बीजेपी के इन 5 सबसे उम्रदराज सदस्यों को कितना जानते हैं आप?

108 साल के भुलई भाई…बीजेपी के इन 5 सबसे उम्रदराज सदस्यों को कितना जानते हैं आप?
108 साल के भुलई भाई 44 साल पुरानी भारतीय जनता पार्टी के सबसे उम्रदराज सदस्य हैं. इस सूची में लालकृष्ण आडवाणी का नाम दूसरे नंबर पर और मुरली मनोहर जोशी का नाम तीसरे नंबर पर है.
108 साल के भुलई भाई...बीजेपी के इन 5 सबसे उम्रदराज सदस्यों को कितना जानते हैं आप?

कहानी बीजेपी के 5 सबसे उम्रदराज सदस्यों की

लोकसभा चुनाव के बाद संगठन को नए सिरे से तैयार करने में जुटी भारतीय जनता पार्टी देशव्यापी सदस्यता अभियान चला रही है. सदस्यता अभियान के तहत बीजेपी ने पूरे देश में 10 करोड़ नए सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के सबसे उम्रदराज सदस्य कौन हैं और इसमें पार्टी के पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी कितने नंबर पर आते हैं?

पूर्व विधायक भुलई भाई हैं सबसे उम्रदराज

श्रीनारायाण उर्फ भुलई भाई यूपी के कुशीनगर जिले के रहने वाले हैं. आधिकारिक तौर पर पार्टी के सबसे उम्रदराज सदस्य हैं. भुलई भाई की उम्र घोषित तौर पर 108 साल है. 2 बार के विधायक भुलई भाई अभी भी राजनीतिक और सार्वजनिक मंचों पर दिख जाते हैं.

भुलई भाई ने राजनीतिक करियर की शुरुआत भारतीय जनसंघ से की थी. राजनीति में आने से पहले भुलई भाई सरकारी नौकरी में थे. एमए तक की पढ़ाई कर चुके भुलई भाई को 1974 में जनसंघ ने यूपी के नौरंगिया सीट से उम्मीदवार बनाया. भुलई ने इस चुनाव में कांग्रेस के बैजनाथ प्रसाद को हराया.

1977 में भुलई को दूसरी बार जनता पार्टी ने इस सीट से उम्मीदवार बनाया और वे इस बार भी जीते. बीजेपी की स्थापना हुई तो भुलई 1980 के चुनाव में कमल फूल के सिंबल से नौरंगिया सीट से मैदान में उतरे, लेकिन त्रिकोणीय मुकाबला होने की वजह से वे तीसरे नंबर पर पहुंच गए.

भुलई इसके बाद 1985 और 1989 के चुनाव में भी इस सीट से मैदान में उतरे, लेकिन उन्हें जीत नहीं मिली. भुलई इसके बाद स्थानीय संगठन की राजनीति में एक्टिव हो गए.

दूसरे नंबर पर हैं लालकृष्ण आडवाणी

भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक लालकृष्ण आडवाणी 96 साल के हैं. उन्हें गुरुवार को पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सदस्यता दिलाई. आरएसएस के जरिए राजनीति में आने वाले लालकृष्ण आडवाणी बीजेपी के सबसे लंबे वक्त तक अध्यक्ष रहे हैं

लालकृष्ण आडवाणी 2 बार लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और अटल बिहारी-मोरारजी देसाई की सरकार में मंत्री भी रहे हैं. 2019 तक लोकसभा के सांसद रहे लालकृष्ण आडवाणी पिछले 5 सालों से सक्रिय राजनीति से दूर हैं.

आडवाणी को बीजेपी का पितृपुरुष भी कहा जाता है. 1984 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटों पर जीत हासिल करने वाली बीजेपी आडवाणी के नेतृत्व में 3 अंकों वाली पार्टी बन गई. 2009 के चुनाव में आडवाणी बीजेपी की तरफ से पीएम पद के भी दावेदार रह चुके हैं.

