हिरासत में मौत को लेकर भारत में कोई सख्त कानून नहीं है ?

 थर्ड डिग्री, हिरासत में मौतें… कानून के नजरिए से मामले की पूरी पड़ताल
पुलिस या न्यायिक हिरासत में किसी आरोपी के मौत के कई अलग-अलग कारण हो सकते हैं. इनमें प्राकृतिक मृत्यु, आत्महत्या, दुर्घटना या यातना और प्रताड़ना शामिल हैं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने हाल ही में ओडिशा सरकार को एक नोटिस जारी किया है. इस नोटिस के जरिये एनएचआरसी ने ओडिशा सरकार से स्पष्टीकरण मांगा गया कि अगर किसी व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है यानी कस्टोडियल डेथ होती है तो उसके घरवालों को आर्थिक मुआवजा की मांग क्यों नहीं करनी चाहिए.

यहां कस्टोडियल डेथ का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति की मौत जो पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में होती है. इसमें पुलिस थाने, जेल, सुधार गृह या अन्य सरकारी हिरासत स्थानों में होने वाली मौतें शामिल होती हैं.

कस्टोडियल डेथ के भी कई अलग अलग कारण हो सकते हैं, जिनमें प्राकृतिक मृत्यु, आत्महत्या, दुर्घटना, या यातना और प्रताड़ना शामिल हैं. अक्सर ये मामले जांच और सार्वजनिक ध्यान का विषय बन जाते हैं, खासकर जब मौत की वजह संदिग्ध हो या पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका पर सवाल उठें.

ऐसे में इस रिपोर्ट विस्तार से समझते हैं कि हिरासत में मौतों  को भारत का कानून क्या कहता है और इसमें दोषी को कितने साल की सजा मिलती है.  

सबसे पहले ओडिशा का मामला जान लीजिये 

उड़ीसा हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को बरगढ़ जिले के मखुनु बाग के कानूनी उत्तराधिकारियों को 5 लाख रुपये का अंतरिम मुआवजा देने का निर्देश दिया है, जिनकी लगभग 9 साल पहले पुलिस हिरासत में कथित तौर पर हत्या कर दी गई थी.

मामले के रिकॉर्ड के अनुसार, मखुनू 17 जुलाई 2015 को अपने बेटे के ठिकाने के बारे में पूछताछ करने के लिए भेडेन पुलिस स्टेशन गया था. इसके बाद वह लापता हो गया और 24 सितंबर 2015 को सुबरनापुर जिले के मेटाकानी मंदिर के पास के जंगल से उसका कंकाल बरामद किया गया था.

मखुनु के परिवार के सदस्यों और डीएनए रिपोर्ट ने उस कंकाल की पहचान की. जांच के बाद हत्या के आरोप में भेडेन पुलिस स्टेशन के प्रभारी सहित पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार कर लिया गया था और अदालत में भेज दिया गया था.

इस पूरे घटना के बाद मखुनू के छोटे बेटे बीजू बाग ने वकील प्रबीर कुमार दास के जरिये हाई में एक याचिका दायर कर दी. जिसमें मखुनू के छोटे बेटे ने पुलिस हिरासत में अपने पिता की मौत के लिए 20 लाख रुपये का मुआवजा और सीबीआई जांच की मांग की थी.

अब इतने सालों बाद इस याचिका का निपटारा करते हुए जज एसके पाणिग्रही की एकल न्यायाधीश पीठ ने फैसला सुनाते हुए बीजू को मुआवजा देने का निर्देश दे दिया है. हालांकि अभी उसे केवल पांच लाख का ही मुआवजा दिया गया है. फैसले के दौरान जज ने कहा, “मेरी राय में, सुनवाई पूरी होने और मौत की परिस्थितियों की पूरी जांच के बिना पूर्ण मुआवजा नहीं दिया जा सकता है. इसलिए, इस स्तर पर, याचिकाकर्ता और उसके परिवार के आवश्यक खर्चों की देखभाल के लिए अंतरिम मुआवजा देना उचित होगा.

थर्ड डिग्री, हिरासत में मौतें... कानून के नजरिए से मामले की पूरी पड़ताल

गुजरात में सबसे ज्यादा हिरासत में मौत 

भारत में सबसे ज्यादा कस्टोडियल डेथ की घटनाएं गुजरात में हुई हैं. पिछले पांच सालों में इस राज्य में 81 कस्टडियल डेथ्स की रिपोर्ट की गई हैं, जो किसी भी अन्य राज्य से सबसे ज्यादा हैं. इसके बाद महाराष्ट्र में 80, उत्तर प्रदेश में 41, और तमिलनाडु में 40 कस्टडियल डेथ्स हुई हैं.

