इस्लाम या ईसाई धर्म नहीं साल 2050 तक इनकी सबसे ज्यादा होगी आबादी, क्या हिंदू है वो मजहब?
इस्लाम या ईसाई धर्म नहीं साल 2050 तक इनकी सबसे ज्यादा होगी आबादी, क्या हिंदू है वो मजहब? रिपोर्ट पढ़िए
Pew Research Report: हिंदुओं की आबादी आने वाले समय में 35 करोड़ के करीब बढ़ने वाली है. वहीं 2010 में कुल 23.2 फीसदी मुस्लिम थे जो साल 2050 में बढ़कर 29.7 फीसदी हो सकते हैं.
साल 2050 तक दुनिया में किस धर्म के सबसे ज्यादा फॉलोअर्स होंगे इसको लेकर प्यू रिसर्च सेंटर ने आंकड़ें जारी किए. इन आंकड़ों को देखकर पता चलता है कि इस्लाम सबसे तेजी से बढ़ने वाला धर्म है और फिर ईसाई धर्म की संख्या पूरी दुनिया में दूसरे नंबर पर होगी. हालाकि प्यू ने उन लोगों की संख्या भी जारी की है जो किसी भी धर्म को नहीं मानने वाले हैं. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि साल 2050 तक 62 प्रतिशत लोग किसी धर्म को नहीं मानेंगे. प्यू ने अमेरिकी युवाओं से पूछे गए सवाल के आधार पर ये दावा किया है और डेटा जारी किया है. आइए जानते हैं इस सवाल के जवाब में अमेरिकी युवाओं ने क्या कहा
क्या कहा अमेरिकी युवाओं ने
अमेरिका के युवाओं ने कहा कि साल 2050 तक पूरी दुनिया में 62 प्रतिशत ऐसे लोगों की आबादी होगी जो किसी धर्म को नहीं मानने वाले होंगे. वहीं 15 प्रतिशत लोगों का कहना है कि ऐसे लोगों की आबादी घटेगी. 22 फीसदी ने कहा जो आज है नॉन रिलिजियस लोगों का वही आंकड़ा रहने वाला है. दो प्रतिशत लोगों ने कुछ भी कहने से इनकार किया.
साल 2050 में कितनी होगी किस धर्म की आबादी
साल 2050 में दुनिया में मुस्लिम आबादी की बात करें तो प्यू के अनुसार ये 2 अरब 76 करोड़ से ज़्यादा हो सकती है. साल 2010 में दुनिया में मुस्लिम आबादी 1 अरब 60 करोड़ के करीब थी. वहीं हिंदू आबादी 1 अरब 38 करोड़ के करीब हो सकती है. प्यू की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2010 से 2050 के बीच सबसे अधिक तेजी से मुसलमानों की संख्या में वृद्धि होगी. 2010 के मुकाबले 2050 में मुसलमानों की संख्या 73 फीसदी बढ़ सकती है. दूसरी तरफ हिंदुओं की संख्या महज 34 फीसदी बढ़ने का अनुमान है. हिंदुओं से अधिक 35 फीसदी क्रिश्चियन धर्म मानने वालों की संख्या बढ़ सकती है.
हिंदुओं की आबादी आने वाले समय में 35 करोड़ के करीब बढ़ने वाले है. वहीं 2010 में कुल 23.2 फीसदी मुस्लिम थे जो साल 2050 में बढ़कर 29.7 फीसदी हो सकते हैं.
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आपके मज़हब का भविष्य क्या है?
अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी चिंतक और दार्शनिक वॉल्तेयर ने कहा था कि, “अगर ईश्वर नहीं होता, तो हमें उसका आविष्कार करना पड़ता.”
ईश्वर का ताल्लुक़ धर्म से है. और इंसान जब से समाज में रहने लगा, तब से ही वो ईश्वर, ख़ुदा, गॉड या ऊपरवाले में यक़ीन रखने लगा था. फिर, धर्म को समझाने और उस पर यक़ीन जगाने के लिए इंसानों के बीच से ही पैग़म्बर हुए.
इस्लाम के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद साहब से पहले, ईसाई धर्म के पैग़म्बर ईसा मसीह थे. उससे भी पहले बौद्ध धर्म के प्रणेता महात्मा बुद्ध हुए. और इन सब से पहले पारसी धर्म के पैग़म्बर जरथुस्त्र हुए थे.
एकेश्वरवादी की नींव
आज से क़रीब 3500 साल पहले कांस्य युग के दौरान ईरान में जरथुस्त्र ने एकेश्वरवाद की नींव रखी थी और अपने अनुयायियों को यक़ीन दिलाया था कि सर्वशक्तिमान ईश्वर सिर्फ़ एक ही है. इसके एक हज़ार साल बाद, दुनिया का पहला एकेश्वरवादी धर्म यानी पारसी धर्म, फ़ारस के साम्राज्य का आधिकारिक मज़हब बन गया था.
