जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप करना होगा कॉर्पोरेट लॉबी और आर्थिक नीतियों का आकलन
जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप करना होगा कॉर्पोरेट लॉबी और आर्थिक नीतियों का आकलन
हमारी वर्तमान तैयारियां पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्यों से बहुत पीछे हैं. यदि यही स्थिति बनी रही, तो पृथ्वी का औसत तापमान अगले 4 साल, 9 महीने में ही 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को पार कर लेगा.
बहुत पीछे हैं हम अपने लक्ष्य से
मार्केटर रिसर्च, बर्लिन के ताजा आंकड़ों के अनुसार, हमारी वर्तमान तैयारियां और प्रयास पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्यों से बहुत पीछे हैं. यदि यही स्थिति बनी रही, तो पृथ्वी का औसत तापमान अगले चार साल और नौ महीने में ही 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को पार कर लेगा. वहीं 2.0 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को पार करने में लगभग 23 साल का समय शेष है. यह ध्यान देने योग्य है कि ये दोनों लक्ष्य वैश्विक स्तर पर इस सदी के अंत तक के लिए, लंबे विचार-विमर्श और खींचतान के बाद, 2015 में पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते में निर्धारित किए गए थे, जिसे अब तक का सबसे आशावादी समझौता माना गया था. इसके बावजूद, वैश्विक तापमान वृद्धि की गति लगातार तेज होती जा रही है. “यूनाइटेड इन साइंस” की रिपोर्ट तो और भी भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान नीतियों के तहत, इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान के 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना दो-तिहाई से अधिक है, जो जलवायु संकट से बचाव के लिए एक गंभीर चेतावनी है.
हालांकि ऐसा नहीं है कि पेरिस समझौते से पहले के एक दशक में कोई प्रभावी काम नहीं हुआ था. जब यह समझौता 2015 में लागू हुआ, उस समय के अनुसार अनुमान था कि साल 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में 16% की वृद्धि होगी. लेकिन इस दौरान किए गए वैश्विक प्रयासों का ही परिणाम है कि 2030 तक यह अनुमानित वृद्धि घटकर 3% तक आ गई है. इसके बावजूद, यह प्रयास अभी भी पर्याप्त नहीं हैं. पेरिस जलवायु समझौते के अनुसार, पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 2°C और 1.5°C (औद्योगिक युग से पहले की तुलना में) से नीचे सीमित करने के लिए 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में क्रमशः 28% और 42% की कमी होनी चाहिए थी. लेकिन हम अब भी उत्सर्जन कम करने की बजाय उसमें कम से कम 3% की वृद्धि की राह पर हैं.
जलवायु परिवर्तन के लिए हरेक स्तर जिम्मेदार
अगर जलवायु परिवर्तन के कारणों और इसके प्रभावों पर नज़र डालें तो हर स्तर पर न केवल एक असमान व्यवस्था जिम्मेदार दिखती है, बल्कि इसका प्रभाव भी वैश्विक स्तर पर भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देता है. सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव उन लोगों या क्षेत्रों पर पड़ता है, जिनका इसमें योगदान बहुत कम या नगण्य होता है. यह समझ जलवायु विमर्श की शुरुआत से ही बननी शुरू हो गई थी, जब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1972 में आयोजित स्टॉकहोम सम्मेलन में पर्यावरणीय क्षरण को गरीबी के नजरिये से देखने की वकालत की थी. जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों पर पड़ रहा है, जहां उनकी आर्थिक पिछड़ापन जलवायु संकट को और भी गंभीर बना देता है. मौजूदा जलवायु विमर्श के केंद्र में अमीर और गरीब देशों के बीच विकास का असमान प्रारूप है, जिसे राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर लागू की जा रही आर्थिक नीतियां और भी जटिल बना रही हैं.
मौजूदा जलवायु संकट और पर्यावरण क्षरण का स्वरूप व्यापक और वैश्विक है, लेकिन उससे निपटने की आर्थिक क्षमता प्रत्येक देश की असमान विकास की वजह से अलग-अलग है. इस असमानता के कारण, पिछले पांच दशकों में कई समझौते किए गए और अनेक बैठकें आयोजित की गईं, लेकिन ओजोन परत के छिद्र को छोड़कर किसी भी क्षेत्र में प्रभावी कदम नहीं उठाए जा सके. इसके साथ-साथ, बढ़ते जलवायु संकट में पश्चिमी या विकसित देशों का योगदान अधिक रहा है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी उसी अनुपात में होनी चाहिए, लेकिन मौजूदा वैश्विक संदर्भ में ऐसा नहीं दिखता.
