हरियाणा की हार यानी कमजोर होता जाट वोट बैंक ! हेप्रभु, हे जगन्नाथ…..हरियाणा में ये क्या हुआ ?

हरियाणा की हार यानी कमजोर होता जाट वोट बैंक !

चुनाव में जाट-जाट का शोर पड़ा महंगा

हालांकि, इस चुनाव में तो जाट-जाट का हल्ला कुछ ऐसा मचा कि कांग्रेस जीतता चुनाव हार गयी ; बीजेपी हारी हुई बाज़ी जीत गयी. हालांकि कांग्रेस ओवर कॉन्फिडेंस में ऐसी बाज़ियां हारने की माहिर है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बाद हरियाणा इसकी तीसरी नज़ीर है. जबकि आज की बीजेपी ऐसी ‘प्रोफेशनल पॉलिटिकल’ है जो पर्दे पर THE END लिख जाने तक थिएटर में डटी रहती है. आप इसी से अंदाज़ा लगाइए कि इस हार के बाद न जलेबी की फैक्ट्री वाले राहुल गांधी का पता है, न विनेश फोगाट का हौसला बढ़ाने गयी प्रियंका गांधी का.

गनीमत है विनेश जीत गयीं, लेकिन कांग्रेस पर हुड्डा परिवार के दबदबे ने माहौल कुछ ऐसा बनाया कि लगा जैसे हरियाणा वापस जाटों का नहीं हुड्डा परिवार का होने जा रहा है. मान लिया गया कि कांग्रेस आयी तो सूबे की कमान नहीं लगाम हुड्डा परिवार के हाथ में होगी. चर्चा ये होने लगी थी कि मुख्यमंत्री ‘पिता हुड्डा’ होंगे या ‘पुत्र हुड्डा’. हुड्डा परिवार से क़रीबी के आधार पर मंत्रिमंडल की काल्पनिक तस्वीर तक तय होने लगी.

हरियाणा में नहीं हुआ हिंदू-मुस्लिम

सनद रहे कि, हरियाणा में न अब्दुल VS अमरपाल हुआ- जिसके लिए बीजेपी कुख्यात है. न ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का वो नैरेटिव किसी काम का था जिसका सहारा हताश दिख रही बीजेपी ने आखिरी दम पर लिया. जलेबी VS लड्डू तो खैर सोशल मीडिया का मज़ाक था. हरियाणा में हिंदुओं की कुल जनसंख्या करीब सवा 2 करोड़ है-यानि 87 फीसदी के करीब है. जबकि मुसलमानों की आबादी 20 लाख भी नहीं ; यानी मोटा-मोटी 7 फीसदी के क़रीब. उनका सबसे ज्यादा घनत्व दिल्ली से सटे मेवात के इलाके में है.

दरअसल हुआ ये है कि हुड्डा और जाट के ‘स्क्वैबल’ ने हरियाणा चुनाव को ‘गेम ऑफ पज़ल’ बना दिया. 35 फीसदी ओबीसी और 21 फीसदी दलित अंदर ही अंदर आशंकित महसूस करने लगे. कुमारी शैलजा जैसी दलित आवाज़ भी नक्कार खाने में तूती जैसी हो गयी. इस पर कोढ़ में खाज़ ये कि सुरजेवाला के साथ हुड्डा परिवार के तनाव पूर्ण संबधों ने जाटों में भी डिविजन पैदा किया. बाकी हर सीट के अलग-अलग खेल होते ही हैं, इससे तो कोई इनकार कर ही नहीं सकते, वर्ना बीजेपी से जुड़कर चौटाला हार जाएं और बीजेपी जीत जाए ये कैसी ‘एंटी इनकंबेंसी’ हुई भाई !

जाट पंचायतों को सोचने की जरूरत

बहरहाल इस चुनाव के बाद सोचने की जरूरत जाट पंचायतों को है. खुद को किसान+जवान+पहलवान का संयुक्त वोट बैंक मानने वाली इस कौम की सियासी हनक और धमक का लगातार धक्का लग रहा है. 2022 के यूपी चुनाव में भी ये दिखा और अब 2024 के हरियाणा असेंबली चुनाव में तो चरम पर पहुंच गया है. हरियाणा में कांग्रेस की हार दरअसल जाटों की हार है. यूपी-हरियाणा और राजस्थान के उस जाट की हार है जो कभी दिल्ली सल्तनत को सर के बल खड़ा कर देता था. हरियाणा ने बता दिया है कि जाट अब किसी सरकार को बंधक नहीं बना सकते. जाट ही नहीं काऊ बेल्ट में ये सबक सत्ता का स्वाद ले रही बड़बोली जाति के लिए है. जम्हूरियत ने अब हर जाति की आकांक्षाओं को पर लगा दिए हैं.

अगर किसी जाति के दबदबे का पर्सेप्शन बनता है तो उसके खिलाफ़ रिवेंज वोटिंग भी हो सकती है – जाहिर है इसका असर नेता पर होगा तो उसकी पार्टी पर भी होगा. सचेत रहने की जरूरत तो अब योगी आदित्यनाथ को है जिन पर लगातार यूपी में ठाकुर राज चलाने का इल्ज़ाम धरा जा रहा है. 2014 से 2022 तक यूपी में अखिलेश पर यादवों और मायावती पर जाटवों को लाभ देने का इल्ज़ाम लगा कर ही बीजेपी ने पिछड़ा और दलित वोट बैंक में सेंध लगायी थी. हालांकि, भला हो बीजेपी की योगी विरोधी गैंग का जिसने उन्हें हरियाणा के चुनाव प्रचार में उतारा. कोशिश तो थी कि हार के बाद उलाहने का मौका मिलेगा कि योगी भी कुछ नहीं कर पाए, मगर खबर है कि योगी जहां-जहां गए ज्यादातर जगहों से बीजेपी के लिए जीत की खबर है.   

खैर इस जीत का अंदाज़ा तो बीजेपी को भी नहीं था. वरना प्रधानमंत्री मोदी के जिस चेहरे से वो हमेशा चमत्कार की उम्मीद रखती है, उनसे हरियाणा में इस बार सिर्फ चार रैलियां ही करायी गयीं.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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