आडवाणी के बाद मुरली मनोहर जोशी का स्थान

बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में मार्गदर्शक मंडल के सदस्य मुरली मनोहर जोशी 90 साल के हैं. प्रोफेसर की नौकरी छोड़ राजनीति में आए जोशी बीजेपी के तीसरे अध्यक्ष रहे हैं. जोशी भी आडवाणी की तरह 2019 तक लोकसभा के सांसद रहे. आडवाणी की तरह जेपी नड्डा ने जोशी की सदस्यता पर्ची कटवाई है.

केंद्र में गृह, शिक्षा जैसे विभाग के मंत्री रहे जोशी की गिनती एक वक्त में पार्टी के मुखर नेताओं में होती थी. जोशी 1977 में पहली बार उत्तराखंड के अल्मोड़ा से सांसद चुने गए थे. अल्मोड़ा के अलावा जोशी वाराणसी और कानपुर से भी सांसद रह चुके हैं.

हिमाचल के शांता कुमार भी हैं इस लिस्ट में

89 साल के शांता कुमार भी बीजेपी के सबसे उम्रदराज सदस्य हैं. वे हरियाणा के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं. शांता वर्तमान में सक्रिय राजनीति से दूर हैं. हालांकि, बीच-बीच में उनका बयान राजनीतिक गलियारों में जरूर सुर्खियां में रहता है.

शांता कुमार हिमाचल के कांगड़ा से 4 बार लोकसभा के सांसद रह चुके हैं. शांता 1963 में राजनीति में आए. 1972 में वे पहली बार हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उतरे और जीतकर सदन पहुंचे.

1977 में शांता कुमार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए थे. वे दो बार इस पद पर रहे हैं. 1999 में शांता कुमार अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में शामिल हुए. शांता कुमार 2019 तक लोकसभा के सांसद रहे हैं.

88 साल के करिया मुंडा भी वयोवृद्ध नेता

88 साल के करिया मुंडा की भी गिनती बीजेपी के उम्रदराज नेताओं में होती है. झारखंड राजनीति के कद्दावर नेता करिया मुंडा लोकसभा के डिप्टी स्पीकर भी रहे हैं. मुंडा अटल बिहारी और मोरारजी सरकार में मंत्री भी रहे हैं.

मुंडा खूंटी सीट से लोकसभा के सांसद और खिजरी सीट से विधायक रहे हैं. साल 2000 में झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद जब बीजेपी को वहां से मुख्यमंत्री बनाने का मौका मिला, तो मुंडा रेस में सबसे आगे थे, लेकिन आदिवासी बेल्ट की सियासत की वजह से वे पिछड़ गए.

2019 में मुंडा को भी बीजेपी ने खूंटी से टिकट नहीं दिया. वे तब से ही सक्रिय राजनीति से दूर हैं.

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खुद का नुकसान कर अध्यक्ष क्यों बने थे लालकृष्ण आडवाणी, प्रेसिडेंट रहते 3 बार टूटी बीजेपी
विभाजन के बाद कराची से भारत आए लालकृष्ण आडवाणी के नाम बीजेपी में सबसे ज्यादा समय तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड है. अपने 3 कार्यकाल में आडवाणी 11 साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहे.
खुद का नुकसान कर अध्यक्ष क्यों बने थे लालकृष्ण आडवाणी, प्रेसिडेंट रहते 3 बार टूटी बीजेपी

आडवाणी 11 साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहे

1984 के लोकसभा चुनाव ने देश के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी की राजनीति दिशा ही बदल दी. दो सीटों पर सिमटी बीजेपी ने एक तरफ जहां अपना नया एजेंडा तैयार किया, वहीं दूसरी तरफ उसने नेतृत्व परिवर्तन का भी फैसला लिया. बीजेपी के इस फैसले का पहला असर अध्यक्ष अटल बिहारी पर पड़ा. हार की समीक्षा रिपोर्ट आने के बाद फरवरी 1986 में बीजेपी के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेई को अपना इस्तीफा देना पड़ा. उनकी जगह लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी की कमान सौंपी गई.

