आईएएस के बेटे को आरक्षण क्यों ?
आईएएस के बेटे को आरक्षण क्यों’, सुप्रीम कोर्ट में एससी-एसटी में क्रीमी लेयर की बहस क्यों हुई?
Creamy Layer In SC-ST: उच्चतम न्यायालय ने एक अहम फैसले में कहा है कि राज्य को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण करने का हक है। इसी दौरान जस्टिस गवई ने क्रीमी लेयर के बारे में 281 पेज का फैसला लिखा है। जिस पर तीन अन्य जजों विक्रमनाथ, पंकज मिथल और सतीश चन्द्र शर्मा ने अपनी सहमति जताई है।

सुप्रीम कोर्ट में मसले की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश समेत कई न्यायाधीशों ने एससी/एसटी में क्रीमी लेयर लागू करने को लेकर अलग-अलग राय रखी। आइये जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या है? क्रीमी लेयर पर क्या कहा गया है? फैसले में इस व्यवस्था पर क्या कहा गया है?

उच्चतम न्यायालय के सात न्यायधीशों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि राज्य को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है। फैसले का मतलब है कि राज्य एससी श्रेणियों के बीच अधिक पिछड़े लोगों की पहचान कर सकते हैं और कोटे के भीतर अलग कोटा के लिए उन्हें उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।
यह फैसला भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है। इसके जरिए 2004 में ईवी चिन्नैया मामले में दिए गए पांच जजों के फैसले को पलट दिया। बता दें कि 2004 के निर्णय में कहा गया था कि एससी/एसटी में उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है।
इस मामले की सुनवाई में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल रहे। पीठ ने इस मामले पर तीन दिनों तक सुनवाई की थी और बाद 8 फरवरी, 2024 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। पीठ 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें से मुख्य याचिका पंजाब सरकार ने दायर की थी। इस याचिका में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती दी गई थी।

फैसले के दौरान हुई बहस से जो मुख्य बिंदु सामने आए हैं उनमें से एक यह भी है कि अदालत ने एससी-एसटी में क्रीमी लेयर की आवश्यकता पर जोर दिया है। कई जजों ने न्यायालय ने अनुसूचित जातियों के भीतर ‘क्रीमी लेयर’ को अनुसूचित जाति श्रेणियों के लिए निर्धारित आरक्षण लाभों से बाहर रखने की पर राय रखी। वर्तमान में, यह व्यवस्था अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण पर लागू होती है।
मुख्य रूप से न्यायमूर्ति बीआर गवई ने कहा कि राज्यों को एससी, एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए और उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए। बता दें कि चार न्यायाधीशों ने अपने-अपने फैसले लिखे जबकि न्यायमूर्ति गवई ने अलग फैसला दिया।
जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि पहले के न्यायाधीश ही नहीं बल्कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री भी किसी वर्ग या जाति के लोगों को विशुद्ध रूप से जाति के आधार पर आरक्षण देने के खिलाफ दिखाई दिए और देश को योग्यता के आधार पर आगे ले जाना चाहते थे। इन विचारों के बावजूद, संविधान संशोधनों में दलित और पिछड़े वर्गों के लोगों को बढ़ावा देने की परिकल्पना की गई थी ताकि उन्हें बराबर स्तर पर लाया जा सके। इस प्रकार आरक्षण नीति सही ढंग से लागू की गई।
