छठ की व्यापकता में पोखर तालाब से टूटता नाता !
छठ की व्यापकता में पोखर तालाब से टूटता नाता
हालांकि कुछ आर्थिक गतिविधियो को छोड़ कर ये जागरूकता अभी ये विमर्श के स्तर [तक ही पहुंच पायी है. इसी क्रम में परम्परागत रूप से भोजपुरी मगही अंगिका मैथिलि, खोरठा और कुछ कुछ पश्चिम के अवधी से शुरू होकर पूरब के बंगाल के द्वार तक में मनाया जाने वाला छठी मईया के पूजा का ये त्यौहार अपने प्रकृति सम्मत स्वरुप स्वरुप के कारण बरबस लोगो का धयान अपनी तरफ खींच रहा है, जिसमे ना सिर्फ पर्यावरण से जुड़े लोग शामिल है बल्कि समाजशास्त्री, आर्थिकी, भाषाविद, और नियोजन के अकादमिक लोग भी शामिल है. इस पर्व के सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय सन्दर्भ को जांचा परखा जाने लगा है. यहाँ तक कहाँ जा रहा है कि छठ पूजा प्रकृति से मानव जुड़ाव की मूर्त निरूपण है और ये सतत विकास के स्वरुप को आम जान के साथ जोड़ कर इसे जमीं तक लाने की दिशा में प्रभावी जन त्यौहार है.
बिहार जैसे पिछड़े इलाके का ये गुमनाम सा पर्व, जिसके मूल में आस्था, स्वक्षता, सहजीवन, निश्छलता रही है, अचानक से इसका स्वरुप अखिल भारतीय होने लगता है, यहाँ तक कि छठ पूजा भारत की राजधानी दिल्ली में अभी नाला बन चूकि युमना नदी पर हो रहे राजनैतिक विमर्श का मुद्दा बन चूकी हैं, जिसमे राज्य सर्कार और केंद्र की सरकार आमने सामने है. सनातनियों द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे जाते हैं. धीरे-धीरे यह त्योहार पहले रोजी रोटी की तलाश में निकले मजदुर बिहारियों के साथ भारत भर में में फैला, फिर प्रवासी बिहारियों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित होने लगा है.
छठ पूजा साक्षात देवता सूर्य, प्रकृति के सभी अंगो जिसमे,जल, वायु, और उनकी बहन छठी मइया को समर्पित है जिसमे उन्हें पृथ्वी पर जीवन को बहाल करने के लिए धन्यवाद स्वरुप स्थानीय उपलब्ध फल फूल कंद मूल के रूप में अर्घ्य समर्पित किया जाता है. पार्वती का छठा रूप भगवान सूर्य की बहन छठी मैया को त्योहार की देवी के रूप में पूजा जाता है. इस पर्व को आदिम स्वरुप के रूप में मनाये जाने का रिवाज है, जो छठी मैया को समर्पित अर्घ्य में शामिल वस्तुओ जिसमे सुलभता से उपलब्ध फल सब्जी कंद, सबसे आसान मिठाई ठेकुआ के अलावा पूजा कर रही वर्ती के खान पान और पोशाक में भी दीखता है. आधुनिकता के उफान के वावजूद भी कुछ व्रती बिना सिलाई के वस्त्र पहनती है.
छठी मईया पूजन के शुरुवात के कई सन्दर्भ है जो इसे आदिम बनाते हैं, जिसका सिरा सूर्य उपासना को लेकर वैदिक सन्दर्भ से जुड़ता है. माता सीता और द्रौपदी द्वारा छठ पूजा करने का सदर्भ मिलता है वही चीन के बौद्ध यात्री भी छठ मनाने का जिक्र करते है. चूकि ये पर्व उन्ही इलाको में व्यापक रूप से मनाया जाता है, जो कभी भगवान् बुद्ध की कार्य स्थली रही थी, तो इसे बुद्ध से जुड़ा भी माना जा सकता है. वही छठ वाले इलाके के युवा पत्रकार शशि शेखर छठी मईया के स्वरुप को दक्षिण भारत में पूजे जाने वाली देवी देवसेना के समकक्ष मानते है और इसके लिए कुछ सन्दर्भ का हवाला देकर इस पर्व को जो की भारत के पुरबिया संस्कृति की पहचान है इसे पूरब और दक्षिण के एकात्मकता का सूत्र मानते है.
