,,,,सरकार अर्थव्यवस्था की सटीक तस्वीर दर्शाने के लिए फरवरी 2026 में सकल घरेलू उत्पाद की गणना के लिए आधार वर्ष को बदलने पर विचार कर रही है। यह एक दशक से अधिक समय में पहला संशोधन होगा। पिछली बार यह संशोधन 2011-12 में किया गया था। अब नया आधार वर्ष को 2022-23 को किए जाने की तैयारी है। इसे फरवरी 2026 से लागू किया जाएगा। वहीं संख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय अगले साल जनवरी से आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के मासिक अनुमान पेश करेगा। माना जा रहा है कि बिस्वनाथ गोल्डर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी पर 26 सदस्यीय सलाहकार समिति द्वारा 2026 की शुरुआत तक यह कार्य पूरा कर लिया जाएगा।

भारत में जीडीपी गणना की मौजूदा पद्धति में बदलाव को लेकर जो कवायद शुरू हुई है, उसे लेकर मंथन जारी है। जीडीपी किसी भी देश की आर्थिक स्थिति का सबसे प्रमुख संकेतक है। यह देश की नीतियों को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मौजूदा बहस इस बात पर केंद्रित है कि क्या मौजूदा पद्धति को बदला जाना चाहिए? यदि बदलाव किए जाने चाहिए तो इसके लिए कौन से मानदंड अपनाए जाने की जरूरत है ? कई एक्सपर्ट मानते हैं आधिकारिक सांख्यिकीविदों को इस मौके का फायदा उठाते हुए जीडीपी की गणना के तरीके में संशोधन करना चाहिए ताकि लोगों के विश्वास पर खरा उतरा जा सकें। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) के सचिव सौरभ गर्ग ने कहा कि मंत्रालय अगले साल जनवरी से आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के मासिक अनुमान पेश करेगा। गर्ग का कहना है कि अगला आधार वर्ष (जीडीपी) 2022-23 होगा। फरवरी 2026 से लागू किया जाएगा।”

गौरतलब है कि सरकार लंबे समय से जीडीपी गणना के आधार वर्ष को बदलने के लिए राज्यों, केंद्रीय बैंक, शिक्षाविदों आदि के साथ चर्चा कर रही थी। इससे पहले सरकार ने जीडीपी गणना के लिए 2011-12 को आधार वर्ष बनाया था। भारत में राष्ट्रीय आय का पहला अनुमान केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने वर्ष 1956 में प्रकाशित किया था, जिसका आधार वर्ष 1948-49 था। समय के साथ-साथ आंकड़ों की उपलब्धता में सुधार के साथ-साथ गणना की पद्धति में भी बदलाव किए गए।

आधार वर्ष 2011-12 के मूल्यों पर जीडीपी के आंकड़ों की गणना करने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। इतना ही नहीं, वैश्विक रेटिंग एजेंसियों की नजर में कोरोना महामारी के नकारात्मक प्रभावों को झेलने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार मजबूत हो रही है।

माना जा रहा है कि सरकार फरवरी 2026 में जीडीपी कैलकुलेशन के लिए नए आधार वर्ष की घोषणा कर सकती है। नई गणना में लालटेन, वीसीआर, रिकॉर्डर जैसी कुछ वस्तुओं को हटा दिया जाएगा। वहीं स्मार्ट घड़ियों, फोन और प्रोसेस्ड फूड जैसे नए उत्पादों को शामिल जाएगा। इसके अलावा नए स्रोत के तौर पर जीएसटी आंकड़ों को भी रखा जा सकता है। सरकार अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्रों की बेहतर और सटीक तस्वीर को सामने लाने के लिए सांख्यिकीय प्रणाली में सुधार के कई उपाय कर रही है। सूत्रों के मुताबिक वित्त वर्ष 2026-27 में देश में जनजातियों की जीवन स्थिति, अखिल भारतीय स्तर पर कर्ज की स्थिति और निवेश सर्वे इत्यादि भी किए जाएंगे। डिजिटलीकरण के मौजूदा दौर में जीडीपी गणना पद्धति में सुधार आवश्यक है। हालांकि, यह संशोधन बेहद सावधानी और पारदर्शिता के साथ होने चाहिए। विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार को सुधार के लिए सभी पक्षों की राय शामिल करते हुए व्यापक परामर्श प्रक्रिया अपनानी चाहिए। ऐतिहासिक आंकड़ों की तुलना सुनिश्चित करने के लिए पुरानी और नई पद्धति के बीच तालमेल बनाया जाना चाहिए।

