अपनी ही जिंदगी से यह कैसी लापरवाही ?

पहाड़: अपनी ही जिंदगी से यह कैसी लापरवाही; ट्रैकिंग के लिए जरूरी है सटीक जानकारी
अप्रैल से जून तक बर्फ पिघलती है।स्थानीय लोग भी जुलाई से सितंबर के बीच सहस्त्रताल जाते हैं। बिना जानकारी ट्रैकिंग जानलेवा साबित होती है। 
Mountains: Accurate information is necessary for tracking
सांकेतिक तस्वी

बीते 29 मई को गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग से सिल्ला गांव की ओर कुस-कल्याण होते हुए सहस्त्रताल (14,500 फुट) तक ट्रैकिंग के लिए कर्नाटक और महाराष्ट्र के 22 लोग बर्फीली हवा में फंस गए थे, जिनमें छह महिलाओं समेत नौ लोगों की मौत हो गई।  शेष 13 लोगों को राज्य एवं केंद्र सरकार की आपदा प्रबंधन एजेंसी और वायुसेना की मदद से बचाया गया। वर्ष 2021 में आईटीबीपी पेट्रोलिंग के दौरान हिमस्खलन से तीन कुलियों की मौत हो गई थी। वर्ष 2022 में द्रौपदी का डांडा-2 चोटी पर चढ़ाई के दौरान हिमस्खलन में 28 लोगों की मौत हो गई थी। वर्ष 2023 में रूनसारा-ताला ट्रैक और गंगोत्री कालिंदी खाल में तीन ट्रैकर्स की मौत हो गई थी, जबकि मौसम विभाग ने अलर्ट भी किया था। हिमालय में साहसिक पर्यटन और पर्वतारोहण के लिए लाखों देशी-विदेशी सैलानी प्रतिवर्ष ऊंची-ऊंची बर्फीली चोटियों पर पहुंचकर गौरवान्वित महसूस करते हैं। लेकिन पीढ़ियों से रह रहे स्थानीय लोग ही बता सकते हैं कि किस महीने में किस चोटी पर जाना अधिक उचित और सुरक्षित हो सकता है।

स्थानीय लोग भी बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष सहस्रताल पहुंचने के लिए खड़ी चढ़ाई पार करते हैं। लेकिन उनके वहां जाने का समय जुलाई के अंतिम सप्ताह से सितंबर के अंत तक है। वहां ऐसे अनेकों रास्ते हैं, जहां से बहुत सारे लोग बस्तियों तक पहुंच जाते हैं। अप्रैल से जून तक तेजी से बर्फ पिघलने का समय होता है, इसलिए बर्फीले तूफान भी आते हैं। जुलाई के बाद बारिश होने से बर्फीले तूफान की गति धीमी पड़ जाती है और बर्फ पिघलना कम हो जाता है। इन महीनों में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बहुत पतली वर्षा देखने को मिलती है, जिसमें भीगने पर पर्यटकों को आनंद महसूस होता है। यहां ब्रह्मकमल के पुष्प और बुग्याल के मनोरम दृश्य, सामने ऊंची चोटियों पर चांदी की तरह चमकने वाली बर्फ स्वर्ग का एहसास कराती है। सहस्रताल ग्लेशियर लगभग 40 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। ‘सहस्त्रताल’ नाम इसलिए है कि यहां पर बर्फ की सैकड़ों झीलें हैं, जहां से धर्मगंगा, बालगंगा, भिलंगना, पिलंगना जैसी पवित्र नदियां बहकर टिहरी बांध के जलाशय में भागीरथी में मिलती हैं। इसलिए सहस्रताल ट्रैकिंग के लिए टिहरी गढ़वाल के प्रसिद्ध तीर्थ बूढ़ा केदारनाथ और भिलंग से होकर भी जाते हैं।

चूंकि ऊंचाई पर ऑक्सीजन की बहुत कमी हो जाती है, इसलिए 60 वर्ष से ऊपर के लोगों को वहां पहुंचने में कठिनाई होती है। यहां ट्रैकिंग पर निकले 22 लोगों की टीम में चार लोग 60 वर्ष से ऊपर थे, जिनका पहले स्वास्थ्य परीक्षण भी नहीं किया गया था। उनके पास ट्रैकिंग संबंधी पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध नहीं थे। उत्तरकाशी के जिलाधिकारी डॉ. मेहरबान सिंह बिष्ट ने एक स्थानीय ट्रैकिंग एजेंसी पर रोक लगाई है, क्योंकि उसने 22 ट्रैकर्स के साथ मात्र तीन पोर्टल गाइड ही भेजे थे। इसके लिए कोई ‘मानक संचालन प्रक्रिया’ (एसओपी) भी नहीं बनाई गई है। सच्चाई यह भी है कि स्थानीय ट्रैकिंग एजेंसियों का काम सिंगल विंडो सिस्टम में पंजीकरण और गाइड उपलब्ध कराने तक ही सीमित है। बड़ी ट्रैकिंग कंपनियों से कम बजट मिलने से भी स्थानीय एजेंसियां नियमों के पालन पर ज्यादा ध्यान नहीं देतीं। स्थानीय मौसम और उपयुक्त समय को नजर अंदाज करने वाली बंगलूरू, दिल्ली, मुंबई, गुरुग्राम, पुणे, कोलकाता आदि की मुनाफाखोर ऑनलाइन एग्रीगेटर कंपनियां भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।

कुछ स्थान ऐसे हैं, जहां जाने के लिए पर्वतारोहण जैसे अभियान के स्तर की तैयारी होनी चाहिए। नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रधानाचार्य कर्नल अंशुमन भदौरिया कहते हैं कि ट्रैकिंग व पर्वतारोहण अभियान के दौरान मौसम पूर्वानुमान लेना जरूरी होता है। जलवायु परिवर्तन के दौर में कम और अनुभवहीन कर्मचारी को 20-25 पर्यटकों को संभालने का दायित्व सौंपना खतरनाक हो सकता है।

हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में पर्यटकों के पहुंचने से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है, क्योंकि वे जंगल की लकड़ी से खाना बनाकर आग भी नहीं बुझाते और कूड़ा-कचरा भी छोड़कर चले आते हैं। सिंगल विंडो सिस्टम में ट्रैकिंग अनुभव और बीमा की निगरानी व परीक्षण की तो कोई बात ही नहीं है। इसके लिए अब एसओपी बनाने पर विचार किया जा रहा है। अगर अब भी लापरवाही बरती गई, तो सैलानियों के जीवन की सुरक्षा मुश्किल में पड़ जाएगी।

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