हालांकि, इस स्थापना के लिए अभी पुष्ट आधार तलाशे जाने बाकि है. छठ के सामाजिक पहलू पर बहुत कुछ लिखा पढ़ा जा चूका है, जिसका लब्बोलुआब सामाजिक समरसता से जुड़ा हुआ है, जो सामाजिक रूढ़िता और पिछडेपन से ग्रसित पूर्व के इन इलाको के लिए ऑक्सीजन जैसा है. छठी मईया के पूजन के दौरान कुछ हद तक जातियों में बटें समाज समरसता पा जाता है. छठ पूजा तो इस मामले में जाति से इतर धर्म की गाँठ को भी ढीला करती नज़र आती है. सीटू तिवारी अपने बीबीसी हिंदी के एक वीडियो आलेख पटना के नजमा खातून द्वारा पिछले एक दसक से छठ पर्व का जिक्र करती है, जो एकेश्वरवादी मजहब से ताल्लुक रखती है.
इसी सिलसिले में बरबस मुझे अपने बचपन और मेरे गांव भतनहीया के छठ की स्मृति हो आती है, जहाँ मेरे ही गांव के इजहार खां के घर की एक बुजुर्ग महिला पूरी विधि विधान से छठ घाट पर व्रती के रूप में दिखती थी. हालांकि ये सिलसिला अब टूट गया है, उस बुजुर्ग महिला के बाद शायद उस मुस्लमान परिवार की अगली पीढ़ी से कोई छठ पूजा करने के लिए आगे नहीं आया हो ! बिहार के कोसी के इलाको में बाढ़ और समाज पर काम करने वाले राहुल यादुका छठ पूजा को लेकर सोशल मीडिया से एक जुड़े एक अनोखे सामजिकीय अपवाद की तरफ इशारा करते है “आम तौर पर सर्वहारा वर्ग एलिट वर्ग की संस्कृति को कॉपी करता है, लेकिन छठ इस मामले में अपवाद है” और इस बात की स्थापना के लिए सोशल मीडिया पर छठ से जुड़े बन रहे रील का हवाला देते है. हालांकि छठ पूजा समाज के दोनों वर्गों में सामान रूप से लोकप्रिय रहा है, या यु कहे कि छठ पूजा के ले ये वर्ग विभेद का सन्दर्भ सही नहीं लगत.
पूजा के आदिम स्वरुप, स्थानिकता और सरलता के साथ साथ छठी मईया की पूजा प्रकृति की ही पूजा है. ध्यान से देखें तो ये सारे त्योहार प्रकृति के तमाम मूर्त-अमूर्त अव्ययों के प्रति हमारी कृतज्ञता की लोक अभिव्यक्ति है और आज के दौर में इस त्यौहार का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है. पानी में खड़े हो कर अस्तचलगामी और उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पणहमारी जल संस्कृति की सभ्यतागत सशक्त अभिव्यक्ति है जो लोकप्रवृत्ति और लोकाचार में आज भी दृष्टिगोचर होती रहती है| स्थानीय जल स्रोत जिसमे नदी, पोखर, झील आदि जिसके जिसके किनारे छठ पर्व मनाया जाता है, की सामूहिक सफाई इस त्यौहार का प्रमुख अंग रहा है, जिसमे समाज के हर वर्ग के लोग के श्रमदान से पूरा होता है और ये इसकी पुष्टि मैं अपने बचपन की स्मृतियों के आधार पर कर सकता हूँ.