क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डी.के.जोशी कहते हैं कि जीडीपी के आंकलन के लिए हर दस साल में आधार वर्ष में बदलाव किया जाता है। पिछले 10 सालों में दुनिया काफी बदल चुकी है। हर सेक्टर में कई बड़े बदलाव हो चुके हैं। ऐसे में निश्चित तौर पर आधार वर्ष में बदलाव होने की जरूरत है। इस बार 2026 में आधार वर्ष में बदलाव संभव है। वहीं आधार वर्ष में बदलाव के साथ ही सरकार जरूरत के अनुरूप जीडीपी की सटीक गणना के लिए आवश्यक बदलाव कर सकती है।

अर्थशास्त्री मनोरंजन शर्मा कहते हैं कि जीडीपी की गणना के लिए उपयोग की जाने वाली मौजूदा विधियां और तरीके जटिल और विकसित हो रहे आर्थिक परिदृश्य को प्रभावी ढंग से नहीं पकड़ पाती हैं।

कृषि अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा मानते हैं कि ज कृषि क्षेत्र के कुल उत्पादन के आधार पर ही जीडीपी में हिसेदारी का आंकलन किया जाता है। लेकिन हमें इस बात पर विचार करना होगा कि क्या उत्पादन के आधार पर कीमतें बढ़ी हैं।

जीडीपीसकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का आशय किसी देश में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के कुल मूल्य से होता है। जीडीपी मुख्यतः 2 प्रकार की होती है नॉमिनल जीडीपी और वास्तविक जीडीपी। नॉमिनल जीडीपी चालू कीमतों (वर्तमान वर्ष की प्रचलित कीमत) में व्यक्त सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को मापता है। वास्तविक जीडीपी नॉमिनल जीडीपी के विपरीत यह किसी आधार वर्ष की कीमतों पर व्यक्त की गई सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को बताता है। समग्र घरलू उत्पादन की एक व्यापक माप के रूप में, यह देश की आर्थिक सेहत के एक व्यापक स्कोरकार्ड के रूप में काम करता है। जीडीपी की गणना आम तौर पर हर तिमाही होती है। इस आंकलन के आधार पर वार्षिक जीडीपी की गणना होती है।

ऐसे हो रही मौजूदा जीडीपी की गणना

विभवंगल अनुकुलकारा प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक और प्रबंध निदेशक सिद्धार्थ मौर्या कहते हैं कि जीडीपी को कैलकुलेशन करने के मुख्य तीन तरीके हैं, जिसमें प्रोडक्शन एप्रोच, एक्सपेंडिचर एप्रोच और इनकम एप्रोच को शामिल किया जाता है। खास बात यह है कि इन तीनों तरीकों से जीडीपी की कैलकुलेशन करने पर नतीजा एक समान ही आता है। प्रोडक्शन एप्रोच में उत्पादन के समय सभी वैल्यू एडेड (टोटल सेल्स माइनस इंटरमीडिएट इनपुट का मूल्य) का योग कर जीडीपी का मूल्य निकाला जाता है। एक्सपेंडिचर एप्रोच में अंतिम उपभोक्ता द्वारा खरीदी गए उत्पादों और सेवाओं का योग का उपयोग कर जीडीपी का मूल्य निकाला जाता है। इनकम एप्रोच में देश में उत्पादन से होने वाली आय का उपयोग करके जीडीपी के मूल्य को निकाला जाता है। प्रत्येक विधि अलग-अलग लेकिन उपयोगी जानकारी देती है जिसका उपयोग इस मामले में देश की आर्थिक योजना में एक साथ किया जा सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि ये विधियां ज्यादातर एक-दूसरे के अनुरूप हैं, लेकिन डेटा सीमाओं, माप में विसंगतियों से कई बार सटीक अनुमान भी लगाना आसान नहीं होता है।

