया के बारे में भी यही सच है। पुराने दिनों की खूबियां तभी साफ होती हैं, जब हालात बदल जाते हैं। 15 जून को स्विट्जरलैंड में होने जा रहे यूक्रेन शांति शिखर सम्मेलन से पहले दुनिया के नेताओं को इतिहास के इस नियम को ध्यान में रखना चाहिए।
अगर शांति बहाल नहीं हुई, तो दुनिया भर में इसके विनाशकारी परिणाम महसूस किए जाएंगे। क्योंकि जब भी अंतरराष्ट्रीय नियम बेकार साबित होने लगते हैं, दुनिया के देश हथियारों के जखीरों और फौजी-गठजोड़ में अपनी सुरक्षा की तलाश करने लगते हैं। यूक्रेन की घटनाओं के मद्देनजर क्या कोई पोलैंड को अपने सैन्य-बजट को दोगुना करने, फिनलैंड को नाटो में शामिल होने या सऊदी अरब को अमेरिका से रक्षा-संधि करने के लिए दोषी ठहरा सकता है?
लेकिन दुर्भाग्य से, सैन्य-बजट में वृद्धि समाज के सबसे कमजोर सदस्यों की कीमत पर होती है, क्योंकि स्कूलों और अस्पतालों के हिस्से का पैसा टैंकों और मिसाइलों को चला जाता है। सैन्य-गठबंधनों के सुरक्षा-कवच से बाहर रह गए कमजोर देश आसान शिकार साबित होते हैं। जैसे-जैसे सैन्य-गुट दुनिया भर में फैलते हैं, व्यापारिक-मार्ग तनावपूर्ण होते जाते हैं और कारोबार में गिरावट आती है।
इसकी सबसे बड़ी कीमत भी गरीबों को ही चुकानी पड़ती है। और जैसे-जैसे सैन्य-गुटों के बीच तनाव बढ़ता है, साथ ही इस बात का अंदेशा भी बढ़ने लगता है कि दुनिया के किसी सुदूर कोने में एक छोटी-सी चिंगारी भी पूरी दुनिया में आग को भड़का देगी।
हालांकि इस तरह के दृश्य हम मनुष्यों के लिए नए नहीं हैं। 2,000 से भी ज्यादा साल पहले सुन त्सु, कौटिल्य और थ्यूसीडाइड्स ने बताया था कि कैसे एक अराजक दुनिया में सुरक्षा की तलाश हर किसी को पहले से कम सुरक्षित बनाती चलती है।
दूसरे विश्व युद्ध और शीत युद्ध जैसे पिछले अनुभवों ने हमें बार-बार सिखाया है कि वैश्विक-संघर्ष में कमजोर लोग ही सबसे ज्यादा पीड़ित होते हैं। उदाहरण के लिए, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हताहतों की सबसे ज्यादा दर डच ईस्ट इंडीज यानी आज के इंडोनेशिया में थी।
जब 1939 में पूर्वी यूरोप में युद्ध छिड़ा तो ऐसा लगा कि यह जावा के चावल उगाने वाले किसानों से बहुत दूर हो रही कोई अलग-थलग घटना है, लेकिन पोलैंड में हुई घटनाओं ने एक ऐसी शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया को जन्म दिया, जिसमें लगभग 35 से 40 लाख इंडोनेशियाई मारे गए, ज्यादातर भुखमरी या जापानी कब्जेदारों के हाथों जबरन मजदूरी कराने के कारण।
यह इंडोनेशियाई आबादी का 5% था, जो अमेरिका (0.3%), ब्रिटेन (0.9%) और जापान (3.9%) सहित कई प्रमुख युद्धरत देशों की तुलना में मरने वालों की अधिक दर थी। शीत युद्ध ने भी जकार्ता में भयंकर आग लगाई। 1965-66 में कम्युनिस्ट विरोधी हिंसा में 5 से 10 लाख इंडोनेशियाई मारे गए थे।
लेकिन आज हालात और बदतर हैं। बात केवल इतनी भर नहीं है कि एक परमाणु-युद्ध तटस्थ देशों के भी करोड़ों लोगों को खतरे में डाल देगा। इसके साथ ही, मानवता को जलवायु-परिवर्तन और बेकाबू एआई के अलावा अनेक अन्य अस्तित्वगत खतरों का भी सामना करना पड़ रहा है।
जैसे-जैसे सैन्य-बजट बढ़ता है, वैसे-वैसे वह पैसा- जो ग्लोबल वार्मिंग को हल करने में मदद कर सकता था- वह हथियारों की होड़ में खर्च होने लगता है। जैसे-जैसे सैन्य-प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, जलवायु परिवर्तन पर समझौतों के लिए आवश्यक सद्भावना लुप्त होती जाती है।
बढ़ता तनाव एआई-हथियारों की दौड़ को सीमित करने के लिए समझौते तक पहुंचने की संभावना भी खत्म कर देता है। दुनिया जल्द ही यूक्रेन के आकाश में पूरी तरह से ऑटोनोमस ड्रोन के झुंड को एक-दूसरे से लड़ते हुए और जमीन पर हजारों लोगों को मारते हुए देख सकती है।
हत्यारे रोबोट सामने आ रहे हैं, लेकिन मनुष्य हैं कि आपसी-सहमति निर्मित कर पाने को लेकर पंगु हो चुके हैं। यदि यूक्रेन में जल्द ही शांति नहीं लाई गई, तो सभी को नुकसान होगा, फिर भले ही वह कीव से हजारों किलोमीटर दूर ही क्यों ना रहते हों और सोचते हों कि वहां की लड़ाई का उनसे कोई लेना-देना नहीं है।
इतिहास में साम्राज्यवाद शब्द का प्रयोग रोम, ब्रिटेन या जारशाही वाले रूस जैसे शक्तिशाली साम्राज्यों द्वारा विदेशी भूमि पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपना प्रांत बना लेने के बारे में किया जाता है। हालांकि 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में युद्धों की कमी नहीं रही है- फिलिस्तीन और इजराइल में और सूडान, म्यांमार और अन्य जगहों पर भयानक संघर्ष जारी रहे हैं- लेकिन ऐसा कोई मामला नहीं आया था, जब किसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त देश का किसी शक्तिशाली विजेता द्वारा अपने में विलय करके उसके अस्तित्व को मानचित्र से मिटा दिया गया हो।
जब इराक ने 1990-91 में कुवैत के साथ ऐसा करने की कोशिश की, तो एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन ने कुवैती स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता को बहाल किया। और जब अमेरिका ने 2003 में इराक पर आक्रमण किया, तब भी इराक के किसी हिस्से का अमेरिका में विलय करने का कोई सवाल नहीं था।
लेकिन रूस न केवल पहले ही क्रीमिया का अपने में विलय कर चुका है, बल्कि उसकी फौजें आज यूक्रेन के बड़े हिस्से पर काबिज हो चुकी हैं। अगर व्लादीमीर पुतिन को यूक्रेन पर जीत दर्ज करने का अवसर दिया जाता है तो दुनिया में साम्राज्यवाद की वापसी हो जाएगी।
लड़ाई शुरू करना आसान है, पर खत्म करना कठिन…
अमन कायम करना आसान नहीं होता। कहते हैं कि दुनिया के देश खलिहान के दरवाजे से युद्ध में प्रवेश करते हैं, लेकिन उससे निकलने का रास्ता चूहे के बिल से होता है। परस्पर विरोधी हितों के चलते समझौता करना मुश्किल हो जाता है।
(द इकोनॉमिस्ट से)