उस दौर में पारसी धर्म के अग्नि मंदिरों में इबादत के लिए हज़ारों लोग जुटा करते थे. इसके एक हज़ार बरस बाद फ़ारस के साम्राज्य का पतन हो गया. नतीजा ये हुआ कि पारसी धर्म के अनुयायियों पर उनके नए शासकों ने ज़ुल्म ढाने शुरू कर दिए. क्योंकि उनका मज़हब इस्लाम हो चुका था.
इसके अगले 1500 वर्ष बाद, यानी आज पारसी धर्म एक मरता हुआ मज़हब है. इसकी पवित्र ज्वाला की हिफ़ाज़त करने वालों की तादाद मुट्ठी भर ही बची है. हम ये सोचते हैं कि धर्मों का आग़ाज़ होता है. ये फलते-फूलते हैं और फिर इनका अंत हो जाता है.
लेकिन, हम इस हक़ीक़त को जानते होते हुए भी एक बात नहीं मानते हैं, वो ये कि जब भी कोई नया धर्म शुरू करता है, तो पहले उसे एक नया संप्रदाय माना जाता है. जब हम किसी के विचार को धर्म का दर्जा देते हैं, तो हम ये मानने लगते हैं कि ये वक़्त की बंदिशों से परे है और पवित्रतम है. और जब किसी मज़हब की मौत होती है, तो ये एक मिथक बन जाता है.
फिर आख़िरी सत्य का उसका दावा भी ख़त्म हो जाता है. मिस्र, यूनान और दूसरी प्राचीन सभ्यताओं के एक दौर के धर्म आज क़िस्से-कहानियों में तब्दील हो चुके हैं. अब उन्हें पवित्र मान कर उनका अनुसरण कोई नहीं करता.
धर्म का बंटवारा
समय की तरह ही धर्म भी परिवर्तनशील हैं. जैसे कि ईसाई धर्म वर्ष 1054 में पूर्वी ऑर्थोडॉक्स और कैथोलिक संप्रदाय में बंट गया था. ये ईसाईयत का पहला बंटवारा था. इसके बाद से तो ईसाई धर्म में कई फ़िरक़े हो गए. इस्लाम का भी यही हाल हुआ. कभी सब को एक साथ लेकर चलने वाला इस्लाम आज शिया, सुन्नी, अहमदिया, बोहरा और न जाने कितने संप्रदायों में बंट चुका है.
तो, क्या आज के जो धर्म हैं, वो आने वाले वक़्त में और विभाजित होंगे या इन में से कुछ का ख़ात्मा हो जाएगा? या फिर आज के धर्म को हम नए रंग-रूप में देखेंगे?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमें सबसे पहले इस प्रश्न का उत्तर खोजना होगा कि आख़िर धर्म होते क्यों हैं?
वॉल्टेयर ने तो कहा ही था कि ख़ुदा अगर नहीं होता, तो हमें उसका आविष्कार करना पड़ता. और इसी बात में हमारे प्रश्न का उत्तर है. आज सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए हमें मज़हब की ज़रूरत होती है.
मज़हब समाज के अलग-अलग लोगों को जोड़ने का काम करता है. ये एकजुट होकर मंदिर बना सकते हैं. साथ में शिकार पर जा सकते हैं. या फिर, किसी सियासी दल के समर्थन में एकजुट हो सकते हैं.
हर दौर में नए-नए धर्मों का उदय हुआ है. इनमें से ज़्यादातर कच्ची उम्र में ही चल बसे. जो मज़हब बचे, उन्हें अपने अनुयायियों को आस्था के लिए ठोस लाभ देने होते हैं.
जैसे कि ईसाई धर्म.
अमरीका के बोस्टन स्थित माइंड ऐंड कल्चरल सेंटर के कॉनर वुड्स ईसाई धर्म की मिसाल देते हैं. रोमन साम्राज्य के दौरान बहुत से सामाजिक आंदोलन शुरू किए गए. लेकिन, इन में से ईसाई धर्म की प्रमुखता से उभरा. इसकी ख़ास वजह ये थी कि ये बीमारों की तीमारदारी का पाठ पढ़ाता था. इससे जो लोग ईसाई हो जाते थे, वो बीमारी या जंग की सूरत में अच्छी तीमारदारी की वजह से बच जाते थे. नतीजा ये हुआ कि ईसाई धर्म को मानने वालों की संख्या बढ़ती गई.
