यह गठजोड़ और गठतोड़ की राजनीति का समय है। शादी वाले गठबंधन में तो सात जन्मों तक साथ निभाने का वचन भरा जाता है, लेकिन राजनीतिक दलों के गठबंधनों में सात दिनों तक भी साथ में बने रहने की गारंटी नहीं होती है। दलों के गठबंधन टिकाऊ भले ही न हों, उनके बिकाऊ होने का खतरा बराबर बना रहता है। गठबंधन हमारे जीवन का वह खूंटा है, जिससे बंधने से कम लोग ही बच पाते हैं।

सच कहूं तो मेरे जीवन की प्राथमिकताओं में भी राजनीति और विवाह ही प्रमुख रहे हैं। मैं जब से बालिग हुआ हूं, दो ही किस्म की तमन्नाएं संजोए हुए हूं। पहली, किसी कमाऊ कन्या का चुनाव कर उससे गठबंधन करने की और दूसरी, किसी भरोसेमंद पार्टी का टिकट हथियाकर चुनाव में खड़ा होने की। मेरे दोनों इरादे अभी तक कुंवारे हैं। मैं अब तक न किसी रोजगार प्राप्त कन्या का हाथ थाम पाया हूं और न ही एक भी विश्वसनीय राजनीतिक दल मेरे हाथ लग पाया है। संकट है और मैं इसमें अवसर की तलाश में लगा हूं।

मेरे एक मित्र कहते हैं, ‘अविवाहित रह कर तो तब भी जिया जा सकता है, मगर जिसके दिल में एक बार एमपी-एमएलए वगैरह बनने की हुड़क जाग जाए, वह इश्क का मारा, न चैन से जी पाता है, न ही मर पाता है। यह एक ऐसी अनंत प्यास है, जो समूचा समंदर सोखने के बाद मृत्यु के पश्चात भी शांत नहीं होती है। भले ही वह हमें दिखाई नहीं पड़ती है, लेकिन प्रत्येक कुर्सी के इर्दगिर्द अतृप्त आत्माओं की खोपड़ियां मंडराती ही रहती हैं। इधर जीवित लोग सत्ता और पद के लिए सिर पटकते हैं। जिनको कुर्सी मिल जाती है, उनकी जय जयकार होने लगती है और जो इससे वंचित हो जाते हैं, वे सरकार की हर बात का विरोध करने लग जाते हैं।’ यह दौर ही ऐसा है कि बीमार मानसिकता के लोगों द्वारा की जाने वाली आलोचनाएं, उपहास, झूठी और मनगढ़ंत बातें वगैरह एक स्वस्थ लोकतंत्र की सच्ची पहचान समझी जाने लगी हैं।

इस बार के लोकसभा चुनाव में मैं अपनी दूसरी वाली तमन्ना पूरी करना चाहता था। मैं हमेशा की तरह तमाम कोशिशें करता रहा, लेकिन राष्ट्रीय स्तर की तो दूर, जिला स्तर की भी किसी राजनीतिक पार्टी ने घास नहीं डाली। वैसे भी इस हार्स ट्रेडिंग के जमाने में अब घास नहीं, हरे पत्ते खिलाने का चलन है। हर तरफ से धकियाए जाने के बाद मैंने एक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में नामांकन-पत्र दाखिल करने की हिम्मत की, लेकिन कोई प्रस्तावक तक नहीं मिला। एक दो को पटाया भी, मगर उनके अपने नाम ही वोटर लिस्ट में नहीं थे। वे लोग मुझसे ही अपेक्षा कर रहे थे कि मैं किसी जुगाड़ से उनको ईवीएम माता के दर्शन करा दूं। मैंने उनसे कहा, ‘चलो, पहले आप लोगों को मंदिर के दर्शन करा लाता हूं। हो सकता है, कृपा वहीं पर अटकी हुई हो।’ वे लोग समझदार थे। उनको मेरी हैसियत का अंदाजा हो गया था। वे मुझको लगभग दुत्कारते हुए कहने लगे, ‘अपनी राजनीति में धर्म को मत लाओ। बस, हमें मतदाता बनवा दो।’

मैं आज तक अपना राशन कार्ड तो बनवा नहीं पाया, उनका वोटर कार्ड क्या ही बनवा पाता? मुझे मन मसोसकर रह जाना पड़ा। काश, मैं शादीशुदा होता, तो कम-से-कम मेरे ससुराल वाले ही प्रस्तावक बन जाते। और तो और, इस बार बहुत सारी पार्टियां महिलाओं को प्रत्याशी बनाना चाहती थीं। मेरे शुभचिंतक भी कहते हैं, ‘तुम्हारे घर में भी एक नारी-शक्ति होती तो हम लोग मिल-जुलकर कोशिश करते और भाभी जी को टिकट दिलवा देते। फिर वह लड़तीं और जीततीं। अब चाहे वह विजयी होतीं या तुम, बात तो एक ही थी।’

पिछले वर्षों में ग्राम पंचायत के चुनाव में कितनों ने अपनी पत्नियों को ग्राम प्रधान बनवा दिया। खुद पत्नी के दस्तखत बनाकर ग्राम प्रधानी कर रहे हैं। भला पत्नियों से बढ़कर विश्वसनीय और कौन मिल सकता है? वे कम पढ़ी हों तो और बढ़िया। जहां चाहो, अंगूठा लगवा लो। कोई ऊंच-नीच हो जाए, तो वे कहेंगी, ‘हमें क्या मालूम। उन्होंने जहां कहा था, वहां पर छापा लगा दिया। वह तो गठबंधन के पहले ही मेरा हाथ मांग ले गए थे।’