बीजेपी अध्यक्ष सीरीज के इस भाग में बीजेपी के दूसरे अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के किस्से पढ़िए…

आडवाणी को कैसे मिली अध्यक्ष की कुर्सी?

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश को छोड़कर विपक्ष हर जगह से साफ हो गई. परिणाम का असर नवगठित भारतीय जनता पार्टी पर भी हुआ. पूरे देश में बीजेपी को सिर्फ 2 सीटों पर जीत मिली. इस परिणाम ने पार्टी के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए. इसकी 2 वजहें थीं-

1. बीजेपी अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेई समेत पार्टी के सभी बड़े नेता चुनाव हार गए.

2. बीजेपी के कई बड़े नेता और कार्यकर्ताओं को सिख-विरोधी दंगे में आरोपी बना दिया गया.

इस हार के बाद संघ से जुड़े संगठनों और बीजेपी के भीतर सुगबुगाहट तेज हो गई. अंदरखाने ही पार्टी की विचारधारा को लेकर विरोध के स्वर उठने लगे. अटल ने मौके की नजाकत को भांपते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की पेशकश कर दी, लेकिन पार्टी ने समीक्षा की बात कहकर उस वक्त उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया.

बीजेपी ने हार की समीक्षा के लिए केएल शर्मा, मुरली मनोहर जोशी, वीके मल्होत्रा, प्रमोद महाजन और मकरंद देसाई की एक हाई लेवल कमेटी बनाई. इस कमेटी ने पूरे देश में घूम-घूमकर बीजेपी में जान फूंकने का फॉर्मूला खोजा. कहा जाता है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद ही आडवाणी को बीजेपी की कमान देने की पटकथा लिखी गई.

इसी बीच देश में शाहबानो केस और बाबरी मस्जिद का मुद्दा तूल पकड़ रहा था. फरवरी 1986 में कोर्ट के एक आदेश के बाद राजीव गांधी की सरकार ने बाबरी का ताला खुलवा दिया. बीजेपी और आरएसएस से जुड़े हिंदू संगठनों को यह डर सताने लगा कि अब अगर और देरी की तो हिंदुत्व का मुद्दा उनके हाथों से निकल जाएगा.

बाबरी स्थित मंदिर का ताला खुलने की घटना के कुछ ही दिन बाद अटल बिहारी का इस्तीफा बीजेपी स्वीकार कर लेती है और पार्टी की कमान उनके सहयोगी रहे लाल कृष्ण आडवाणी मिल जाती है.

आडवाणी ही क्यों बने बीजेपी के अध्यक्ष?

मार्च 1986 में वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने अंग्रेजी पत्रिका इंडिया टुडे में ‘आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी आगे बढ़ना चाहती है’ शीर्षक , से एक लेख लिखा था. गुप्ता इस लेख में कहते हैं- शाहबानो और बाबरी के शोर में राजनीतिक जानकारों ने बीजेपी में हुए हालिया बदलाव पर ध्यान नहीं दिया है. बीजेपी अब अटल की पार्टी नहीं रही. अब वो लाल कृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में आगे बढ़ेगी.

गुप्ता आगे लिखते हैं- अटल के कार्यकाल में आरएसएस और बीजेपी के बीच कम्युनिकेशन गैप था. साथ ही संघ की जो विचारधारा थी, वो अटल बिहारी के कार्यकाल में काफी पीछे छूट गई थी. नए अध्यक्ष को लेकर संघ कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था. इन्हीं सभी सिनेरियो को देखते हुए आडवाणी को बीजेपी की कमान मिली.

1941 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जॉइन करने वाले आडवाणी 1951 में सक्रिय राजनीति में आए. 1957 में आडवाणी राजस्थान में सचिव बनाए गए. 1970 के दशक में वे आरएसएस और जनसंघ के पत्रिकाओं के संपादक भी रहे. 1970 में आडवाणी पहली बार राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए.

