भारत के पड़ोसी मुल्कों में लोकतंत्र पर ‘ग्रहण’ !
भारत के पड़ोसी मुल्कों में लोकतंत्र पर ‘ग्रहण’, तो कहीं राष्ट्राध्यक्षों के घर में घुसे लोग
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस्तीफा दे दिया है. आरक्षण पर नई नीति के विरोध में उनकी सरकार के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन चल रहा था. प्रदर्शनकारी पीएम के सरकारी आवास में घुस गए.
बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन में शामिल लोगों के परिजनों को सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले के विरोध में ये प्रदर्शन हुआ था. दरअसल शेख हसीना पर आरोप था कि वो इसके जरिए अपनी पार्टी के लोगों को सरकारी नौकरी देना चाहती हैं. यहां ये जानना जरूरी है कि शेख हसीना की पार्टी बांग्लादेश आवामी लीग देश की सबसे पुरानी पार्टी है. इसके नेता शेख मुजीबुर्रहमान ने इसकी स्थापना बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के समय की थी. शेख मुजीबुर्रहमान को बांग्लादेश का संस्थापक कहा जाता है.
इस प्रदर्शन को अगर भारत के नजरिए से देखें तो साफ दिख रहा है कि पड़ोसी मुल्कों में लोकतंत्र की बुनियाद बहुत ही कमजोर है. जनता के वोट से चुनी गईं सरकारों का तख्तापलट आसानी हो जाता है. इतना ही नहीं राष्ट्राध्यक्षों के घरों में घुस जाना भी एक सामान्य घटना के तौर पर नहीं देखा जा सकता है.
बांग्लादेश में तख्तपलट का इतिहास
15 अगस्त 1975: बांग्लादेश के संस्थापक राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की हत्या कर दी गई थी.यह तख्तापलट बांग्लादेशी सेना के एक समूह द्वारा किया गया था. इसके बाद ख़ुंदकार मुश्ताक अहमद को राष्ट्रपति बनाया गया, लेकिन यह सरकार भी स्थिर नहीं रह सकी.
3 नवम्बर 1975: सेना के एक अन्य समूह ने ब्रिगेडियर जनरल खालिद मोशर्रफ के नेतृत्व में तख्तापलट किया.
7 नवम्बर 1975: एक और तख्तापलट हुआ, जिसमें मेजर जनरल जियाउर रहमान को सत्ता में लाया गया. यह तख्तापलट सैनिक क्रांति दिवस के रूप में जाना जाता है.
24 मार्च 1982: जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुस सत्तार की सरकार को हटाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया. इरशाद ने सेना प्रमुख के रूप में तख्तापलट किया और फिर खुद को राष्ट्रपति घोषित किया.
बांग्लादेश ने 1990 के दशक में लोकतंत्र की ओर वापसी की. हालांकि राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष अभी भी एक चुनौती बने हुए हैं, लेकिन हाल के वर्षों में सेना की राजनीतिक हस्तक्षेप में कमी आई है. वर्तमान में बांग्लादेश एक संसदीय लोकतंत्र के तहत चल रहा था, जहां शेख हसीना की सरकार सत्ता में थी.
श्रीलंका में राष्ट्रपति के घर घुसे प्रदर्शनकारी
साल 2022 की शुरुआत में श्रीलंका में आर्थिक हालात बहुत बिगड़ चुके थे. देश के पास पेट्रोल-डीजल और तमाम बुनियादी चीजें खरीदने के लिए पैसे नहीं बचे थे. जनता इस हालात के पीछे राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे की सरकार को दोषी मान रही थी. धीरे-धीरे हालात बिगड़ते चले गए और पूरे देश में भीषण प्रदर्शन शुरू हो गया. जनता का गुस्सा इतना भड़का कि राष्ट्रपति गोटबाया को देश छोड़ना पड़ गया. प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति आवास में घुस गए और जमकर तोड़फोड़ की. हालांकि श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह तख्तापलट की घटनाओं से छूता रहा है. लेकिन कुछ घटनाओं ने वहां भी कई बार संवैधानिक संकट पैदा किया है.
