अदालतों में क्यों लेट होते हैं फैसले?
न्याय में देरी, अन्याय के बराबर है…
अदालतों के फैसलों में होने वाली देरी को लेकर अकसर ये बात कही जाती है। आखिर फैसला सुनाने में अदालतें देरी क्यों करती हैं, इस सवाल के कई जवाबों में से एक सबसे अहम जवाब है- सबूतों का अभाव।
वो सबूत, जो वारदात के दौरान मौके से बतौर सैंपल इकट्ठे किए जाते हैं। फिर जांच के लिए फॉरेंसिक साइंस लैब (FSL) भेजे जाते हैं और वहां महीनों-सालों पड़े रहते हैं। मध्यप्रदेश के फॉरेंसिक साइंस लैब में ऐसे ही 29 हजार सैंपलों की रिपोर्ट्स पेंडिंग हैं।
अदालत सबूतों के बिना फैसला नहीं सुना सकती इसलिए इन मामलों में फैसले की जगह सिर्फ तारीख पर तारीख मिल रही है। फॉरेंसिक साइंस लैब के डायरेक्टर का कहना है-
हम पूरी क्षमता से काम करते हैं लेकिन क्या करें, 60 फीसदी पद ही खाली पड़े हैं।
3 केस से समझिए, इंसाफ पर कितना असर डालते हैं ये सैंपल
केस-1: 18 महीने तक अपराधी नहीं पकड़े गए
2022 में भोपाल में नाबालिग लड़की ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में रेप का मामला सामने आया। पुलिस ने 32 संदिग्धों के डीएनए सैंपल जांच के लिए भेजे। फॉरेंसिक जांच की रिपोर्ट करीब डेढ़ साल बाद आई। तब तक मामला पुलिस थाने में ही अटका रहा।
करीब 18 महीने बाद रिपोर्ट आई तो उनमें से एक का डीएनए सैंपल लड़की के डीएनए से मैच हो गया। अगर रिपोर्ट समय पर आ जाती तो अपराधी जल्दी पकड़ा जाता।
केस-2: 13 महीने तक जमानत पर रहा आरोपी
मार्च 2022 की एक रात 12 बजे भोपाल के बागसेवनिया थाने में फोन आया, ‘मेरे पिता मरे पडे़ हैं, उनके गले पर कट लगा हुआ है। फर्श पर खून पसरा है।’ घटनास्थल से चाकू बरामद हुआ। 3 संदिग्धों के फिंगर प्रिंट और ब्लड सैंपल फॉरेंसिक साइंस लैब में भेजे गए।
रिपोर्ट न आने के कारण सबको जमानत मिल गई। करीब एक साल तक सभी जमानत पर बाहर रहे। 13 महीने बाद रिपोर्ट आई, जिसमें पुष्टि हुई कि मृतक का छोटा भाई ही हत्यारा है।
केस- 3: 6 महीने जेल में रखने पर 30 लाख जुर्माना
6 सितंबर 2022 को ग्वालियर पुलिस ने MDMA ड्रग्स होने के शक में तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया था। आरोपी जेल में बंद थे। हाईकोर्ट ने पुलिस से जब्त माल की फॉरेंसिक जांच कराने के आदेश दिए। लगभग 8 महीने बाद जांच रिपोर्ट आई तो पता चला कि पुलिस जिसे ड्रग्स समझ रही थी, वह यूरिया है।
जानिए, कैसे काम करती है फॉरेंसिक लैब
फॉरेंसिक साइंस लैबोरेटरी या न्यायालयिक विज्ञान प्रयोगशाला (FSL) अपराध से जुड़े मामलों में पुलिस को मिले हुए सबूतों की जांच करती है। इसमें बायो सैंपल, डीएनए सैंपल, वॉयस सैंपल के साथ फिंगर प्रिंट, सिग्नेचर, हैंड राइटिंग की भी जांच की जाती है। अपराधी की पहचान करने में ये जांच अहम साबित होती है। इसकी जांच रिपोर्ट कोर्ट के निर्णय में अहम साबित होती है।