1973 में उन्हें जनसंघ की कमान मिली. वे 3 साल तक जनसंघ के अध्यक्ष रहे. आडवाणी जनसंघ के आखिरी अध्यक्ष थे. 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद जब चुनाव हुए तो आडवाणी की भूमिका पर्दे के पीछे रणनीति तैयार करने की थी.

1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो आडवाणी को सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया. 1980 में जनता पार्टी कीसरकार चली गई और उसमें टूट हो गई. इसी दौरान बीजेपी की स्थापना हुई और अटल अध्यक्ष बनाए गए. अटल के कार्यकाल में आडवाणी को राष्ट्रीय महासचिव की कुर्सी मिली. आडवाणी इसके साथ-साथ राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष भी थे.

बीजेपी में जान फूंकने के लिए 3 प्रयोग किए

अध्यक्ष बनने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने बीजेपी में जान फूंकने के लिए 3 नए प्रयोग किए.

1. आडवाणी ने समान विचारधार वाले दलों के साथ गठबंधन फॉर्मूला तैयाार किया. इसका पहला प्रयोग महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ किया गया . 1990 में बीजेपी को इसका फायदा भी मिला. शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन ने कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत लाने से रोक दिया. चुनाव में बीजेपी की सीटें 16 से बढ़कर 42 हो गई.

2. आडवाणी ने मुस्लिम तुष्टिकरण, छद्म धरमनिरपेक्षता का मुद्दा उभारा. उन्होंने बीजेपी के आंतरिक विचारधार को भी बदलने की घोषणा की. अटल के गांधी समाजवाद के बदले आडवाणी ने बीजेपी में हार्ड हिंदुत्व का फॉर्मूला लागू किया. 1989 के चुनाव में बीजेपी को इसका फायदा मिला. पार्टी किंगमेकर की भूमिका में हो गई. 1990 में बीजेपी ने अकेले दम पर राजस्थान में सरकार बना ली.

3. 1989 के परिणाम से उत्साहित आडवाणी ने बाबरी में कारसेवा की घोषणा कर दी. उन्होंने सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक कारसेवा निकालने की घोषणा की. हालांकि, उनकी रथयात्रा बिहार में रोक दी गई. बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार भी कर लिया गया. वे करीब एक महीने तक पुलिस की कस्टडी में रहे.

बीजेपी को बना दी 3 अंकों की पार्टी

लाल कृष्ण आडवाणी के 3 प्रयोग सफल रहे. 1991 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 3 अंकों की पार्टी बन गई. बीजेपी को लोकसभा की 120 सीटों पर जीत मिली. यह पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. आडवाणी अध्यक्षी छोड़ लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाए गए. हालांकि, 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद उन्होंने यह कुर्सी भी छोड़ दी.

1993 में आडवाणी को दूसरी बार बीजेपी की कमान मिली. इस बार वे 1998 तक अध्यक्ष रहे. 1996 में बीजेपी की 13 दिनों के लिए सरकार भी बनी. हालांकि, सरकार के मुखिया आडवाणी के बदले अटल बिहारी वाजपेई बने. इसकी घोषणा भी आडवाणी ने ही की. आडवाणी के अध्यक्ष रहते बीजेपी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान की सत्ता में आई.

पीएम न बनने का दर्द छलक पड़ा था

यह किस्सा 1996 की है. वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी अपने संस्मरण में लिखते हैं. एक रोज में आडवाणी से मिलने उनके घर गया. उस वक्त देश में हवाला और शेयर घोटाले की गूंज थी. हवाला कांड में आडवाणी का भी नाम आया था, जिसकी वजह से वे पद की राजनीति से दूर हो गए थे. वहीं बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री का फेस अटल बिहारी वाजपेई घोषित हो चुके थे.

बातचीत के दौरान आडवाणी का दर्द छलक पड़ा और वे कहने लगे. मैंने जो भी कुछ किया है, उससे पार्टी को तो फायदा हुआ है, लेकिन मेरा नुकसान हो गया. आडवाणी का इशारा पीएम पद की तरफ था. आडवाणी के अध्यक्ष रहते 1998 में बीजेपी की सरकार बनी तो अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने. अटल के बाद बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने.

