असली संकट नौकरियों का नहीं बल्कि स्किल्स का है !

असली संकट नौकरियों का नहीं बल्कि स्किल्स का है

भारत ने आजादी की सदी पूरी होने यानी 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का लक्ष्य सामने रखा है। यह एक कठिन चुनौती है। बहुत कुछ वैश्विक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। यदि विश्व-अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती है या धीमी हो जाती है तो भारत अपने दम पर बहुत अधिक विकास नहीं कर पाएगा। फिर भी, पिछले तीन दशकों में भारत के विकास की गति को देखते हुए यह लक्ष्य उसकी पहुंच के बाहर नहीं है।

अगर बहुत आशावादी दृष्टिकोण से देखें तब भी मेरी गणना बताती है कि हमें लक्ष्य को प्राप्त करने में निर्धारित समय से संभवतः 10 से 15 वर्ष और लगेंगे। लेकिन यह एक सराहनीय उपलब्धि होगी- जिसे भारत के आकार का कोई भी देश इतनी तेजी से हासिल नहीं कर पाया होगा!

2047 तक विकसित राष्ट्र का दर्जा हासिल करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग एक चौथाई सदी तक लगभग 10% की वार्षिक वृद्धि की आवश्यकता होगी। हम किसी चमत्कार से कम की उम्मीद नहीं कर रहे हैं, जो विश्व-इतिहास में केवल एक बार हुआ है- चीनी अर्थव्यवस्था ने 1990 और 2000 के दशक में दोहरे अंकों की वार्षिक जीडीपी वृद्धि हासिल की थी।

इसके बाद 2010 के दशक में उसकी विकास दर 6% से 7% और 2020 के दशक में इससे भी कम रह गई। अगर भारत 2060 के दशक तक विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होता है- जैसा कि मेरा अनुमान है- तो उसके लिए 7% की सालाना जीडीपी वृद्धि की दरकार होगी, और यह लक्ष्य भी आसान नहीं है।

भारत की उम्मीदें उसके युवाओं द्वारा शिक्षा और कौशल में निवेश पर टिकी हैं। भारत में शीर्ष प्रतिभाओं की एक पतली-सी परत है, जो भारत और विदेशों में मुट्ठी भर आईआईटी और शीर्ष विश्वविद्यालयों से प्रशिक्षित हैं। यह पतली परत दुनिया के बाकी हिस्सों से प्रतिस्पर्धा करती है और वैश्विक स्तर पर इसकी काफी मांग है।

इसी में से कई लोग फॉर्च्यून 500 कंपनियों में शामिल हो गए हैं और कुछ तो उन्हें चला भी रहे हैं। यह 2000 से औसतन 7% प्रति वर्ष की दीर्घकालिक जीडीपी वृद्धि के लिए प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए पर्याप्त रही है। लेकिन इस श्रेणी से नीचे कौशल का स्तर गिर जाता है।

विकास की गति को जारी रखने के लिए हमें दूसरी, तीसरी और चौथी परत बनाने की भी जरूरत है। हमने अब तक शीर्ष श्रेणी से नीचे के श्रमिकों के कौशल-स्तर को बढ़ाने के लिए जो कुछ किया है, वह नाकाफी है। पिछले दो दशकों में, इंजीनियरों, डॉक्टरों, नर्सों, प्रबंधकों और अन्य क्षेत्रों के पेशेवरों को प्रशिक्षित करने के लिए बड़ी संख्या में पेशेवर विश्वविद्यालय सामने आए हैं। भारत के विश्वविद्यालयों से हर साल एक करोड़ से अधिक युवा ग्रेजुएट होते हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर के पास ऐसी स्किल्स नहीं होतीं कि उन्हें नौकरी पर रखा जा सके।

राजनीतिक दल और विश्लेषक इस बात पर चिंताएं जताते हैं कि भारत में नौकरियों का संकट है। उनका तर्क यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था रिकॉर्ड उच्च दरों पर बढ़ने के बावजूद लाखों महत्वाकांक्षी युवाओं के लिए नौकरियां पैदा करने में विफल रही है। जबकि यह नौकरियों के साथ-साथ कौशल का भी संकट है।

आज हमारे पास इंजीनियरिंग, प्रबंधन, नर्सिंग में डिग्री रखने वाले लाखों युवा हैं, लेकिन उनके पास पर्याप्त स्किल्स नहीं हैं, इसलिए उन्हें वह नौकरी नहीं मिलती, जो वे चाहते हैं। उद्योगपति कुशल श्रमिकों की कमी के बारे में शिकायत करते रहते हैं। भारतीय इंजीनियरिंग कॉलेज हर साल 15 लाख इंजीनियर तैयार करते हैं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा हैं।

इंजीनियरों के लिए अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा करने के लिए यह पर्याप्त होना चाहिए। लेकिन अफसोस कि नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस (नैसकॉम) की एक रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से केवल 10% स्नातकों में ही इंजीनियर के रूप में काम पर रखे जाने योग्य स्किल्स हैं।

नैसकॉम का अनुमान है कि अगले दो से तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था को एआई और अन्य उन्नत इंजीनियरिंग क्षेत्रों में दस लाख से अधिक इंजीनियरों की आवश्यकता होगी। जब तक इंजीनियरिंग कॉलेज अपने कार्यक्रमों में उद्योग-विशिष्ट कौशल प्रदान करने के लिए बदलाव नहीं करते- जिनकी भविष्य में आवश्यकता है- तब तक लाखों इंजीनियर बेरोजगार रहेंगे और दूसरी तरफ इंजीनियरिंग के लाखों पद भी खाली रहेंगे।

एक तरफ नर्सों की भारी कमी है, दूसरी ओर नर्सिंग स्कूलों से स्नातक होने वाले हजारों लोगों के पास नर्सिंग होम या अस्पतालों में देखभाल प्रदान करने के लिए बुनियादी कौशल नहीं हैं। आने वाले दशक में चुनौती यह होगी कि शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुधारी जाए।

हमारे इंजीनियरिंग कॉलेज हर साल 15 लाख इंजीनियर तैयार करते हैं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। लेकिन इनमें से केवल 10% में ही इंजीनियर के रूप में काम पर रखे जाने योग्य स्किल्स हैं। यही हाल दूसरे क्षेत्रों का भी है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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