भारत अपनी जनसंख्या से मजबूर
वैश्विक परिदृश्य में, पारदर्शिता बढ़ने के बावजूद, सभी देशों के बीच “क्षमता के अनुसार साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों” के सिद्धांत पर केवल सैद्धांतिक सहमति बनी है. इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में लागू करने में विकसित देश किसी भी प्रकार की संजीदगी नहीं दिखा रहे हैं. वहीं, विकासशील देशों, जैसे भारत और ब्राज़ील, की प्राथमिकताएं अपनी विशाल जनसंख्या को बुनियादी संसाधन मुहैया कराने में केंद्रित हैं. वहीं दूसरी ओर, गरीब देश, विशेषकर समुद्री किनारों पर बसे या द्वीपीय देश, मौजूदा वैश्विक आर्थिक तंत्र के शिकार बन रहे हैं और जलवायु संकट का सबसे अधिक दंश झेल रहे हैं.
मौजूदा जलवायु संकट पर सबसे अधिक प्रभाव आर्थिक नीतियों का है, विशेषकर तब जब पेरिस जलवायु समझौते के तहत उत्सर्जन को कम करने के लिए 2030 और 2050 के स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं. किसी भी आर्थिक गतिविधि पर लागू टैक्स की दर या उसमें दी गई छूट इस बात का संकेत देती है कि जलवायु संकट से निपटने के हमारे प्रयास कितने प्रभावी हैं. इसका कारण यह है कि हर आर्थिक गतिविधि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार उत्सर्जन से जुड़ी होती है. उदाहरण के लिए आज भी जीवाश्म ईंधन ऊर्जा का सबसे सस्ता और सुलभ स्रोत है और इसके उत्पादन और उपयोग पर अभी भी सब्सिडी दी जा रही है, जो स्पष्ट रूप से जलवायु संकट को बढ़ावा देने वाली नीति है. विकासशील देश इसी व्यवस्था पर निर्भर हैं क्योंकि उनके पास हरित ऊर्जा विकसित करने के लिए न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही विकसित देशों से तकनीकी सहायता और आर्थिक साधन मिल रहे हैं. इस असमानता के कारण विकासशील देश जलवायु संकट से निपटने के लिए आवश्यक उपाय करने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं.
विकासशील देशों को देना होगा ध्यान
एक्शन ऐड के एक अध्ययन के अनुसार, विकासशील देशों में $650 बिलियन की बड़ी राशि उन आर्थिक गतिविधियों में खर्च हो रही है जो कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, जिसमें आधुनिक कृषि और जीवाश्म ईंधन शामिल हैं. रिपोर्ट के अनुसार, इस गोरखधंधे में विकसित देश भी शामिल पाए गए हैं. इस विश्लेषण से यह भी पता चला कि विकासशील देशों में नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं को जीवाश्म ईंधन क्षेत्र की तुलना में 40 गुना कम धनराशि मिल रही है.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि जलवायु संकट की मौजूदा वित्तीय व्यवस्था, प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और अन्य संस्थाओं के दशकों से चले आ रहे आग्रह के बावजूद, कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने वाली परियोजनाओं को सब्सिडी का लाभ दे रही है, जबकि स्थिति इसके विपरीत होनी चाहिए थी. देश की राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ, जिनमें औद्योगिक क्षेत्र का दबाव समूह या ‘कॉर्पोरेट लॉबी’ भी शामिल है, ऐसी वित्तीय व्यवस्था के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं, जो कार्बन उत्सर्जन को प्रोत्साहित करती है और जलवायु संकट को गहराती जा रही है.
कॉरपोरेट बनें संजीदा, तो हो कल्याण
वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) के देशों में कॉर्पोरेट का व्यवहार एक परजीवी के समान है, जो सार्वजनिक धन को विकास की आवश्यकताओं जैसे गरीबी और पिछड़ापन की आड़ में सब्सिडी के रूप में जलवायु संकट से संबंधित परियोजनाओं में झोंककर मुनाफा कमा रहा है. एक्शन ऐड की मौजूदा रिपोर्ट अधिकांश देशों विशेषकर वैश्विक दक्षिण के देशों में, सार्वजनिक वित्तीय व्यवस्था पर कॉर्पोरेट लॉबी के प्रभावी पकड़ को जिम्मेदार बताती है. इसमें विकसित देशों द्वारा पेरिस जलवायु समझौते के तहत ‘जलवायु वित्त’ के खोखले वादों का भी महत्वपूर्ण योगदान है.
जलवायु संकट अब अपने विकराल रूप में आ चुका है. ऐसे में कॉर्पोरेट को अपनी जिम्मेदारियों को समझना होगा और वैश्विक समुदाय को लॉबी संस्कृति पर नियंत्रण लगाना होगा ताकि सार्वजनिक वित्त का उपयोग जलवायु संकट को कम करने और इसके प्रभावों से बचाव के लिए आवश्यक क्षमता के विस्तार में किया जा सके. विकसित देशों को भी वैश्विक उष्मन में अपने योगदान और असमान विश्व के निर्माण में अपनी भूमिका को स्वीकार कर “क्षमता के अनुसार साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों” के सिद्धांत में बाधा डालने से बचना होगा.