किस कारण होती है हिरासत में मौत 

वैसे तो हिरासत में होने वाले मौत के कई कारण हैं लेकिन ज्यादातर मामले में मरने वालों के परिजनों ने आरोप लगाया है कि पूछताछ के दौरान उन्हें प्रताड़ित किया जाता था. इन कारणों में अत्यधिक बल प्रयोग करने का आरोप सबसे ज्यादा लगाए जाते है.

हिरासत में मौत पर क्या कहता है भारत का कानून 

हिरासत में होने वाली मौतों को लेकर भारत का कानून में कड़े प्रावधान है. यहां हम ऐस ही कुछ महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधान का जिक्र करने जा रहे है, जिसके बारे में हर किसी को पता होना चाहिये.

1. भारतीय संविधान: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है. किसी भी व्यक्ति को हिरासत में रखने के दौरान प्रताड़ीत करना और मृत्यु इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन है.

2. भारतीय न्याय संहिता (BNS) : बीएनएस से पहले यान IPC की धारा 302 (हत्या) और धारा 304 (गैर-इरादतन हत्या) के तहत पुलिस अधिकारियों पर आरोप लगाया जा सकता है यदि यह साबित हो जाए कि हिरासत में मौत उनके द्वारा की गई प्रताड़ना के कारण हुई है. लेकिन अब नए कानून के तहत यानी बीएनएस के तहत धारा 103 के हत्या और 104 के तहत लापरवाही से मौत मामले दर्ज किए जाएंगे.

3. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता: भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के तहत ऐसे मामलों में धारा 176 के तहत मजिस्ट्रेट जांच का प्रावधान है. इसमें कस्टडियल डेथ के मामलों की न्यायिक जांच शामिल है.

4. मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993: यह अधिनियम राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) और राज्य मानव अधिकार आयोगों की स्थापना करता है, जो कस्टडियल डेथ और प्रताड़ना के मामलों की जांच कर सकते हैं और संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश कर सकते हैं.

5. राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) के दिशा-निर्देश: NHRC ने हिरासत में प्रताड़ीत किए जाने और मौत के मामलों में जांच और प्रतिपूर्ति के लिए डिटेल दिशानिर्देश जारी किए हैं. इनमें पुलिस कस्टडी में मौत की रिपोर्टिंग, जांच प्रक्रिया, और पीड़ित के परिवार को मुआवजा देने के प्रावधान भी शामिल हैं.

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कस्टडी में मौत के बाद जांच की प्रक्रिया क्या है 

ऐसे मामलों को सीबीआई या विशेष जांच टीमों जैसी स्वतंत्र एजेंसियों को सौंप दी जाती है. वकील डीके बसु ने लाइव लॉ की एक रिपोर्ट में कहा है कि हिरासत में मौत मामले में स्वतंत्र जांच, कम से कम शुरुआती चरण में एक बड़ी समस्या रही है. इसका कारण यह है कि पुलिस को खुद अपने ही खिलाफ जांच करने के लिए कहा जाता है.

इसके अलावा उच्चतम न्यायालय भी ऐसे में मामले में पुलिस के आपसी ‘भाईचारे’ पर टिप्पणी कर चुका है, जो हिरासत में हुई हिंसा के मामलों में परिणामदायक जांच में बाधा बनती है.

हालांकि  सीआरपीसी की धारा 176 (1) में एक मजिस्ट्रेट, जिसे अप्राकृतिक मौत के मामलों में पूछताछ करने का अधिकार है, वह पुलिस अधिकारी द्वारा की जा रही जांच के अलावा हिरासत में मौत के कारणों की जांच कर सकता है. यह एक सामान्य, सशक्तिकरण का प्रावधान है, जो मजिस्ट्रेट को इस तरह की जांच करने की अधिकार देता है.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश

देश में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं, इन मामलों में डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996) प्रमुख है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत में प्रताड़ना और मौत को रोकने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए थे, जैसे गिरफ्तारी के समय हिरासत में व्यक्ति के अधिकारों की जानकारी देना और हिरासत में मौत की जांच अनिवार्य करना.

हालांकि भारतीय कानून के तमाम प्रावधानों और दिशानिर्देशों के बाद भी, कस्टडियल डेथ के मामलों की रोकथाम और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई में सुधार की जरूरत है. ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हिरासत में किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो.

हिरासत में होने वाली हिंसा को रोकने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं?

हिरासत में होने वाली हिंसा के आरोपों की तुरंत और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित होनी चाहिए और सुनवाई के माध्यम से अपराधियों को दंड देना चाहिए. इसके अलावा मानव अधिकारों को बनाए रखते हुए पुलिस प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सुधार किया जाना चाहिए. हिरासत में हिंसा के मामलों की प्रभावी निगरानी के साथ इनके समाधान के लिए निगरानी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए.

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