सबसे पावरफुल अध्यक्ष साबित हुए

आडवाणी अपने 3 कार्यकाल में करीब 11 साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहे. बीजेपी में सबसे लंबे वक्त तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड भी आडवाणी के नाम ही है. 1990 में वरिष्ठ पत्रकार इंद्रजीत बधवार ने आडवाणी को पावरफुल बीजेपी अध्यक्ष बताया था.

अपने लेख में बधवार ने लिखा था- आडवाणी कम बोलते हैं और मृदुभाषी हैं, लेकिन विचारधारा को लेकर कट्टरपंथी हैं. आडवाणी ने अकेले ही दम पर बीजेपी को पुनर्जीवित कर दिया है. उनके प्रयास से राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी अब एक धुरी बन गई है.

कहा जाता है कि 1986 से लेकर 2012 तक बीजेपी के हर फैसले के पीछे आडवाणी ही होते थे. वह फैसला चाहे अटल बिहारी को प्रधानमंत्री चेहरा ऐलान करने की हो, चाहे 2002 दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से न हटाने की हो.

आडवाणी के अध्यक्ष रहते 3 बार टूटी बीजेपी

आडवाणी के अध्यक्ष रहते बीजेपी में पहली टूट साल 1995 में हुई. गुजरात में चुनाव में जीत मिलने के बाद बीजेपी ने केशुभाई पटेल को राज्य की कुर्सी सौंप दी. इससे नाराज शंकर सिंह वाघेला ने पार्टी हाईकमान के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. वाघेला के साथ 46 विधायक थे.

बीजेपी ने डैमेज कंट्रोल के लिए दिल्ली से के शर्मा, प्रमोद महाजन और भैरो सिंह शेखावत को अहमदाबाद भेजा, लेकिन वाघेला ने सीएम पद से नीचे कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. बीजेपी हाईकमान वाघेला के जिद के आगे नहीं झुकी, जिसके बाद 46 विधायकों के साथ वाघेला पार्टी से अलग हो गए.

बीजेपी में टूट का फायदा कांग्रेस ने उठाया और तुरंत वाघेला को समर्थन दे दिया. इस तरह 1996 में शंकर सिंह वाघेला राज्य के मुख्यमंत्री बन गए. दूसरी टूट 2005 में मध्य प्रदेश में हुई.उस वक्त मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री रही उमा भारती ने लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

उमा भारती का कहना था कि 2003 में मेरे ही बदौलत एमपी में बीजेपी की सरकार आई, लेकिन जब मुझपर संकट आया तो पार्टी ने मुझसे कुर्सी ले ली और अब वापस नहीं दे रही है. दरअसल, 2003 में बीजेपी की सरकार आने के बाद उमा भारती को बीजेपी ने मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन एक साल बाद ही उमा के खिलाफ कर्नाटक की कोर्ट ने एक मामले में वारंट जारी कर दिया, जिसकी वजह से उमा को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा.

उमा जब कानूनी मामलों से बाहर निकलीं तो फिर से सीएम पद की दावेदारी ठोक दी, लेकिन हाईकमान ने उमा की मांग मानने से इनकार कर दिया. नाराज उमा ने खुद की पार्टी बना ली.

तीसरी टूट भी 2005 में ही हुई. साल 2003 में झारखंड के मुख्यमंत्री पद से हटाए गए बाबूलाल मरांडी ने 2004 में आडवाणी के अध्यक्ष बनने के बाद मोर्चा खोल दिया. पार्टी ने अनुशासन के नाम पर मरांडी को पार्टी से बाहर कर दिया, जिसके बाद मरांडी ने झारखंड विकास मोर्चा के नाम से खुद की पार्टी बना ली.

संघ के दबाव में छोड़नी पड़ी अध्यक्ष की कुर्सी

2004 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद लालकृष्ण आडवाणी तीसरी बार पार्टी के अध्यक्ष बने. एक साल तक उनका कार्यकाल ठीक ढंग से चलता रहा. इसी बीच आडवाणी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को धर्म निरपक्षेत बता दिया. आडवाणी के इस बयान का पार्टी के भीतर तीव्र विरोध हुआ.