तो, अलग-अलग समाजों ने अपनी ज़रूरत के हिसाब से धर्म पैदा किए. जैसे कि अरब समुदाय में इस्लाम का उदय हुआ. जिसकी ख़ूबी थी कि ये लोगों को सम्मान, विनम्रता और दान का सबक़ देता था. उस दौर के अरब समाज में ये ख़ूबियां बहुत ही कम देखने को मिलती थीं.
इंसान जब शिकारी बना था तो वो हर चीज़ में ईश्वर या पराशक्ति देखता था. सर्वशक्तिमान ईश्वर में एक जैसे यक़ीन की वजह से ही एक-दूसरे से अनजान लोग मज़हब के नाम पर एकजुट होने लगे.
लेकिन, जैसे-जैसे विज्ञान ने तरक़्क़ी की और तर्क का पहिया आगे बढ़ा, तो बहुत से लोगों ने ऐलान कर दिया कि वो न तो ईश्वर को मानते हैं और न ही किसी धर्म को. वो तो सरकारों के बनाए क़ानून के हिसाब से चलते हैं. आज दुनिया में धर्मनिरपेक्षता में यक़ीन बढ़ा है.
इसे देखते हुए कई लोग ये कहने लगे हैं कि धर्म का कोई भविष्य नहीं है.
कल्पना कीजिए कि जन्नत होती ही नहीं
जैसे-जैसे इंसानी समाज पेचीदा होता जा रहा है, धर्म पर से यक़ीन डिगने लगा है. पूर्व सोवियत संघ और चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों ने तो नास्तिकता को औपचारिक रूप से अपना लिया. लोगों की निजी आस्था भी ऐसे देशों में अस्वीकार्य हो गई.
मशहूर समाजशास्त्री पीटर बर्जर ने 1968 में न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा कि, “21वीं सदी में धर्म को मानने वाले मुट्ठी भर लोग एक जुट होंगे, ताकि वो धर्मनिरपेक्षता के अनुयायियो के बहुमत से ख़ुद को बचा सकें.”
भले ही धर्म में लोगों का यक़ीन कम हुआ है, फिर भी दुनिया भर के मज़हब हाल-फिलहाल में कहीं नहीं जा रहे हैं. प्यू रिसर्च के 2015 के सर्वे के मुताबिक़, वर्ष 2050 तक दुनिया के 87 फ़ीसद लोगों का धर्म पर भरोसा होगा. ये आज के 84 प्रतिशत से ज़्यादा है. इस्लाम को मानने वालों की आबादी सबसे ज़्यादा बढ़ेगी. वहीं, नास्तिकों की तादाद 2050 में घट जाएगी.
फिर, बहुत से लोगों का धर्म से यक़ीन नहीं ख़त्म हुआ है. बल्कि वो इसके मौजूदा स्वरूप से नाख़ुश होकर उस पर यक़ीन करना बंद कर रहे हैं. मुसीबतज़दा लोगों का मज़हब में यक़ीन और पक्का हुआ है. वो इसे अपनी मुसीबतों से छुटकारे का ज़रिया मानते हैं.
वहीं, जिन लोगों की ज़िंदगी अच्छे से बसर हो रही है, वो धर्मो के मौजूदा स्वरूप को मानने के बजाय अपनी आस्था को नए सिरे से विकसित करते हैं. जैसे कि ईसाई धर्म की बहुत सी प्रथाएं, प्राचीन काल के दैवीय धर्मों की तरह की है.
चीन में बहुत से लोगों की जीवनशैली बौद्ध धर्म की महायान शाखा, ताओ धर्म और कन्फ्यूशियस धर्म की परंपराओं से मिलती हैं. यानी ये लोग ईश्वर में कुछ हद तक को यक़ीन रखते हैं. पर वो उसे नए नज़रिए से देखना चाहते हैं.
इसीलिए हम ने तमाम समाजों में आध्यात्मिक क्रांतियां होते हुए देखी हैं. आयरलैंड में असात्रु नाम के संप्रदाय को मानने वाले तेज़ी से बढ़ रहे हैं. तो, भारत में भी आर्य समाज से लेकर ओशो तक, धर्म को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिशें हुई हैं.
तो, ख़ुद को किसी मज़हब का न मानने वाला बताने वाले सारे लोग नास्तिक नहीं कहे जा सकते. बल्कि वो मज़हब की बंदिशों को मानने से मना करते हैं.
कोई नया धर्म आएगा
आने वाले दौर में जब सरकारों का कामकाज बेहतर होगा और समाज को अच्छी तालीम मिलेगी, तो शायद ऐसे लोगों की संख्या और बढ़े. विकसित देशों में तो ऐसा हो ही रहा है.