गृह युद्ध (1983-2009)
श्रीलंका में सबसे बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल का दौर 1983 से 2009 तक चला, जिसे श्रीलंकाई गृह युद्ध के नाम से जाना जाता है. यह युद्ध श्रीलंकाई सरकार और तमिल टाइगर्स के बीच हुआ, जो तमिल जातीय अल्पसंख्यकों के लिए एक स्वतंत्र राज्य की मांग कर रहे थे. इस युद्ध ने देश को आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से काफी नुकसान पहुंचाया.
जनवरी 2015 की राजनीतिक संकट
2015 में, महिंदा राजपक्षे ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा लेकिन हार गए. चुनाव के बाद, उन्होंने सत्ता छोड़ने से इनकार कर दिया और देश में राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया. आखिर में, उन्होंने पद छोड़ दिया और नई सरकार का गठन हुआ.
अक्टूबर 2018 का संवैधानिक संकट
अक्टूबर 2018 में, राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर महिंदा राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. इससे संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया, क्योंकि संसद ने विक्रमसिंघे का समर्थन जारी रखा. बाद में सुप्रीम कोर्ट की वजह से संकट खत्म हुआ और विक्रमसिंघे को फिर से प्रधानमंत्री पद पर बहाल किया गया.
नेपाल में भी गडमड लोकतंत्र
भारत के और पड़ोसी मुल्क नेपाल में भी सरकारें कब बदल जाएं कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है. 28 मई 2008 को नेपाल को लोकतांत्रिक देश घोषित किया गया था. उस दिन से पहले नेपाल में 240 सालों तक राजशाही चलती रही.लेकिन वोटों के जरिए सरकार चुने जाने की व्यवस्था ने देश को स्थिर सरकार देने में उतना कामयाब नहीं हो पाया है. कुछ दिन पहले ही पुष्प दहल प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया है और उनकी जगह केपी ओली ने ली है.
खास बात ये कि प्रचंड, केपी ओली के ही समर्थन से सरकार चला रहे थे. साल 2022 में के नतीजों में केपी औली के पार्टी दूसरे नंबर पर थी. लेकिन वो किंगमेकर साबित हुए. प्रचंड की पार्टी को समर्थन दिया और उनको पीएम बनवा दिया. अब केपी ओली ने नेपाल कांग्रेस का समर्थन हासिल कर खुद प्रधानमंत्री बनने में सफलता पाई है. मतलब ये है कि नेपाल ने 2 साल के अंदर दो प्रधानमंत्री देख लिए हैं.
नेपाल में तख्तापलट को वहां के राजनीतिक इतिहास की कुछ घटनाओं से जुड़ा है. नेपाल का इतिहास राजनीतिक अस्थिरता और सत्ता संघर्ष से भरा हुआ है, जिनमें राजशाही, लोकतांत्रिक आंदोलन और माओवादी विद्रोह शामिल हैं.
1960 का तख्तापलट
नेपाल के राजा महेंद्र ने 1960 में एक तख्तापलट किया. उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री बिश्वेश्वर प्रसाद कोईराला की निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कर दिया और संसद को भंग कर दिया. राजा महेंद्र ने फिर पंचायती प्रणाली लागू की, जिसमें राजा के पास अत्यधिक शक्तियां थीं और लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हो गईं.
2001 का राजदरबार हत्याकांड
1 जून 2001 को, राजा बिरेंद्र और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की हत्या कर दी गई थी.यह हत्याकांड राजकुमार दीपेंद्र के द्वारा किया गया बताया गया, जिन्होंने बाद में खुद भी आत्महत्या कर ली. इस घटना के बाद, राजा ज्ञानेन्द्र ने सत्ता संभाली और 2005 में लोकतांत्रिक सरकार को भंग कर दिया और आपातकाल की घोषणा की.
2006 का लोकतांत्रिक आंदोलन
नेपाल के जन आंदोलन 2006, जिसे “लोकतांत्रिक आंदोलन” कहा जाता है, ने राजा ज्ञानेन्द्र के निरंकुश शासन का अंत किया. जनता और राजनीतिक दलों के दबाव के कारण राजा ज्ञानेन्द्र को सत्ता छोड़नी पड़ी और लोकतंत्र की बहाली हुई. इसके बाद नेपाल में राजशाही समाप्त हो गई और 2008 में नेपाल एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया.