विरोध की शुरुआत मुरली मनोहर जोशी के बयान से हुई. जोशी ने उस वक्त पत्रकारों से बातचीत में कहा कि जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नहीं माना जा सकता है. संघ ने भी आडवाणी के बयान का विरोध किया. उस वक्त संघ के प्रवक्ता रहे राम माधव ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में आडवाणी के बयान को गलत बताया था.

आडवाणी जब इस मुद्दे पर अपना बयान बदलने को राजी नहीं हुए तो उनसे इस्तीफा मांगा गया. आखिर में 2005 संघ और पार्टी के भारी दबाव के बाद आडवाणी ने इस्तीफा दे दिया. उनकी जगह पर राजनाथ सिंह बीजेपी के अध्यक्ष बनाए गए.

अटल-आडवाणी के दौर में जोशी को कैसे मिली थी BJP अध्यक्ष की कुर्सी?

1990 में जब भारतीय जनता पार्टी शिखर पर जा रही थी और पार्टी के भीतर अटल-आडवाणी का दबदबा कायम हो गया था, तब बीजेपी के शीर्ष पद पर एक ऐसे नेता का उदय होता है, जिसे आडवाणी और अटल के मुकाबले संगठन का तजुर्बा नहीं था. इस नेता का नाम था- मुरली मनोहर जोशी.

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आडवाणी से द्वंद में गई थी जोशी की अध्यक्षता, बाल ठाकरे के साथ मंच साझा क्यों नहीं करते थे BJP अध्यक्ष मुरली मनोहर?
2005 में जब जिन्ना विवाद के बाद आडवाणी ने इस्तीफा दिया तो मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष बनने की रेस में सबसे आगे थे, लेकिन आखिर में बाजी राजनाथ सिंह के हाथों ही लगी. उम्र की वजह से जोशी रेस से बाहर हो गए.
आडवाणी से द्वंद में गई थी जोशी की अध्यक्षता, बाल ठाकरे के साथ मंच साझा क्यों नहीं करते थे BJP अध्यक्ष मुरली मनोहर?

बीजेपी के तीसरे अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी

1990 में जब भारतीय जनता पार्टी शिखर पर जा रही थी और पार्टी के भीतर अटल-आडवाणी का दबदबा कायम हो गया था, तब बीजेपी के शीर्ष पद पर एक ऐसे नेता का उदय होता है, जिसे आडवाणी और अटल के मुकाबले संगठन का तजुर्बा नहीं था. इस नेता का नाम था- मुरली मनोहर जोशी.

साइंस के प्रोफेसर रहे मुरली मनोहर जोशी 1991 में बीजेपी के अध्यक्ष बने थे. वे 1993 तक इस पद पर रहे. सियासी गलियारों में जोशी को अटल-आडवाणी के साथ त्रिदेव की उपाधि दी गई थी.

बीजेपी अध्यक्ष पर स्पेशल सीरीज में पार्टी के तीसरे अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की कहानी पढ़िए…

मुरली मनोहर जोशी कैसे बने थे अध्यक्ष?

साल था 1991. अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के तमाम प्रयासों के बावजूद बीजेपी केंद्र की सत्ता में नहीं आ पाई. इस साल हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 120 सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस अकेले दम पर बहुमत के करीब पहुंच गई.

चुनाव बाद आडवाणी बीजेपी की तरफ से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बना दिए गए. इसके बाद पार्टी के भीतर नए अध्यक्ष की खोज शुरू हुई. तीन महीने की खोज के बाद बीजेपी ने मुरली मनोहर जोशी पार्टी की कमान सौंप दी. बीजेपी के तीसरे अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी 1993 तक इस पद पर रहे.

जोशी को ही क्यों मिली अध्यक्ष की कुर्सी?

