हाईवे चौड़ीकरण के कारण कम होते जा रहे हैं खेत ?
मुद्दा: खेत अब कम क्यों दिखने लगे हैं… यह संकट भविष्य के लिए बड़ा खतरा, इसलिए गहन विमर्श जरूरी
किसी भी सड़क या राजमार्ग के दोनों तरफ अब खेत कम दिखाई पड़ते हैं। वहां बनतीं नई इमारतों, कॉलोनियों, स्कूल-कालेजों, प्रतिष्ठानों के तेजी से हो रहे अनियोजित नवनिर्माण के मध्य लहलहाती फसलों के दृश्यों का निरंतर कम होना चिंता का विषय है। कृषि के लिए जमीन का रकबा हर रोज घटता जा रहा है। ऐसे में यह विचारणीय पहलू है कि बढ़ती आबादी के लिए आखिर खाद्यान्न की उपलब्धता का संकट भविष्य में विकराल न हो जाए। हमारा कृषि प्रधान देश धीरे-धीरे व्यवसाय और मुनाफा प्रधान होता जा रहा है। खेती पहले लाभकारी धंधे में शुमार नहीं थी। वह गांवों में रहने वालों के लिए जीविका और जीवन का साधन थी, जिससे नगरों और महानगरों का भी भरण-पोषण होता था।
धीरे-धीरे कृषि लाभ के बजाय घाटे के धंधे में तब्दील होती चली गई। इसके लिए सरकार की नीतियां अधिक जिम्मेदार हैं, जिनके चलते फसलों के बीज, रासायनिक उर्वरकों और कृषि यंत्रों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई, जबकि पैदावार के लागत मूल्य को हासिल करना भी किसान के लिए मुश्किल होता चला गया। उसे सरकार की ओर से निर्धारित फसल का न्यूनतम मूल्य भी न मिलना किसी मारक प्रहार से कम नहीं। इसके चलते किसान को घर-परिवार चलाना, बच्चों की शिक्षा और उनके शादी-विवाह का प्रबंध, अपनी अल्प चिकित्सकीय जरूरतों के साथ न्यूनतम अत्यावश्यक सुविधाओं को हासिल करना हर रोज कठिनतर होता चला गया। रोजगार के लिए गांवों से पलायन के चलते ‘उत्तम खेती’ की अवधारणा समय के साथ अर्थहीन होती गई। खेती का बंटवारा होने के कारण छोटे और कमोवेश मध्यम किसान अपनी जमीन बेचने के लिए विवश हुए। इससे उनके सम्मुख रोजी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई। ऐसे में मजदूर बनते चले जाने की उनकी विवशता को हुक्मरानों ने कभी महसूस नहीं किया। सरकारें इस ओर से निरंतर मुंह फेर लेती रहीं कि आखिर तेजी से भूमिहीन होते जा रहे किसानों को गांवों में कैसे रोका और काम दिया जाए? ‘मनरेगा’ के अंतर्गत रोजगार दिए जाने का कुछ लाभ हुआ, लेकिन ऐसी योजना की भी एक सीमा है।
एक समय था, जब गांव आत्मनिर्भर इकाई हुआ करते थे। वहां जरूरत की हर चीज पैदा की जाती थी। गांव तब कस्बे या शहर के मुखापेक्षी नहीं थे। गांव के मजदूर वर्ग को वहीं काम मिल जाता था। जब तक कृषि कार्य में मशीनों का इस कदर प्रयोग नहीं हुआ था, मनुष्य और पशुओं के साहचर्य का सौहार्दपूर्ण वातावरण ग्रामीण जीवन को अनोखा सौंदर्य और विशिष्टता प्रदान करता था, लेकिन सड़कों और मशीनों की पहुंच ने गांवों से उनकी सांसों की आवाजाही छीन ली। हमारा ऐसा मानना कोई प्रगतिविरोधी नजरिया नहीं है, पर आज छोटी और मध्यम जोत के किसानों के सम्मुख अपने जीवन को चलाए रखने का जो संकट विद्यमान है, उस पर सोचने-विचारने के लिए आखिर कौन आगे आएगा? राजनीतिक दल इस ओर उदासीन हैं। उन्होंने कृषक वर्ग को वोट के लिए लुभावनी घोषणाओं की गुंजलक में फंसा रखा है। किसानों का अब अपना कोई मोर्चा नहीं रहा। विभिन्न राजनीतिक दलों ने उन्हें स्वार्थ और जाति के खांचों में फंसा रखा है। कृषि भूमि के घटते क्षेत्रफल को बचाने और उसे संरक्षित रखने की चिंता इन दिनों किसी को नहीं है। किसानों के तथाकथित मसीहाओं के पास भी इस मामले में कोई दृष्टिसंपन्न परिकल्पना का अभाव है। एक समय ग्रामवासी खेत को अपनी मां मानते थे। वे उसे बेचने की सोच भी नहीं सकते थे, जबकि किसान की नई पीढ़ी को अपनी मिट्टी से वैसा लगाव अब नहीं रहा। वह उसे धन के बदले बेचने में तनिक भी संकोच नहीं करती।
बाईपास बनने पर किसानों की कृषि भूमि को सरकार जबरन हथिया लेती है और जमीन के मालिक किसानों को उसका उचित मुआवजा भी नहीं मिलता। नई कॉलोनियां खड़ी करने वाले व्यवसायियों को मिली-भगत के चलते पहले ही इस बात का पता होता है कि किस जगह नई सड़क निर्माण के लिए जमीन चिह्नित होनी है। ऐसे में बड़े-बड़े कॉलोनाइजर षड्यंत्रपूर्वक सर्वे होने से पहले ही किसानों को जमीन के दाम बढ़ाने का लालच देकर इकट्ठा सौदा कर लेते हैं। सड़कों और राजमार्गों के किनारे आधुनिकतम ढाबों का निर्माण मुझे कृषि जमीन का उपहास उड़ाते प्रतीत होते हैं। एक्सप्रेस-वे की जमीनें किसानों की हैं, लेकिन उन पर बड़ी और महंगी कारों के काफिले दौड़ते हैं, उन्हीं के लिए वहां सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं, जबकि किसानों के लिए उन राजमार्गों पर ‘प्रवेश वर्जित’ है। यदि कृषि योग्य जमीन पर अतिक्रमण और लूट का सिलसिला इसी तरह तेजी से चलता रहेगा, तो यह संकट भविष्य के लिए बड़ा खतरा है, जिस पर गहन विमर्श की जरूरत हमारे आज के एजेंडे में होनी चाहिए। लेकिन हम किस तरह मुतमइन हों कि इस दिशा में कोई पहल हो सकेगी।