किसी पहचान के खिलाफ ‘फोबिया’ का असर है कुरान पाठ का दुष्प्रचार !

किसी पहचान के खिलाफ ‘फोबिया’ का असर है कुरान पाठ का दुष्प्रचार

गाजियाबाद में चित्रावन सोसाइटी में कुरान के पाठ की घटना को एक ‘रंग’ दिया गया है. बहुत साधारण सी बात है कि एक फ्लैट में सानिया सैफी ने कुरान का पाठ कराया. वे उस फ्लैट में किराये पर रहती है. आम घरों में इस तरह के पूजा-पाठ और दूसरे तरह के धार्मिक कर्म कांड अक्सर रहते होते हैं. यहां तक कि जिन घरों में धार्मिक कर्म कांड होते हैं, वह कई बार निजी कार्यक्रम भी नहीं रह जाते हैं क्योंकि धार्मिक आयोजन में स्पीकर लगाकर आस-पास के लोगों को उसमे शामिल कर लिया जाता है. कई ऐसे कर्मकांड होते हैं, जिसे परेशानी होने के बावजूद आसपास के लोग उसे स्वीकार कर लेते है.   

कुरान की पाठ पर दिया गया अलग रंग 

सानिया सैफी की बेटी बीमार है और अपने समाज में यह आम बात है कि लोग बीमारी का इलाज सुलभ नहीं होने के कारण धार्मिक कर्म कांडों की तरफ देखते हैं. सानिया ने भी अपनी बेटी के स्वस्थ्य होने के लिए धार्मिक आयोजन की सलाह मान ली और जिस तरह से हिन्दूओं के घरों में रामचरित मानस या सत्यानारायण और दूसरे ग्रंथों के पाठ कराए जाते हैं, उसी तरह से सानिया ने इस्लाम धर्म के ग्रंथ कुरान का पाठ कराने का आयोजन किया.

इस आयोजन के लिए मदरसों के बच्चे बुलाए गए, जैसे- कई धार्मिक कर्मकांडो में बच्चियां बुलाई जाती है. आयोजन की तस्वीर भी सानिया ने लोगों के बीच भेज दी है. घरों में धार्मिक आयोजनों के लिए किसी तरह के आदेश और निर्देश लेने की बाध्यता नहीं मानी जाती है, लेकिन सानिया के फ्लैट में कुरान के पाठ के आयोजन को एक अलग रंग देने की कोशिश की गई.

संदिग्ध मानकर वीडियो प्रसारित 

गाजियाबाद की घटना समाज में ‘इस्लामोफोबिया’ की जड़ें किस कदर फैल रही हैं, इस हालात का एक स्पष्ट संकेत है. खासतौर से कॉलोनियों और अपार्टमेंट्स में ये साये की तरह पसर गया है. जाहिर सी बात है कि कुरान पाठ के आयोजन में इस्लाम धर्म में आस्था रखने वाले लोग ही हों सकते हैं. सानिया के आयोजन में अपनी एक वेश भूषा में लोग शामिल हुए, जिस तरह से दूसरे धार्मिक आयोजनों में लोग अपनी वेश भूषा के साथ मौजूद होते हैं. यह निजी धार्मिक आयोजन था और यह शोर शराबे या किसी भी तरह से प्रदूषण से रहित था.

लेकिन मीडिया में इस घटना को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, वह साम्प्रदायिक भाषा की बाजीगिरी का उदाहरण है. यह बताया गया कि सानिया के फ्लैट में संदिग्ध गतिविधियां हो रही थीं. जबकि कार्यक्रम का वीडियो जो लोगों के बीच गया है, उसमें यह साफ दिखता है कि इस आयोजन में भी उसी तरह से लोग एक साथ बैठकर खा रहे हैं, दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों की तरह ही इसमें बच्चे, बुजुर्ग और दूसरे लोग शामिल होते हैं. मैंने जब गूगल सर्च के जरिये हिन्दी में इस घटना की खबरों का एक अध्ययन करना शुरू किया तो यह दिखा कि ज्यादातर खबरों में फ्लैट की मालकिन का नाम नहीं है, जो कि तान्या है. तथ्यों पर आधारित खबरें देने की बजाय भाषा की बाजीगिरी खबरों में दिखाने की कोशिश की गई है. 

हर किसी को आधार कार्ड मांगने का हक नहीं 

वीडियों में जो हंगामा दिखाया जा रहा है, वह सोसायटी के गेट का है और सानिया के घर से लौटते हुए लोग वहां मौजूद है. जानकारी मिली कि वहां लौटते हुए लोगों से आधार कार्ड दिखाने की मांग की गई. आधार कार्ड मांगने और दिखाने की बाध्यता एक बुराई की तरह बुरी तरह फैल गई है. इस प्रचार को कोई महत्व नहीं देता है कि आधार कार्ड कोई पहचान पत्र के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला दस्तावेज नहीं है और ना ही इसे मांगने का अधिकार हर किसी को है. इस दस्तावेज का कुछ खास जगहों पर इस्तेमाल किया जा सकता है, यह कानून में स्पष्ट है.                     

समाज में इस्लामोफोबिया का असर इस तरह से व्याप्त हैं कि इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग जब एक जगह जमा होते है तो उन्हें सामान्य नजरों से नहीं देखा जाता है. सिखों के खिलाफ भी इसी तरह का फोबिया समाज में 1980 के दशक में देखा गया था, जब किसी सिख धर्म के पहनावे वाले नागरिक को दूसरे लोग संदेह की नजरों से देखने लगते थे. ये सिलसिला कई वर्षों तक चला.

मेरे एक पत्रकार दोस्त जसपाल सिंह ने बताया कि वे उस दौर में  खबरों के लिए भी कहीं जाते थे तो वहां सुरक्षा गार्ड उन्हें संदेह की नजर से देखते थे. कई बार उन्हें अपमानित भी किया गया. उन्हें खासतौर से प्रेस कार्ड दिखाने के लिए बाध्य किया जाता था. वे उस समय अपने को बेहद अकेला और असुरक्षित महसूस करने लगते थ.

किसी भी तरह की ‘पहचान’ के खिलाफ समाज में फोबिया तैयार कर दिया जाता है तो गाजियाबाद जैसी घटनाएं आम हो जाती है. फोबिया वैसी राजनीति के लिए बहुत बढिया चारा माना जाता है, जो कि लोकतंत्र को अपना शिकार मानती है. 

जाहिर तौर पर गाजियाबाद में जो कुछ हुआ और जिस तरह का रंग इसे देने की कोशिश की गई, उसे किसी भी तरह से जायज करार नहीं दिया जा सकता है. कोशिश ये होनी चाहिए कि समाज में भाईचार बढ़े, जहां पर सभी सम्प्रदाय के लोग आगे आएं और एक दूसरे की मदद करे. बजाय इसके कि किसने किस रंग के कपड़े पहने, कौन किस मजहब से है और कौन क्या खाता है. क्योंकि इस तरह से करके जो हमारा सामाजिक तानाबाना है उसे ही हम कमजोर करेंगे. भारत सभी धर्मों का देश हैं, जहां पर इतनी विभिन्नताएं है उसके बावजूद दुनिया में इसके भाईचारे की मिसाल दी जाती है. 

लेकिन, जब कोई इस तरह की घटना होती है तो जरूर इस भाईचारे की मिसाल पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है. इसके लिए हम सबको आत्म मंथन की जरूरत है. हमसबको इस दिशा में कदम बढ़ाकर चलने की जरूरत है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि  … न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]    

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