FSL में सात तरह की जांचें की जाती हैं
- डीएनए
- केमिस्ट्री
- टॉक्सिकोलॉजी (जहर)
- फिजिक्स
- बेसिक फिजिक्स
- वॉयस एनालिसिस
- बैलेस्टिक्स (हथियारों की जांच)
एमपी में 5 फॉरेंसिक लैब, अगले महीने तक दो और खुलेंगी मध्यप्रदेश में अभी 5 फॉरेंसिक लैब हैं। सबसे पुरानी लैब सागर में है, जिसे स्टेट फॉरेंसिक साइंस लैब भी कहते हैं। इसमें सभी तरह की जांचें होती हैं। इसके बाद इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर, भोपाल में लैब शुरू की गईं। इनमें सारी जांचें नहीं होती हैं।
रीवा और रतलाम में इस साल के अंत तक लैब शुरू हो जाएंगी। साथ ही विभाग ने उज्जैन, नर्मदापुरम और शहडोल में लैब बनाने का प्रपोजल सरकार को भेजा है।
29 हजार 884 जांच पेंडिंग, हर महीने 3 हजार सैंपल आ रहे
प्रदेश में हर महीने औसतन 3 हजार से ज्यादा सैंपल्स जांच के लिए आते हैं। वहीं, 3 हजार 600 से ज्यादा सैंपल्स की जांच हर महीने हो रही है। पांचों लैब में 29 हजार 884 केस पेंडिंग है। दो साल पहले तक ये पेंडेंसी 41 हजार से भी ज्यादा थी। विभाग के पास अभी हर महीने आने वाले सैंपल की जांच करने के साथ पिछले सालों के पेंडिंग केस को निपटाने की चुनौती भी है।
देश के औसत से डेढ़ गुना ज्यादा डीएनए टेस्ट एमपी में
पेंडिंग मामलों में डीएनए रिपोर्ट्स की पेडेंसी 3738 है। विभाग हर महीने 1200 से ज्यादा डीएनए टेस्ट हर महीने करता है, यह देश के औसत से डेढ़ गुना ज्यादा है। एमपी में हर दिन करीब 40 सैंपल्स की डीएनए जांच होती है।
20 हजार से ज्यादा केस टॉक्सिकोलॉजी से जुड़े
फॉरेंसिक साइंस लैब में पेंडिंग केस में सबसे ज्यादा मामले टॉक्सिकोलॉजी से जुड़े हैं, जिनमें जहर की शिनाख्त करनी है। जहर कैसे खाया या खाने को दिया गया, इसका भी पता लगाया जाता है। इन केस की संख्या 20 हजार से भी ज्यादा है। इसके बाद विसरा टेस्ट के केस हैं। विसरा में मरने वाले के शरीर से विसरल पार्ट यानी आंत, दिल, किडनी, लीवर आदि अंगों का सैंपल लिया जाता है।
सैंपल को प्रिजर्व करना सबसे बड़ी चुनौती
इतनी बड़ी मात्रा में आए सैंपल्स को प्रिजर्व करना बड़ी चुनौती है। विसरा और ब्लड सैंपल्स को डीप फ्रीज में रखा जाता है। जहां वे सालों तक सुरक्षित रह सकते हैं लेकिन ज्यादा सैंपल्स होने से जगह की कमी होने लगी है। इससे सैंपल्स के खराब होने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे रिजल्ट पर असर होता है।
टेक्नीशियन के 60% तो वैज्ञानिक के 54% पद खाली
न्याय व्यवस्था की अहम कड़ी फॉरेंसिंक साइंस लैब अपनी आधी से भी कम क्षमता के साथ काम कर रही है। विभाग में 299 पद वैज्ञानिकों के लिए स्वीकृत हैं, इनमें से 54 फीसदी यानी 161 पद खाली हैं। यही हाल फॉरेंसिक साइंस की बैक बोन कहे जाने वाले लैब टेक्नीशियन के हैं। इनके 208 पद स्वीकृत हैं और 60 फीसदी यानी 123 पद खाली हैं।