जस्टिस सतीश ने कहा कि चूंकि आरक्षण के कार्यान्वयन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि पिछड़े वर्गों में से कुछ आगे बढ़ गए। इसलिए पिछड़े वर्ग के पिछड़े लोगों का उत्थान करना अनिवार्य हो गया, जिसके लिए उप-वर्गीकरण का फैसला दिया गया है।
न्यायमूर्ति गवई ने क्रीमी लेयर के पक्ष में अपनी राय रखते हुए एक उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि पिछड़े वर्ग का एक व्यक्ति आईएएस या आईपीएस या अखिल भारतीय सेवा का कोई अन्य अधिकारी बन जाता है और समाज में उसकी स्थिति सुधर जाती है लेकिन फिर भी उसके बच्चों को आरक्षण का पूरा लाभ मिलता है।
जस्टिस सतीश ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि किसी विशेष जाति/वर्ग के कुछ लोग समाज में आगे बढ़ते हैं तो पूरी जाति या वर्ग पिछड़ा नहीं रह जाएगा। फिर भी यदि पिछड़े वर्ग का कोई व्यक्ति अगड़े वर्ग के बराबर आ जाता है, तो यह समझना कठिन है कि उसके बच्चों को सामाजिक, आर्थिक या शैक्षणिक रूप से किसी भी तरह से वंचित, दलित या पिछड़ा कैसे माना जाएगा। इसलिए, जिस जाति का वह व्यक्ति है, उसे आरक्षण के लाभ से पूरी तरह से बाहर नहीं रखा जा सकता है। लेकिन निश्चित रूप से जिस परिवार ने एक बार लाभ ले लिया है, उसे अगली पीढ़ी में आरक्षण का लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ऐसे परिवारों को आरक्षण केवल एक पीढ़ी तक ही सीमित रखना होगा।
न्यायमूर्ति गवई ने अपनी राय में कहा कि न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने एनएम थॉमस (सुप्रा) में बार-बार कहा है कि राज्य को एससी/एसटी के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से आगे बढ़ चुके वर्गों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने के लिए कदम उठाने का अधिकार है। यह कहा गया कि सेंट स्टीफंस कॉलेज (दिल्ली विश्विद्यालय का कॉलेज) या किसी अच्छे शहरी कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे की तुलना ग्रामीण स्कूल या कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे से नहीं की जा सकती और उसे एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि राज्य को एससी और एसटी में से भी क्रीमी लेयर की पहचान करने की नीति बनानी चाहिए ताकि उन्हें आरक्षण के लाभ से बाहर रखा जा सके।
जस्टिस सतीश ने कहा कि संविधान के तहत और इसके विभिन्न संशोधनों द्वारा आरक्षण की नीति को नए सिरे से देखने और एससी/एसटी/ओबीसी समुदायों के उत्थान के लिए अन्य तरीके बनाने की जरूरत है। जब तक कोई नया तरीका नहीं बनाया जाता या अपनाया नहीं जाता है, तब तक मौजूदा आरक्षण प्रणाली में उप-वर्गीकरण की अनुमति देने की शक्ति दी जाए।
इन श्रेणियों के व्यक्तियों की उत्थान के लिए कोई भी सुविधा जाति के अलावा पूरी तरह से अलग मानदंडों पर होना चाहिए। उप-वर्गीकरण की यह व्यवस्था आर्थिक स्थिति, व्यवसाय और व्यक्ति के रहने के स्थान (शहरी या ग्रामीण) के आधार पर मौजूद सुविधाओं पर आधारित हो सकती है।
जस्टिस सतीश ने कहा कि आरक्षण केवल पहली पीढ़ी या एक पीढ़ी के लिए सीमित होना चाहिए। यदि परिवार में किसी पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ लिया है और अच्छा स्तर पा लिया है, तो आरक्षण का लाभ तार्किक रूप से दूसरी पीढ़ी को नहीं मिलना चाहिए। जस्टिस ने कहा कि आरक्षण का लाभ लेने के बाद सामान्य श्रेणी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले व्यक्ति के वर्ग को बाहर करने के लिए समय-समय पर कवायद की जानी चाहिए।
