सुलगता बांग्लादेश है भारत के लिए चिंता का सबब !
सुलगता बांग्लादेश है भारत के लिए चिंता का सबब, शेख हसीना का विकल्प ढूंढना होगा मुश्किल
सुलगता बांग्लादेश है भारत के लिए चिंता का सबब
हमारा पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश जो कभी भारत का ही हिस्सा था, इन दिनों लगातार परेशानी और हिंसा के दौर से गुजर रहा है. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस्तीफा दे दिया है और उन्हें किसी सैन्य हेलीकॉप्टर में जाते हुए देखा गया है. यह चूंकि कोई प्रजातांत्रिक तरीके से हुआ सत्ता-हस्तानांतरण नहीं है, इसलिए हसीना का विकल्प कौन है, यह अभी कहना मुश्किल है, लेकिन जो भी होगा उसे कांटों का ताज ही मिला है, इसमें संदेह नहीं. भारत की चिंताएं इसलिए बढ़ जाएंगी क्योंकि अगर सेना ने सत्ता हाथ में ली, तो फिर एक तानाशाह सरकार से बात करना, संबंध आगे रखना मुश्किल होगा. ऊपर से चीन का भी ध्यान बांग्लादेश पर ही है.
ढाका में प्रदर्शनकारियों और सरकार के बीच भिड़ंत जारी है. लगभग 100 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, लेकिन अभी तक हालात काबू में नहीं आ सके हैं. पूरा बांग्लादेश इस प्रदर्शन के समाधान की प्रतीक्षा में हैं. विपक्षी दलों ने इसको लेकर शेख हसीना पर हमला बोल रखा है और उनको अक्षम बता रहे हैं. आर्मी अपना काम कर रही है, लेकिन फिलहाल इस छोटे देश की मुसीबतें बड़ी हैं.
हालात खराब हैं बांग्लादेश में
बांग्लादेश में हालात बहुत संवेदनशील हैं. इसमें सबसे बड़ा एक पक्ष उभर कर आ रहा है कि बांग्लादेश का एक बड़ा तबका जो है, वह एंटी-अवामी लीग बनकर उभर रहा है. उसके कई कारक हैं. पहला कारक तो यही है कि इसको अब राजनीतिक रंग में रंग दिया गया है. जिस तरह श्रीलंका में एक संकट आया था- डेट ट्रैप (ऋणजाल) में वह बर्बाद हुआ था और फिर वह एक राजनीतिक संकट बन गया. उसी तरह अवामी लीग के जितने विरोधी हैं, वे सभी एक होकर इस पूरे संकट को राजनीतिक मौके में भुनाना चाहते हैं. बांग्लादेश में छात्रों का जो प्रदर्शन था, कोटा के खिलाफ, वह एक राजनीतिक स्टंट अब बन गया है. इसमें एक बड़ी भूमिका सत्तापक्ष की भी है. उन्होंने जिस तरह इसे बेढंगे तरीके से संभाला और बेवजह के बयान दिए, चाहे प्रधानमंत्री के हों या अब्दुल कादिर के हों, उसने नुकसान किया.
सत्तापक्ष की भी गलती
कभी छात्रों को हंगामाबाज कहना या कभी उनकी तुलना रजाकार से करना, अवामी लीग को भारी पड़ गया है. बांग्लादेश के लोग भी नाराज हैं. इसकी एक वजह ये है कि भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है और संस्थागत हो गया है. भ्रष्टाचार में अधिकांशतः सत्तापक्ष से जुड़े लोग शामिल हैं और लोगों को लग रहा है कि यह अंतहीन है, यह कभी खत्म नहीं होगा. दूसरे, मुद्रास्फीति बहुत है. आम जरूरत की वस्तुओं के दाम बहुत बढ़ गए हैं और लोगों में असंतोष बढ़ गया है. पार्टी के अंदर भी जो प्रजातंत्र होना चाहिए, उसमें कहीं न कहीं कमी आयी है. एक तरह से जो यूनियन के, स्थानीय निकायों के चुनाव होते हैं, उनमें सांसद ही अपने लोगों और रिश्तेदारों को चेयरमैन-वायस चेयरमैन बनाते हैं. कुल मिलाकर हुआ यह है कि अवामी लीग के खिलाफ फूटा गुस्सा एंटी शेख हसीना भी हो गया. इससे सेना को दखल का मौका मिला.