11 साल पुरानी पार्टी में यह तीसरी बार हो रहा था, जब पार्टी की कमान किसी सवर्ण नेता को दी जा रही थी. पार्टी के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी (ब्राह्मण) और दूसरे अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी (कायस्थ) थे. मुरली मनोहर जोशी भी ब्राह्मण समुदाय से थे.

जोशी को कमान देने की उस वक्त भी पार्टी में आलोचना हुई थी. गोविंदाचार्य और कल्याण सिंह जैसे दिग्गज नेताओं ने दबी जुबान से इसको लेकर सवाल उठाया था. हालांकि, जोशी को बीजेपी की अध्यक्षी मिलने की 3 बड़ी वजहें थी.

1. मुरली मनोहर जोशी आरएसएस के उस वक्त के सरकार्यवाह राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के मित्र थे. कहा जाता है कि जोशी को अध्यक्ष बनाने में रज्जू भैया ने बड़ी भूमिका निभाई थी. रज्जू भैया बाद में संघ के सरसंघचालक भी बने.

2. 1991 में हार के बाद बीजेपी नए नेतृत्व को मौका देना चाहती थी. मुरली मनोहर जोशी उस वक्त अटल बिहारी से 10 साल और लालकृष्ण आडवाणी से सात साल छोटे थे. जोशी जब अध्यक्ष बने, तब उन्होंने अपनी टीम में भी अरुण जेटली जैसे युवा नेताओं को शामिल किया.

3. 1990 में देश में मंडल आंदोलन शुरू हो गया था. बीजेपी इसकी काट में कमंडल अभियान चला रही थी. इसी अभियान के तहत जोशी को अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी गई. जोशी स्वदेशी आंदोलन के प्रबल समर्थक थे.

10 साल की उम्र से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल होने वाले मुरली मनोहर जोशी 1953-54 में गौरक्षा आंदोलन के जरिए सार्वजनिक जीवन में आए. जोशी आपातकाल में जेल भेजे गए, जब वे जेल से बाहर आए तो जनता पार्टी के टिकट पर उन्हें अल्मोड़ा सीट से चुनाव लड़ाया गया.

जोशी यह चुनाव जीतने में कामयाब रहे. जनता पार्टी की सरकार में जोशी संसदीय सचिव बनाए गए. बीजेपी की स्थापना हुई तो जोशी को राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी दी गई. वे कार्यालय के भी प्रभारी थे. अटल सरकार में जोशी मानव संसाधन और विज्ञान विभाग के मंत्री थे.

भौतिकी शास्त्र से पीएचडी करने वाले जोशी कुछ सालों तक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक भी रहे थे.

कश्मीर तक यात्रा, लाल चौक पर तिरंगा फहराया

अध्यक्ष बनने के बाद मुरली मनोहर जोशी ने हिंदुत्व की रणनीति में राष्ट्रवाद का तड़का लगाना शुरू किया. उन्होंने कश्मीर से कन्याकुमारी तक एकता यात्रा की घोषणा कर दी. उनके इस यात्रा को मैनेज करने का जिम्मा नरेंद्र मोदी को सौंपी गई.

कश्मीर तक की उनकी यात्रा दो वजहों से महत्वपूर्ण थी. पहला, घाटी से उस वक्त कश्मीरी पंडित भगाए जा रहे थे. दूसरा, कश्मीर में आतंकी घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा था. यात्रा के दौरान ही जोशी ने कश्मीर के विवादित लाल चौक पर तिरंगा फहराने की घोषणा कर दी. जोशी के इस ऐलान ने सुरक्षाबलों की टेंशन बढ़ा दी थी.

कहा जाता है कि सेना न तो जोशी को लालचौक पर जाने से रोकना चाहती थी, जिससे आतंकियों का मनोबल बढ़े और न ही उनके इस ऐलान से खुश थी. हालांकि, आखिर में तमाम सुरक्षा में जोशी को 26 जनवरी 1992 को लालचौक ले जाया गया. वहां पर जोशी ने तिरंगा फहराकर अपना प्रण पूरा किया.