अदालत के फैसले में भी एससी/एसटी में क्रीमी लेयर लागू करने पर महज राय व्यक्त की गई है। फैसले में कहा गया कि एससी-एसटी में ‘क्रीमी लेयर’ की पहचान राज्य के लिए एक संवैधानिक अनिवार्यता बन जानी चाहिए ताकि एससी-एसटी के बीच मूलभूत समानता को पूरी तरह से पाया जा सके।
इस मसले पर हमने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता से बात की। इस बारे में विराग कहते हैं, ‘क्रीमी लेयर और जातियों का वर्गीकरण दो अलग मसले हैं। क्रीमी लेयर के दायरे में व्यक्ति और परिवार आते हैं जबकि उप-वर्गीकरण के दायरे में पूरी जाति आती है। इस मामले से जुड़ी अधिकांश याचिकाओं और अपीलों में कोटे में कोटा का संवैधानिक पहलू प्रमुख था। इस बारे में 2020 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों के फैसले के बाद 7 जजों की संविधान पीठ का गठन हुआ। 6 जजों ने बहुमत से कोटे में कोटा निर्धारित करने के लिए राज्य सरकारों के अधिकार को स्पष्ट तौर पर पुष्ट किया है।
क्रीमी लेयर के बारे में जस्टिस गवई ने 281 पेज का फैसला लिखा है। जिस पर तीन अन्य जजों विक्रमनाथ, पंकज मिथल और सतीश चन्द्र शर्मा ने अपनी सहमति जताई है। जस्टिस मिथल के अनुसार आरक्षण की सुविधा मिलने के बाद अगली पीढ़ी को क्रीमी लेयर के दायरे में रखना चाहिए। हालांकि, क्रीमी लेयर के बारे में स्पष्ट आदेश नहीं है, लेकिन इस बारे में नीति बनाये बगैर कोटे में कोटा निर्धारित करना मुश्किल होगा।
इसके जवाब में विराग कहते हैं कि क्रीमी लेयर फॉमूर्ले को ओबीसी आरक्षण में लागू करने के लिए 1992 में इंदिरा साहनी मामले में नौ जजों की बेंच ने फैसला दिया था। उसके अनुसार एक कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर साल-1993 में डीओपीटी विभाग ने छह श्रेणियां बनाई थीं। उस समय सालाना आमदनी की लिमिट एक लाख रुपये रखी गई थी जिसे 2017 में बढ़ाकर आठ लाख रुपये कर दिया गया है। इसे बढ़ाने के लिए साल 2019 में कमेटी बनाई गई थी, जिसकी रिपोर्ट आना बाकी है। जजों के अनुसार एससी/एसटी वर्ग में क्रीमी लेयर लागू करने के लिए ओबीसी की बजाए अलग पैमाने बनाये जा सकते हैं। राज्यों में मनमाने तरीके से क्रीमी लेयर का फार्मूला बना तो विवाद के साथ मुकदमेबाजी भी बढ़ेगी। इसलिए इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार केन्द्र सरकार को पहल करने की जरुरत है।
क्या IAS-IPS और क्लास वन अफसरों के बच्चे आरक्षण के हकदार? यहां समझें पूरा कानून
अगर आप ओबीसी हैं, लेकिन क्रीमी लेयर में हैं तो आपको जनरल कैटेगरी का माना जाएगा. लेकिन अक्सर लोग इससे बचने के लिए अपनी इनकम छिपा लेते हैं.
पूजा खेडकर.. ये नाम आपने पिछले कुछ दिनों में कई बार टीवी या अखबार में जरूर देखा-सुना होगा. महाराष्ट्र कैडर की ट्रेनी आईएएस पूजा खेडकर 2023 बैच की हैं. हाल ही में उनकी नियुक्ति पुणे जिले में एडीएम के रूप में हुई थी. लेकिन उन पर आरोप है कि प्रोबेशन पीरियड और ट्रेनिंग के दौरान ही उन्होंने प्रशासन के कामकाज को बेहतर तरीके से समझने के बजाय अनुचित मांगें करनी शुरू कर दी.
पूजा पर आरोप है शुरुआत में उनकी मांगों को पूरा किया गया लेकिन बावजूद इसके उन्होंने डिमांड करना नहीं छोड़ा, जिससे तंग आकर पुणे के जिलाधिकारी सुहास दिवसे ने तत्कालीन मुख्य सचिव से उनकी शिकायत कर दी. अब इस मामले में पूजा के सर्टिफिकेट का सच भी सामने आ गया है.