2015 में अपनाए गए तरीके में (बेस ईयर 2011-12) अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बदलाव किए गए थे। हालांकि, इस पद्धति की कई सेक्टरों में आलोचना हुई थी। इंफॉर्मेटिक्स रेटिंग्स के चीफ इकोनॉमिस्ट डा. मनोरंजन शर्मा कहते हैं कि जीडीपी की गणना के लिए उपयोग की जाने वाली उत्पादन आय और व्यय की तीन विधियां इकोनॉमी की तस्वीर को तीन अलग-अलग एंगल से दिखाती हैं। प्रोडक्शन मैथड कुल उत्पादन प्रस्तुत करता हैं जबकि आय विधि सभी कारकों द्वारा अर्जित आय को दिखाती है। वहीं व्यय विधि सभी कारकों द्वारा किए गए व्यय को दर्शाती है।

आधार वर्ष में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों ?आधार वर्ष एक प्रकार का बेंचमार्क होता है जिसके संदर्भ में राष्ट्रीय आंकड़े जैसे- सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), सकल घरेलू बचत और सकल पूंजी निर्माण आदि की गणना की जाती है। प्रत्येक अर्थव्यवस्था में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं और इन परिवर्तनों का देश के वृद्धि एवं विकास पर काफी प्रभाव पड़ता है। विशेषज्ञों के अनुसार, अर्थव्यवस्था के भीतर होने वाले इन्हीं संरचनात्मक परिवर्तनों (जैसे- जीडीपी में सेवाओं की बढ़ती हिस्सेदारी) को प्रतिबिंबित करने के लिये आकलन के आधार वर्ष को समय-समय पर संशोधित करने की आवश्यकता होती है।इसके अलावा जीडीपी की गणना के लिये आधार वर्ष में बदलाव का एक अन्य उद्देश्य वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल सटीक आर्थिक आंकड़े एकत्रित करना भी होता है। क्योंकि सटीक आंकड़ों के अभाव में अर्थव्यवस्था के अंतर्गत कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण संभव नहीं हो पाता है।

आधार वर्ष में बदलाव से क्या फायदा होगा ?-बेस ईयर में रेगुलर अपडेट से देश के इकोनॉमी में स्ट्रक्चरल चेंज का सही सही अंदाजा लगाना आसान हो जाता है।

-इसमें बदलाव के बाद कंजप्शन पैटर्न में बदलाव, सेक्टोरल कंट्रीब्यूशन और इमर्जिंग सेक्टर्स के लेटेस्ट डेटा के जरिए GDP का कैलकुलेशन होता है।

-लेटेस्ट डेटा को शामिल करने से पुराने बेस ईयर की तुलना में अर्थव्यवस्था का ज्यादा सटीक हाल पता चलता है।

-2022-23 की इकोनॉमिक रियलिटीज से देश में पॉलिसी बनाने के लिए ज्यादा प्रीसाइज फ्रेमवर्क और एनालिसिस होगी।

नियमित अंतराल पर बदलता रहा है आधार वर्ष

भारत, 1948-49 से, हर 10 साल में एक बार आधार वर्ष में संशोधन करता आ रहा है। इतना लंबा अंतराल उचित था क्योंकि अगले तीन दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में बहुत कम बदलाव हुए। आर्थिक मीट्रिक के लिए आधार वर्ष को उस वर्ष के साथ संरेखित किया गया था जिसमें जनसंख्या जनगणना की गई थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि कार्यबल की जानकारी आधार वर्ष के अनुमानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी और कार्यबल के अनुमान दशकीय जनगणना से प्राप्त किए जाते थे।