बाबरी गिराने के लिए सीक्रेट मीटिंग करवाई

दिसंबर 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का मुद्दा तूल पकड़ लिया. विश्व हिंदू परिषद के हजारों कार्यकर्ता अयोध्या में डेरा डाले हुए थे. इसी बीच मुरली मनोहर जोशी ने अयोध्या जाने की घोषणा कर दी. सबको उम्मीद जगी कि जोशी इस मामले का पटाक्षेप करेंगे. हालांकि, यहां कहानी कुछ और ही घटित हो गई.

5 दिसंबर की शाम को जोशी ने आडवाणी के साथ मिलकर विनय कटियार के घर पर मीटिंग की. बाबरी विध्वंस को लेकर गठित सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में दावा किया था कि इसी मीटिंग में विध्वंस की प्लानिंग बनाई गई थी. इस प्लानिंग के बाद मुरली मनोहर जोशी अयोध्या से दिल्ली चले गए.

हालांकि, जोशी हमेशा इस आरोपों को खारिज करते रहे. जोशी का कहना था कि बाबरी केस में जानबूझकर उन्हें फंसाया गया.

बाबरी विध्वंस मामले में जोशी को साजिशकर्ता के रूप में आरोपी बनाया गया था. हालांकि, 2020 में उन्हें कोर्ट ने सबूत के अभाव में बरी कर दिया.

अध्यक्ष रहते ठाकरे के साथ नहीं किया मंच साझा

मुरली मनोहर जोशी जब बीजेपी के अध्यक्ष बने, तब महाराष्ट्र में पार्टी शिवसेना के साथ गठबंधन में थी. हालांकि, अध्यक्ष रहते जोशी ने बाल ठाकरे के साथ कभी भी मंच साझा नहीं किया. बाल ठाकरे शिवसेना के प्रमुख और कट्टर हिंदुत्ववादी नेता थे

एक इंटरव्यू में जब जोशी से इसको लेकर सवाल पूछा गया तो उनका जवाब था- बाल ठाकरे से मैं कई मामलों में असहमत रहता हूं. गांधी को लेकर उनके विवादित बयान का मैं समर्थन नहीं करता हूं. जोशी के मुताबिक गांधी इस देश के प्रात:स्मरणीय (जिन्हें रोज सुबह याद किया जाए) हैं.

आडवाणी से द्वंद में गई अध्यक्ष की कुर्सी

1993 में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश और राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित था, लेकिन बीजेपी जोशी और आडवाणी गुट के लोग एक दूसरे से लड़ रहे थे. अंग्रेजी पत्रिका इंडिया टुडे के जून 1993 के अंक में वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह और युवराज घिमरे ने जोशी-आडवाणी के पावर स्ट्रगल को लेकर एक रिपोर्ट की है.

इस रिपोर्ट के मुताबिक एक तरफ जहां आडवाणी कैंप जहां लगातार जोशी को बैकफुट पर धकेलने की कोशिशों में जुटे हैं. वहीं जोशी अध्यक्ष बनने के बाद से ही आडवाणी के छाया से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं.

आखिर में चुनाव से पहले आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष की कमान सौंप दी जाती है. हालांकि, 1993 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार बनाने से चूक गई.

कांशीराम और मुलायम के गठबंधन ने कल्याण सिंह को दूसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया. हालांकि, आडवाणी की अध्यक्षता में बीजेपी दिल्ली में जीतने में जरूर सफल रही.

और फिर दूसरी बार अध्यक्ष बनने से चूक गए

2005 में जब जिन्ना विवाद के बाद आडवाणी ने इस्तीफा दिया तो मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष बनने की रेस में सबसे आगे थे, लेकिन आखिर में बाजी राजनाथ सिंह के हाथों ही लगी. उम्र फैक्टर की वजह से जोशी रेस से बाहर हो गए.

90 साल के जोशी 2019 तक लोकसभा के सांसद रहे. वर्तमान में जोशी राजनीति से निष्क्रिय हैं और स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं.

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