दरअसल केंद्र सरकार ने ट्रेनी आईएएस अधिकारी पूजा खेडकर के मामले की जांच के लिए एक समिति गठित की है. जांच से पता चला की ट्रेनी आईएएस अधिकारी पूजा ने वहां साल 2007 में श्रीमती काशीबाई नवले मेडिकल कॉलेज एवं जनरल हॉस्पिटल में प्रवेश लिया था. उस वक्त उन्हें सीईटी के माध्यम से प्रवेश मिला था, जहां उन्होंने आरक्षण के कुछ प्रमाण पत्र दिए थे. उन्होंने जाति प्रमाण पत्र, जाति वैधता और गैर-क्रीमी लेयर प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया था. यहां खास बात ये है कि आईएएस पूजा के पिता खुद एक रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारी हैं.
इस पूरे मामले के चर्चा में आने के बाद सोशल मीडिया से लेकर हर पब्लिक प्लैटफॉर्म पर यह बहस छिड़ गई कि क्या IAS-IPS और क्लास वन अफसरों के बच्चों को आरक्षण मिलना चाहिए?
ऐसे में इस रिपोर्ट में विस्तार से समझते हैं कि आरक्षण मिलने का आधार क्या है, क्या कहता है कानून और क्या IAS-IPS, क्लास वन अफसरों के बच्चों को आरक्षण मिलना चाहिए?
क्या IAS-IPS और क्लास वन अफसरों के बच्चों को आरक्षण मिलना चाहिए?
इस सवाल का जवाब है नहीं. यूपीएससी सिविल सर्विसेज की तैयारी कराने वाले लोकप्रिय IAS मेंटर विकास दिव्यकीर्ति ने आईएएनएस को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि क्लास वन अफसरों के बच्चों को आरक्षण देने का नियम नहीं है.
इसे आसान भाषा में समझाएं तो मान लीजिये आपके माता पिता आईएएस ऑफिसर हैं और आने वाले दो साल में वो रिटायर हो रहे हैंं. आप ओबीसी से हैं, लेकिन आपके पिता क्लास-1 जॉब में हैं तो नियम के अनुसार आपको आरक्षण नहीं मिलेगा.
तो फिर पूजा कैसे आरक्षण से बन गईं IAS
दिव्यकीर्ति ने कहा कि देश में आरक्षण के नियम में कई सारे लूप होल हैं जिसका फायदा इन लोगों को मिल जाता है. मान लीजिये की मेरे माता पिता में से कोई आईएएस है और अब मैं भी आईएएस बनना चाहता हूं. तो मैंने अपने पिता से कहा कि मैं तैयारी तो कर रहा हूं लेकिन मुझे ओबीसी के आरक्षण का सहारा चाहिये, आप सपोर्ट करो. ऐसे में आपके पिता या माता आपके सपोर्ट के लिए खुद की नौकरी से रिजाइन दे देते हैं. अब क्योंकि माता या पिता ने रिजाइन कर दिया है तो अब यूपीएससी कैंडिडेट पर उसके माता पिता के ग्रुप 1 जॉब में होने की सीमा लागू नहीं होती हैं.
अब सवाल ये उठता है कि उसके पिता के पास बहुत सारी प्रॉपर्टी है. लेकिन इसका भी लूप होल है. इसे ऐसे समझिये कि मेरे पिता ने नौकरी छोड़ दी और क्लास वन जॉब की कैटेगरी से निकल गए. अब उन्होंने अपनी सारी प्रॉपर्टी गिफ्ट डीड से मेरे (यूपीएससी कैंडिडेट) के नाम कर दी.
ऐसा करने के बाद नियम के अनुसार उनकी इनकम 6 लाख रह गई और वो क्रीमी लेयर से बाहर निकल गए. आरक्षण का नियम कहता है कि वह कैंडिडेट के माता पिता की प्रॉपर्टी और उनकी नौकरी तो देखता है लेकिन कैंडिडेट के पास कितने पैसे या प्रॉपर्टी है नहीं देखी जाती.