हालांकि, फरवरी 1999 में CSO ने इस प्रथा से किनारा कर लिया और 1980-81 की श्रृंखला को 1990-91 की श्रृंखला के बजाय 1993-94 की श्रृंखला से बदल दिया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि CSO ने जनसंख्या जनगणना की जगह रोजगार पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा किए जाने वाले पंचवर्षीय सर्वेक्षण को अपनाया। बाद वाले सर्वेक्षण को कार्यबल, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में महिला कार्यबल के बेहतर अनुमान के रूप में देखा गया। इस बदलाव के साथ, भारत ने 1993-94 से हर पांच साल में आधार वर्ष में बदलाव करना शुरू कर दिया।

जबकि 1999-2000 और 2004-05 में आधार वर्ष में संशोधन किया गया, अगला संशोधन- जो 2009-10 में होना था- 2011-12 में टाल दिया गया। यह 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट के कारण हुआ था, जिसने अगले वर्षों में अनुमानों को प्रभावित किया होगा क्योंकि 2008 एक ‘सामान्य’ आर्थिक वर्ष नहीं था। इसी तरह के विचारों ने 2016-17 में आधार वर्ष में बदलाव को रोका, जो विमुद्रीकरण और आर्थिक गतिविधि में परिणामी मंदी के कारण एक और असामान्य वर्ष था। घरेलू और वैश्विक आर्थिक और गैर-आर्थिक विचारों की मेजबानी ने भारत को तब से अपने आधार वर्ष में बदलाव नहीं करने के लिए प्रेरित किया है।

2019 में, भारत सरकार ने एक श्रृंखला-आधारित तंत्र की ओर कदम बढ़ाने पर विचार किया था – एक ऐसा तंत्र जो जीडीपी की तुलना पिछले वर्ष से करने की अनुमति देगा, बजाय एक निश्चित आधार के जिसे हर पांच साल में संशोधित करने की आवश्यकता होगी। संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अधिकांश यूरोपीय संघ के देशों जैसे उन्नत देश श्रृंखला-आधारित पद्धति का उपयोग करते हैं।

जीडीपी बढ़ाने-घटाने के लिए कौन जिम्मेदार

जीडीपी को घटाने या बढ़ाने के लिए चार महत्वपूर्ण घटक होते हैं। पहला है, आप और हम। आप जितना खर्च करते हैं, वो हमारी इकोनॉमी में योगदान देता है। दूसरा है, प्राइवेट सेक्टर की बिजनेस ग्रोथ। ये जीडीपी में 32% योगदान देती है। तीसरा है, सरकारी खर्च। इसका मतलब है गुड्स और सर्विसेस प्रोड्यूस करने में सरकार कितना खर्च कर रही है। इसका जीडीपी में 11% योगदान है। और चौथा है, नेट डिमांड। इसके लिए भारत के कुल एक्सपोर्ट को कुल इम्पोर्ट से घटाया जाता है, क्योंकि भारत में एक्सपोर्ट के मुकाबले इम्पोर्ट ज्यादा है, इसलिए इसका प्रभाव जीडीपी पर नकारात्मक पड़ता है।

कृषि क्षेत्र के सटीक आकलन के लिए जरूरी जीडीपीकृषि अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा कहते हैं कि जीडीपी के आंकलन के तरीके में काफी बदलाव की जरूरत है। खास तौर पर कृषि क्षेत्र के आंकलन का। कहा जा रहा है कि कृषि क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी घट रही है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि कोविड के समय कृषि क्षेत्र ने ही देश को मजबूती प्रदान की थी। आज कृषि क्षेत्र के कुल उत्पादन के आधार पर ही जीडीपी में हिसेदारी का आंकलन किया जाता है। लेकिन हमें इस बात पर विचार करना होगा कि क्या उत्पादन के आधार पर कीमतें बढ़ी हैं। कर्मचारियों का वेतन वेतन आयोग के आधार पर बढ़ जाता है जिसके आधार पर उनकी जीडीपी में हिस्सेदारी भी बढ़ जाती है। लेकिन आज भी भारत का औसत किसान 10218 रुपये कमाता है। ऐसे में जीडीपी में कृषि क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी का सही आंकलन करना मुश्किल है। सरकार को जीडीपी के आंकलन के लिए कृषि क्षेत्र के आंकड़ों की गणना के लिए भी नए तरीके अपनाने चाहिए ।