कॉनर वुड्स तो पूंजीवाद को भी एक धर्म का ही स्वरूप मानते हैं. वो कहते हैं कि बाज़ार की अदृश्य शक्तियां ईश्वर जैसी ही हैं. पूंजीवाद के बहुत से क़ायदे हमारे रोज़मर्रा के जीवन पर असर डालते हैं.
कॉनर वु़ड्स का कहना है कि कई बार लोग कहते हैं कि वो धर्म की पाबंदियों को नहीं मानते. हमें चलाने के लिए कोई ताक़तवर शक्ति चाहिए. ऐसे माहौल में ही कट्टरवादी नेता सत्तासीन हो जाते हैं. वुड्स भारत के हिंदू राष्ट्रवादियों से लेकर अमरीका के ईसाई इवैंजेलिस्ट तक की मिसाल देते हैं.
कुछ जानकार ये मानते हैं कि मौजूदा प्रमुख धर्मों में से कोई एक धर्म अपने अंदर बदलाव लाकर धर्म में यक़ीन न रखने वालों को अपने पाले में कर लेगा. ऐसा हम ने सत्रहवीं सदी में होते देखा था, जब ईसाई धर्म ने अपनी कई बुराइयां दूर कर के ख़ुद को अमरीका में और लोकप्रिय बना लिया था.
ब्रिटिश एक्सपर्ट लिंडा वुडहेड ने 2005 में द स्पिरिचुअल रिवोल्यूशन लिखी थी. वो मानती हैं कि आने वाले दौर में कोई नया धर्म विकसित होगा, इसकी संभावना कम है. क्योंकि किसी भी धर्म को फलने-फूलने के लिए सत्ता के साथ की ज़रूरत होती है. वो फारस साम्राज्य के दौरान पारसी धर्म के विकास और रोमन साम्राज्य में ईसाई धर्म के विकास की मिसाल देती हैं.
इंटरनेट की भूमिका
लेकिन, आज धर्म को एक और ताक़त से समर्थन मिल सकता है, जिसका नाम है इंटरनेट. इंटरनेट पर बहुत से संप्रदायों को मानने वालों को एकजुट किया जा रहा है. मी टू इसकी बड़ी मिसाल है. ऐसे ही कई आंदोलन इंटरनेट की वजह से बेहद लोकप्रिय रहे हैं. अब ये मुहिम तो धर्म नहीं हैं. लेकिन, इनकी मिसाल से ये समझा जा सकता है कि नया धर्म इंटरनेट की मदद से विकसित हो सकता है. इसके कुछ उदाहरण मौजूद भी हैं.
जैसे कि कुछ तर्कवादियों ने रोकोज़ बैसिलिस्क के नाम से एक ऐसी ताक़तवर मशीन की कल्पना की है, जिसमें देवताओें वाले कुछ गुण होंगे. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की बेथ सिंगलर कहती हैं कि आज इंटरनेट की मदद से बहुत कम समय में लोगों को किसी ख़ास विचार के लिए एकजुट किया जा सकता है. ऐसे ख्यालात ही धीरे-धीरे धर्म के रूप में विकसित हो जाते हैं.
अमरीकी अरबपति एंथनी लेवांडोवस्की जैसे लोगों ने तो अपने विचार के समर्थन में ऑनलाइन ही हज़ारों लोग जुटा लिए. लेखक युवल नोआ हरारी कहते हैं कि आधुनिक समाज की बुनियादें हिल रही हैं. आज लोग भगवान से ज़्यादा डेटा की ज़रूरत समझते हैं.
2011 में स्थापित ट्यूरिंग चर्च तो ईश्वर की तलाश करने तक की बात करती है. 2001 में हुई ब्रिटेन की जनगणना में बहुत से लोगों ने ख़ुद को जेडीइज़्म का अनुयायी बताया था. इंटरनेट की ये ख़ूबी है कि वो कम से कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचने का दम रखता है.
हालांकि सिंगलर कहती हैं कि ऐसे कई संप्रदायों ने आगे चलकर लोकप्रियता खो दी थी. क्योंकि जो तेज़ जलता है, वो जल्दी बुझ भी जाता है.
वैसे किसी भी विशाल धर्म की शुरुआत मुट्ठी भर अनुयायियों से ही होती है. फिर चाहे ईसा के समर्थक रहे हों या पारसी पैग़म्बर जरथुस्त्र के. जो आगे चल कर विशाल धार्मिक समुदायों में तब्दील हुए.
तो, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि धर्म पूरी तरह से शायद कभी नहीं मरते. ऐसे में ये भी हो सकता है कि नया धर्म किसी कोने में धीरे-धीरे पनप रहा हो.