ओबीसी आरक्षण के लिए कैंडिडेट की इनकम कोई पैमाना नहीं है. तो ऐसे में कैंडिडेट के पास 50 लाख की भी प्रॉपर्टी क्यों न हो. उसे यूपीएससी परीक्षा देते वक्त ओबीसी आरक्षण का फायदा बड़ी ही आसानी से मिल जाएगा.
सरकारी नीतियों की धज्जियों उड़ा रहे हैं लोग
विकास दिव्यकीर्ति ने इसी इंटरव्यू में कहा कि आईएएस, आईपीएस बनने के लिए यूपीएससी कैंडिडेट्स सरकार की नीतियों की धज्जियां उड़ाते हैं. हमारे देश के रिजर्वेशन सिस्टम में काफी लूप होल्स हैं. मेरे हिसाब से आज से समय में जितने भी लोगों को यूपीएससी सिविल सर्विस परीक्षा में आरक्षण का फायदा मिल रहा है, उनमें से केवल 10-20% प्रतिशत ही ऐसे हैं जिन्हें वाकई आरक्षण की जरूरत है.
दिव्यकीर्ति ने आईएएस पूजा खेडकर के मामले का उदाहरण देते हुए समझाने की कोशिश की कि कैसे ओबीसी और ईडब्ल्यूएस आरक्षण नीतियों की खामियों का गलत फायदा उठाकर लोग यूपीएससी पास कर रहे हैं.
दिव्यकीर्ति बताते हैं कि नियम कहता है अगर आप ओबीसी हैं, लेकिन क्रीमी लेयर में हैं, तो आपको जनरल माना जाएगा. लेकिन अक्सर लोग इससे बचने के लिए अपनी आय को छुपा लेते हैं.
उन्होंने कहा कि एक नियम तो ये भी कहता है कि अगर आपके परिवार में माता या पिता में से कोई भी क्लास 1 जॉब करता है तो भी आप ओबीसी आरक्षण का फायदा नहीं उठा पाएंगे. इससे आप क्रीमी लेयर में चले जाते हैं.
इसके अलावा अगर आपके माता पिता दोनों ही ग्रुप बी में हैं तो भी आपको आरक्षण का फायदा नहीं मिलेगा. लेकिन वहीं अगर आपके माता पिता ग्रुप सी, ग्रुप डी में हैं, फिर चाहे उनकी सालाना इनकम 8 लाख से ज्यादा भी क्यों न हो तो आप ओबीसी कैटेगरी में गिने जाते हैं. इन नियमों के बीच एक लूप होल ये है कि इसमें आपकी कृषि से होने वाली आय की गिनती नहीं होती है.
EWS आरक्षण में भी है कमियां
दिव्यकीर्ति ने कहा ऊपर तो हमने ओबीसी आरक्षण में कमियों की बात कही. लेकिन ईडब्ल्यूएस में तो और भी तरीके से खेल किया जाता है. EWS आरक्षण में नियम ये है कि कैंडिडेट के पूरे परिवार की आय की गिनती की जाती है, लेकिन ये गिनती सिर्फ पिछले एक साल की होती है. ऐसे में ईडब्ल्यूएस से आरक्षण लेते वक्त तो कैंडिडेट के माता पिता को रिजाइन करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है.
भारत में आरक्षण देने का क्या है आधार
हमारे देश में आजादी के लगभग 20 साल पहले ही आरक्षण की व्यवस्था लागू हो गई थी. अंग्रेजों ने अछूत जातियों के उद्धार के लिए अनुसूचित जातियां नाम से अनुसूची बनाकर लागू की थी. जिसके बाद देश आजाद हुआ और भारत के संविधान में जातिगत आरक्षण के लिए व्यवस्था की गई. उस वक्त कहा गया कि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) को इसका लाभ दिया जाएगा.
भारत के संविधान में अनुच्छेद 341 और 342 में इन दोनों की परिभाषा दी गई है. जबकि अनुच्छेद 16 (4) पिछड़े वर्ग के लिए भी आरक्षण की अनुमति देता है. वैसे तो संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां कौन सी होंगी पर इसी संविधान में ये जरूर बताया गया है कि राज्यपाल की सलाह पर राष्ट्रपति इन पर फैसला करेंगे.