पर अब स्थिति बदली है, अब जल स्रोत दायरा ना सिर्फ कम हुआ है बल्कि प्रदुषण के शिकार भी हुए है, साथ ही साथ सामूहिक श्रमदान जो की सामाजिक जकड़न को तोड़ता था अब ये प्रवृति भी घाटी है. छठ के मौके सवाल है कि पानी के प्रति सदियों से देवता समान आस्था रखने वाला समाज, क्या आज भी पानी, नदी, तालाब, झीलों के प्रति संवेदनशील है? तो इसका मौजूदा सन्दर्भ में जबाब है नहीं! पिछले कुछ सालों से दिल्ली के नाला बन चूकि यमुना के सफ़ेद झाग के बीच सूर्य को अर्घ्य देते व्रतियों की फोटो आम हो चूकि है और ये दर्शाती है कि हमारा समाज पानी के प्रति सतही हो चला है! धीरे-धीरे प्रकृति के प्रति सामाजिक श्रद्धा अब पाखंड में बदलती जा रही है और हम उसी पाखंड का सार्वजनिक निरूपण करने को अभिशप्त हैं.
हमारी आस्था का धर्मभीरू हो जाना केवल यमुना की दुर्दशा तक सीमित नहीं है, इसके शिकार हमारे सभी जल के स्रोत हो रहे हैं, लगभग हर नदी पोखर जहाँ भी छठी मईया को अर्घ्य दिया जायेगा, धीरे धीरे दिल्ली की यमुना में बदलती मिलेगी वही हमारी छठ के प्रति आस्था का सैलाब और बढ़ता जा रहा है. अब हर शहर गाँव की अपनी यमुना है, कहीं नदी के रूप में तो कहीं तालाब के रूप में, जो धीरे-धीरे या तो विलुप्त हो रही है या नाला बन चुकी है. अनेक जगहों पर तो शहरी नदियाँ और तालाब तो सिर्फ अंग्रेजो के जमाने के गजेटियर में ही बचे रह गये हैं. उदाहरण के लिए सुदूर चंपारन के मोतिहारी शहर में नामचीन मोतीझील है जो शहरी अतिक्रमण, प्रशासनिक अकर्मान्यता और अराजक राजनीति के कारण सिकुड़ रही है, मर रही है.मोती जैसे चमकने वाले विशाल झील में ऐसी स्थिति नहीं रही की छठ पूजा निमित व्रती साफ़ पानी का आचमन कर अस्तचालगामी और उगते सूरज को अर्घ्य अर्पित कर सक.
मोती झील के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे युवा वकील कुमार अमित हमारी मरती जा रही सामूहिक चेतना पर चोट करते हुए कहते है कि अगर हम इसी तरह मोती झील में हो रहे अतिक्रमण और प्रशासनिक अकर्मण्यता पर चुप रहे तो अग्लो पीढ़ी छठ पूजा तो करती रहेगी पर शायद पोखर और झील के किनारे नहीं बल्कि लोटे के जल से आचमन कर छठी मईया से सहाय होने की गुहार लगाकर. ये केवल मोतिहारी के मोती झील का हाल नहीं है, लगभग हर जिले शहर के तालाबों की यही दुर्दशा है. तालाबों के शहर दरभंगा में ‘तालाब बचाओ अभियान’ के श्यामनन्द झा इसे स्थानीय लोगो के सहयोग से मिशन बना चुके है, जिसमे इन्हे सफलता भी मिली हैं. वो मानते है कि तालाब, पोखर स्थानीय संस्कृति के मूल है और इनका विलुप्त होना एक समाज से उसकी पहचान छीन लेने के सामान है.
छठ के व्यापक हो रहे सदर्भ और उसकी स्वीकार्यता के साथ साथ इस पर्व के आदिम स्वरुप को भी बचा के रखना जरुरी है और उसके लिए जरुरी है की हमारे पोखर तालाब झील नदियां साफ़ रहे उनका दायरा सिकुड़े नहीं. आज छठी मईया तक आमजन की आवाज़ पहुचाने वाली श्रीमती शारदा सिन्हा हम सब के बीच नहीं रही ऐसे में उनको श्रद्धांजली देते हुए उनकी आवाज़ में छठी मईया को ही हर एक पोखर तालाब की तरफ से गोहराते है
दुखवा मिटाई छठी मईया
रउए असरा हमार
सबके पुरावेनी मनसा
हमरो सुन ली पुकार
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