फॉरेंसिक डिपार्टमेंट के डायरेक्टर शशिकांत शुक्ल कहते हैं कि लैब के पास किसी भी तरह के संसाधनों की कमी नहीं है। बस एक्सपर्ट साइंटिस्ट और लैब टेक्नीशियन की कमी है।
सरकार ने कानून बना दिया, सुविधा नहीं दी पिछले साल शासन ने कानून बनाया कि 7 साल से ज्यादा सजा वाले अपराध में मोबाइल वैन साइंटिस्ट को घटना स्थल पर भेजना अनिवार्य है, लेकिन प्रदेश में सिर्फ 15 जिलों में ही मोबाइल वैन साइंटिस्ट
मौजूद हैं। सरकार की ओर से खुद के बनाए कानून के प्रति गंभीरता नहीं दिखी।
एक्सपर्ट से जानिए, कितनी अहम होती है FSL रिपोर्ट
सीनियर आईपीएस अधिकारी संजय कुमार अग्रवाल का कहना है कि समय पर फॉरेंसिक रिपोर्ट आने से केस की जांच को रफ्तार मिलती है और जांच अधिकारी जल्दी निष्कर्ष पर पहुंच सकता है। अगर केस कोर्ट में है तो पुलिस कोर्ट में चालान पेश कर देती है और जांच रिपोर्ट जब आएगी तो सीधा कोर्ट में पेश की जाएगी।
कई बार पीएम रिपोर्ट में लगता है कि सामान्य मौत हुई है लेकिन विसरा की जांच रिपोर्ट आती है तो पता चलता है कि मौत का कारण जहर है, जो डेड बॉडी को देखने से पता नहीं चल रही है। पुलिस की चार्जशीट में सबसे प्रमुख फॉरेंसिक रिपोर्ट होती है। इसके बिना चार्जशीट पेश करने में भी दिक्कत होती है।
देरी का असर… गुनहगार बेल पर, बेगुनाह जेल में
वकील पारस बाजपेई बताते हैं कि जिन मामलों में फॉरेंसिक जांच जरूरी होती है और रिपोर्ट देरी से आने के कारण चार्जशीट फाइल कर दी जाती है, तो उन मामलों में चार्जशीट की विश्वसनीयता पर भी असर पड़ता है। कई बार कोर्ट से आरोपी को बेल मिल जाती है क्योंकि 90 दिन बाद वह बाय डिफॉल्ट बेल का हकदार हो जाता है।
गंभीर अपराध वाले मामलों जैसे पॉक्सो, मर्डर और रेप से जुड़े केस में कोर्ट बेल देने से यह कहकर मना कर देती है कि फॉरेंसिक रिपोर्ट आने के बाद सोचेंगे।
फॉरेंसिक रिपोर्ट्स की देरी पर हाईकोर्ट सीएस को दे चुका नोटिस
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के क्रिमिनल लॉयर हरप्रीत सिंह का कहना है कि जांच के पेंडिंग रहने पर कोर्ट में केस की पेंडेंसी बढ़ती जा रही है। इस मामले में हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव को भी कारण बताओ नोटिस दिया था और फॉरेंसिक जांच की ओवर ऑल स्टेटस रिपोर्ट मांगी थी। अगर सैंपल लैब में भेजे गए हैं तो कोर्ट का फैसला भी जांच रिपोर्ट आने तक रुका रहता है।
इसकी अहमियत ऐसे समझिए कि पुलिस भले ही 100 किलो ड्रग्स जब्त कर ले, जब तक फॉरेंसिक रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक कोर्ट कोई फैसला नहीं सुनाती। अपराध सामने ही क्यों न दिख रहा हो लेकिन कोर्ट का फैसला फॉरेंसिक सांइस लैब की रिपोर्ट पर निर्भर होता है।