संघ-भाजपा की नोक-झोंक नई बात नहीं
संघ-भाजपा की नोक-झोंक नई बात नहीं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने पिछले दिनों ताबड़तोड़ जो बयान दिए, वो क्या सोच कर दिए? इन बयानों को भाजपा सरकार की आलोचना के रूप में देखा जा रहा है। स्वयंसेवकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति पर सरसंघचालक मोहन भागवत का चर्चित भाषण हुआ।
उसके बाद कार्यकारिणी सदस्य और संघ समर्थित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के प्रमुख संरक्षक इंद्रेश कुमार ने ‘अहंकार’ का विशेष जिक्र करते हुए कहा कि भगवान राम ने भाजपा के अहंकार का दंड उसे बहुमत से काफी कम सीटें देकर दिया है।
टीवी चैनलों पर और अखबारों में संघ के नजरिए का खुलासा करते रहने वाले रतन शारदा ने ज्यादा साफ बयान देते हुए भाजपा की आलोचना की कि उसने संघ के जाने-माने आलोचकों को पार्टी में शामिल करके अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को कमजोर किया और इसकी कीमत चुकाई।
उसके बाद संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ में कहा गया कि महाराष्ट्र में भाजपा की हार एनसीपी के अजित पवार वाले गुट से गठबंधन करने से हुई। इन चारों बयानों पर गौर करें तो स्पष्ट होगा कि एक दशक में यह पहली बार है जब संघ ने भाजपा की समन्वित आलोचना की है।
वास्तव में, भागवत ने संयम बरतने की सलाह देते हुए कहा कि वे विपक्ष के लिए ‘विरोधी’ की जगह ‘प्रतिपक्ष’ शब्द का प्रयोग करना चाहेंगे। यह हमें हमारे अगले सवाल पर लाता है कि संघ आखिर क्या हासिल करना चाहता है?
उदारवादी जमात संघ के इस ताजा ‘हस्तक्षेप’ पर सबसे ज्यादा खुश हो रही है। दशकों से संघ की विचारधारा से लड़ती रही यह जमात संघ के मुखिया द्वारा की गई इस आम किस्म की आलोचना से जो संतोष हासिल कर रही है, वह एक विडंबना भी है और हताशा का परिचय भी।
यहां तक कि कांग्रेसी खेमे के कुछ लोगों ने भी कुछ तो भाजपा को चिढ़ाने के लिए और कुछ इस उम्मीद में इस आलोचना का स्वागत किया है कि इससे मोदी कमजोर पड़ेंगे। भागवत के बयान का हवाला देते हुए कई लेख लिखे गए हैं और सोशल मीडिया पर कई पोस्ट किए गए हैं, जिनका स्वर कुछ यह है कि ‘हमें मालूम है कि आप हमारी बात नहीं सुनेंगे, लेकिन मोहन भागवत की तो सुनिए’। संघ के मुखिया को भाजपा के मुकाबले ज्यादा स्वीकार्य बताया गया है।
जबकि तथ्य यह है कि संघ-भाजपा के रिश्ते का इतिहास नोक-झोंक से भरा पड़ा है। लेकिन इन नोक-झोंक से शायद ही कोई बड़ा फर्क पड़ा है। यह सोचना कि संघ भाजपा नेतृत्व में कोई परिवर्तन लाएगा, उसकी मंशा और ताकत का गलत आकलन ही होगा।
इस चुनाव ने मोदी के आलोचकों को दिखा दिया है कि मोदी को शिकस्त दी जा सकती है। लेकिन अगले पांच साल तक एक के बाद एक कई राज्यों में चुनाव लड़ते हुए उन्हें मात देने के लिए इन आलोचकों को कहीं ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी।
यह किसी तरह के आंतरिक विद्रोह से तो नहीं हो सकता, चाहे उसे संघ का वरदहस्त प्राप्त हो या नहीं। इसके अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे संकेत मिले कि संघ सरकार को अस्थिर करने का इरादा रखता है।
भाजपा का गठन 1980 में जनता पार्टी से टूटे मूल भारतीय जनसंघ के अवशेष से हुआ था। जनसंघ का 1977 में जनता पार्टी में विलय हुआ लेकिन वह पार्टी टूट गई। उसके बाद से हम देख रहे हैं कि संघ-भाजपा संबंध किस तरह से रहा है। 1984, 2004, और 2024 को याद कीजिए।
1984 में पंजाब संकट को लेकर चिंतित संघ राष्ट्रीय हित की मांगों के दबाव में आ गया था। उसने फैसला किया कि भारत ऐसी किसी दूसरी गठबंधन सरकार (जिसमें भाजपा भी शामिल हो) की जगह राजीव गांधी की सरकार के अधीन ज्यादा सुरक्षित रहेगा। उस दौरान राजीव गांधी और सरसंघचालक बालासाहब देवरस की कथित मुलाकात की खबरें भी आई थीं।
मैंने उस चुनाव को कवर किया था, खासकर मध्य प्रदेश और दिल्ली के लिए। मैंने पाया था कि संघ के कार्यकर्ता न केवल भाजपा के चुनाव अभियान से अलग थे बल्कि ‘स्थिरता और राष्ट्रहित’ के लिए कांग्रेस को वोट देने के संदेश प्रसारित कर रहे थे।
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की पहली गठबंधन सरकार के गठन पर संघ ने जश्न मनाया। वाजपेयी का व्यक्तित्व और स्वभाव तत्कालीन सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन के व्यक्तित्व और स्वभाव से मेल नहीं खाता था।
यह तनाव 2003 तक आते-आते उजागर हो गया। संघ ने 2004 के चुनाव में पूरा उत्साह नहीं दिखाया, जिसे वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने समय से पांच महीने पहले ही करवाया था। लेकिन वे हार गए थे, बेशक मामूली अंतर से।
इनमें से कई खीझों का जिक्र सुदर्शन ने अप्रैल 2005 में मुझे दिए इंटरव्यू में किया था। इस इंटरव्यू के लिए सरसंघचालक के कार्यालय से ही अनुरोध आया था। वाजपेयी की हार के बाद सुदर्शन का लहजा कुछ इस तरह का था कि ‘यही होना था। काश उन्होंने हमारी बात सुनी होती’।
अब 20 साल बाद वह खीझ 2024 के चुनाव अभियान में फिर उभर आई। भाजपा को विश्वास हो गया था कि उसे सिर्फ मोदी के नाम पर अभियान चलाने की जरूरत है, कि इस बार का अभियान उसकी खातिर एक व्यक्ति पर आधारित ही होगा।
संघ ने खुद को कुछ तिरस्कृत महसूस किया होगा, खासकर जमीनी स्तर पर, बावजूद इसके कि उसके कई वैचारिक लक्ष्यों- अनुच्छेद 370, राम मंदिर, तीन तलाक आदि- को पूरा किया जा चुका है। मोदी ने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भागवत को सम्मानित स्थान भी दिया था।
लेकिन इससे फर्क नहीं…
तथ्य यह है कि संघ-भाजपा के रिश्ते का इतिहास नोक-झोंक से भरा पड़ा है। लेकिन इनसे शायद ही कोई फर्क पड़ा है। यह सोचना कि संघ भाजपा नेतृत्व में कोई परिवर्तन लाएगा, उसकी मंशा और ताकत का गलत आकलन ही होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)