माओवादी विद्रोह और शांति समझौता
1996 से 2006 तक, नेपाल में माओवादी विद्रोह चला, जिसे “जन युद्ध” भी कहा जाता है. इस विद्रोह ने नेपाल की राजनीतिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया. 2006 में, माओवादी और सरकार के बीच शांति समझौता हुआ, जिसके परिणामस्वरूप संविधान सभा का चुनाव हुआ और नेपाल में नया संविधान लागू हुआ.
पाकिस्तान में तख्तापलट का लंबा इतिहास
मोहम्मद अली जिन्ना के मुल्क में कभी लोकतंत्र ठीक से पनप ही नहीं पाया. पाकिस्तान के बनने के 75 सालों में ज्यादातर ये देश सेना के हाथों में रहा है.
1958 का तख्तापलट: 1958 में, जनरल अयूब खान ने राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा को हटाकर सैन्य शासन स्थापित किया. यह पाकिस्तान का पहला सैन्य तख्तापलट था.
1977 का तख्तापलट: 1977 में, जनरल जिया-उल-हक ने प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार को हटाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया. इसके बाद जिया-उल-हक ने मार्शल लॉ लगाया और संविधान को निलंबित कर दिया.
1999 का तख्तापलट: 1999 में, जनरल परवेज मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार को हटाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया. यह तख्तापलट बिना किसी खून-खराबे के हुआ और मुशर्रफ ने खुद को देश का मुख्य कार्यकारी अधिकारी घोषित किया.
हाल के वर्षों में, पाकिस्तान में सैन्य तख्तापलट की संभावना कम हुई है. लेकिन देश में राजनीतिक अस्थिरता और सेना की मजबूत पकड़ अभी भी बनी हुई है. राजनीतिक दलों के बीच संघर्ष, आर्थिक संकट और आतंकवाद जैसी चुनौतियां पाकिस्तान के हालात को बदतर स्थिति में पहु्ंचा रही हैं. सेना का राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में प्रभावी होना आज भी जारी है. इमरान खान के तख्तालट के दौरान भी सेना का हस्तक्षेप साफ देखा जा रहा था. हालांकि इस बार सेना ने खुद कमान न लेकर मुस्लिम लीग के शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री बनवाया है.
म्यांमार में कब उगेगा लोकतंत्र का सूर्य?
1948 को आजाद हुआ म्यामांर कभी बर्मा के नाम से जाना जाता था. साल 1962 तक यहां की जनता अपनी सरकार चुनती थी. लेकिन इसके बाद यहां लोकतंत्र के सूर्य पर ग्रहण लग गया. 2 मार्च, 1962 को सेना के जनरल ने विन ने सरकार का तख्तापलट कर कब्जा कर लिया. सेना ने संविधान को सस्पेंड कर दिया.
जनरल विन ने सत्ता संभाली और बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी की स्थापना की. जिसने देश पर 26 वर्षों तक शासन किया. इस दौरान म्यांमार एक समाजवादी राज्य बना और बाहरी दुनिया से काफी हद तक कट गया.
18 सितंबर 1988: सेना ने स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रेस्टोरेशन काउंसिल (SLORC) के गठन के साथ फिर से तख्तापलट किया. यह तख्तापलट जनरल सॉ मॉंग के नेतृत्व में हुआ और इसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों का दमन और मानवाधिकारों का व्यापक उल्लंघन हुआ.
1 फरवरी 2021: सेना ने आंग सान सू की की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को हटा दिया.तख्तापलट का नेतृत्व जनरल मिन आंग ह्लाइंग ने किया. सेना ने आरोप लगाया कि 2020 के आम चुनाव में व्यापक धांधली हुई थी, हालांकि स्वतंत्र चुनाव पर्यवेक्षकों ने इन आरोपों का समर्थन नहीं किया. इस तख्तापलट के बाद म्यांमार में व्यापक विरोध प्रदर्शन और असंतोष फैला, जिसे सेना ने सख्ती से दबाने की कोशिश की. म्यांमार में अभी तक सैन्य शासन जारी है.