संविधान के अनुच्छेद 15 (4) व 15 (5) में शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों या फिर एससी-एसटी के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था है.
संविधान सभा ने 10 साल के लिए किया था प्रावधान
वैसे संविधान सभा ने सरकारी और सार्वजनिक सेक्टर में आने वाली नौकरियों और सरकारी शिक्षण संस्थानों में SC के लिए 15 प्रतिशत और ST के लिए 7.5 प्रतिशत का आरक्षण तय किया था. उस वक्त इसे सिर्फ 10 साल के लिए लागू किया गया था और इस बात का भी जिक्र किया गया था कि इसके बाद इसकी समीक्षा की जाएगी. हालांकि इसकी समीक्षा किसी भी सरकार ने नहीं की और आरक्षण का दायरा बढ़ता चला गया.
मंडल आयोग की रिपोर्ट ने बढ़ाया आरक्षण
साल 1980 में देश में मंडल आयोग की एक रिपोर्ट सामने आई. जिसके बाद आरक्षण का कोटा बढ़ाकर 49.5 प्रतिशत करने की सिफारिश कर दी गई. लेकिन उस वक्त इस सिफारिश पर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की अगुवाई वाली सरकार ने ध्यान नहीं दिया.
इसके बाद जब देश में वीपी सिंह की सरकार आई तो साल 1990 में इसे लागू कर दिया. जिसके तहत ओबीसी में 3,743 जातियों को शामिल किया गया और उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. उस वक्त पहले से ही 22.5 प्रतिशत का आरक्षण एससी-एसटी के लिए था. इस तरह से आरक्षण 49.5 फीसदी तक पहुंच गया. मंडल आयोग ने ही मुसलमान समुदाय की कुछ जातियों को भी ओबीसी में शामिल कर लिया था.
साल 1992 में केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया गया. उसी साल संविधान सभा में भीतर आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का भी मुद्दा उठाया गया था हालांकि उस पर सहमति नहीं बन पाई थी. लेकिन अब भारत में गरीब सवर्णों के लिए भी 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया जा चुका है.
भारत में आरक्षण को लेकर क्या है नियम
संविधान के अनुच्छेद 15(4), 15(5), 16(4), 16(4A), और 16(4B) के तहत अलग अलग श्रेणियों के लोगों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण दिया जाता है.
1. अनुसूचित जाति (SC): अनुसूचित जातियों के लिए 15% आरक्षण दिया जाता है.
2. अनुसूचित जनजाति (ST): अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% आरक्षण दिया जाता है.
3. अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27% आरक्षण दिया जाता है.
4. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS): आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10% आरक्षण दिया जाता है.
हालांकि कुछ राज्य और केंद्र शासित प्रदेश स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर भी अन्य श्रेणियों को आरक्षण प्रदान करते हैं. आरक्षण की यह व्यवस्था सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और कई अन्य क्षेत्रों में समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए की गई है. इसके अंतर्गत निम्नलिखित नियम और प्रावधान शामिल हैं:
संवैधानिक प्रावधान: संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 15(5) शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की अनुमति देते हैं, जबकि अनुच्छेद 16(4), 16(4A), और 16(4B) सरकारी नौकरियों में आरक्षण की अनुमति देते हैं.
रिजर्वेशन की सीमा: सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार, आरक्षण की कुल सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए. हालांकि, कुछ राज्यों में यह सीमा पार कर चुकी है और इस पर विभिन्न न्यायिक निर्णय भी हुए हैं.
क्रीमी लेयर: OBC आरक्षण के तहत क्रीमी लेयर (समृद्ध वर्ग) को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता. यह सीमा समय-समय पर संशोधित की जाती है.
पिछड़ा वर्ग आयोग: राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) और राज्य स्तर के पिछड़ा वर्ग आयोग आरक्षण की व्यवस्था को उचित और प्रभावी बनाए रखने के लिए सलाह और अनुशंसा करते हैं.