लोगों में सरकार के लिए गुस्सा
लोगों में ऊपर से नीचे तक सरकार के खिलाफ गुस्सा है, असंतोष है. इसमें जब युवा मिल गए हैं और जिन्होंने चुनावी लोकतंत्र को देखा ही नहीं. पिछले चुनाव में भी वोटर टर्नआउट बहुत कम आया है. अब सरकार उसे 40 फीसदी बता रही है, लेकिन असल आंकड़े तो वही जानें. अब 20-25 साल वाले युवा उसको लेकर काफी गुस्सा हैं और अवामी लीग के खिलाफ भी. अब इस हद तक प्रदर्शन पहुंच गया है कि वे सरकार बदलने की मांग कर रहे हैं, पहले सरकार के इस्तीफे, फिर एक न्यूट्रल केयरटेकर सरकार के माध्यम से चुनाव हो, ऐसी बात कर रहे हैं. यहां सवाल सरकारी तंत्र यानी पुलिस, नौकरशाही और सेना तीनों ही शामिल हैं, से हो रहा है. इसमें पुलिस का तो बहुत बड़ा रोल है. प्रदर्शनकारियों का जो सामना हुआ है, उसमें आम स्टूडेंट विक्टिम हो गए हैं औऱ 300 से अधिक तो मारे जा चुके हैं. दूसरा, आर्मी की भूमिका को लेकर सवाल है.
आर्मी अभी चुप है औऱ उसे उम्मीद है कि यह मामला जल्द ही सुलझ जाएगा. वह बहुत हद तक न्यूट्रल है औऱ कोशिश कर रही है कि शांतिपूर्ण समाधान निकले. प्रदर्शनकारी चूंकि शेख हसीना के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं, तो इस पर देखना होगा कि आर्मी का झुकाव किसकी तरफ है. तीसरी जो बात है, वह अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की है. अमेरिका बहुत हद तक शेख हसीना से खुश नहीं हैं. आखिरकार, चुनाव हुए और उसमें विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया, लेकिन उसके नतीजे आ गए और भारत ने तो कम से कम उसका स्वागत किया. अब पश्चिमी देश और अमेरिका पहले वाला रोष बचाकर रखे हैैं या फिर उनके लिए मामला अनुकूल हो गया है, यह देखने की बात है. हालांकि, वे व्यापार के लिए हैं औऱ राजनीतिक नेतृत्व यदि अनुकूल है तो वे बाकी बातों को भूल जाते हैं.
शेख हसीना का विकल्प
हालांकि, सवाल ये है कि शेख हसीना का विकल्प क्या है? डेमोक्रेसी, सेकुलरिज्म, बंगाली नेशनलिज्म इत्यादि मूल्यों को लेकर चलनेवाली अवामी लीग पर कितना खतरा है, यह सोचने की बात है. क्या शेख हसीना 1971 के आधारभूत मूल्यों को कितना सुरक्षित रख पायी हैं. लोगों को शेख हसीना से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन वह उन उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं उतर सकी. शेख हसीना के बाद कौन आएगा, सवाल वह नहीं. जो एक विकास की धारा बह रही है, क्या वो उस धारा को नियमित रख पाएगा या पाएगी, सवाल यह है.
बांग्लादेश की जनता कभी भी इस्लामिक कट्टरपंथ के साथ खड़ी नहीं रही. 1948 में जब जिन्ना ने उर्दू भाषा की बात कही, तो बंगालियों ने उसको अस्वीकार किया. 1971 मे जो इस्लामिक राष्ट्रवाद बनाया गया था, उसको त्याग कर स्वाधीन और स्वायत्त बांग्लादेश का निर्माण किया. जब भी वहां कट्टरपंथ बढ़ता है, जनता प्रतिरोध करती है और बंगाली सिन्क्रेटिक राष्ट्रवाद की बात करती है. यह आंदोलन चूंकि बड़े पैमाने पर और पूरे देश में चल रहा है, छात्र बिल्कुल नाखुश हैं सरकार से और इसका फायदा इस्लामिक कट्टरपंथी ताक्तें उठा सकती हैं. वे भी अपना फायदा अपने हिसाब से देख रहे हैं औऱ बस अपना शेयर कट करना चाहते हैं. जो प्रदर्शनकारी, जो छात्र हैं, न्यूट्रल जनता है, वे कहीं न कहीं इस बात को लेकर नजर रखें कि उनके चक्कर में कहीं कट्टरपंथियों को उनकी जमीन वापस न मिल जाए, कहीं वो फिर से समाज में प्रभावी न हो जाएं.
अच्छी बात ये है कि भारत इस मुद्दे पर लगातार नजर रखे हुए है. भारत की चिंता इसलिए भी अधिक है क्योंकि चीन भी बांग्लादेश में काफी रुचि दिखा रहा है. अभी तीस्ता नदी जल परियोजना के लिए शेख हसीना ने भारत को अपनी पसंद बताया है, बांग्लादेश से हमारे ऐतिहासिक संबंध भी हैं, इसलिए भारत को भी सतर्क रहने की आवश्यकता है और हम हैं भी.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि … न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]