बदलाव के लिए दिए जा रहे हैं तर्क

सरकार का तर्क है कि भारत का डेटा अभी भी मार्च 2012 में समाप्त हुए वित्तीय वर्ष की कीमतों पर आधारित है। इस तरह का पुनर्मूल्यांकन व्यापक सुधार का एक मौका है खासकर इसलिए क्योंकि पिछली बार जब जीडीपी श्रृंखला में बदलाव किया गया था, तब पहली बार इसकी विश्वसनीयता के बारे में कई प्रश्न पूछे जा रहे थे। विशेषज्ञ इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि भारत में सांख्यिकीविदों के लिए पश्चिम या चीन की तुलना में बेहद मुश्किल काम है। मनोरंजन शर्मा तर्क देते हैं कि भारत की जीडीपी गणना कृषि, इंडस्ट्री और सर्विस सेक्टर के योगदान को सटीक रूप से दर्ज नहीं करती है। वह कहते हैं कि कुछ सबूत बताते हैं कि भारत की जीडीपी वृद्धि को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है। ईंधन लकड़ी के मूल्यों को अक्सर आधिकारिक आंकड़ों में ठीक से दर्ज नहीं किया जाता है। जीडीपी की गणना के लिए उपयोग की जाने वाली मौजूदा विधियां और तरीके जटिल और विकसित हो रहे आर्थिक परिदृश्य को प्रभावी ढंग से नहीं पकड़ पाती हैं। वह कहते हैं कि वित्तीय सेवाओं, रियल एस्टेट, शिक्षा, मानव स्वास्थ्य और सामाजिक कार्य गतिविधियों जैसे क्षेत्रों को बाहर करने की आवश्यकता है।

ग्रेडिंग डॉट कॉम की फाउंडर ममता शेखावत कहती है कि भारत में शिक्षा क्षेत्र के लिए किसी मैप को तैयार करने में जो कठिनाइयां सामने आती हैं उसी तरह की मुश्किलें जीडीपी की गणना करने के तरीकों को खोजने और उसे इस्तेमाल करने में आती हैं। इन दोनों क्षेत्रों में सांख्यिकीय टूल्स के एक विकसित सेट की जरूरत होती है ताकि इन बहुआयामी घटनाओं के बारे में जानकारी दी जा सके। जिस तरह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना उत्पादन, आय या व्यय को ध्यान में रख कर की जाती है उसी तरह शैक्षिक अनुसंधान के लिए भी एक जटिल प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। किसी सेक्टर के उत्पादन का आंकलन उस सेक्टर के द्वारा किए जा रहे वैल्यू एडिशन को दर्शाता है वहीं उस सेक्टर की आय को देखा जाए तो वो आर्थिक आय को देखता है और व्यय कुल व्यय को दिखाता है। उत्पादन, आय, व्यय सब अलग अलग हैं लेकिन सभी आर्थिक पक्ष को ही दर्शाते हैं। जीडीपी के आंकलने के लिए लचीले सांख्यिकीय ढांचे बनाने की तत्काल आवश्यकता है जो नई तकनीकों को एकीकृत करने, असामान्य गतिविधियों को ध्यान में रखने और और तथ्यों के आपसी क्रियाओं का समग्र दृष्टिकोण देने में सक्षम हों।

जीएसटी को भी सरल बनाने की आवश्यकतापूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन का कहना है कि जीएसटी प्रणाली बहुत जटिल है और 2017 में शुरू किए गए इस सबसे बड़े अप्रत्यक्ष कर सुधार को सरल बनाने की जरूरत है। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कहा, ‘जीएसटी में 50 उपकर दरें हैं और अगर अन्य चीजों पर गौर किया जाए तो इनकी संख्या 100 तक जाती है।’

सुब्रमण्यन ने कहा कि कुछ लोगों ने मुझे बताया है कि जीएसटी ने अत्यधिक कर मांग को बढ़ावा दिया है। भारतीय प्रणाली में अत्यधिक कर मांग को हमेशा देखा गया है और जीएसटी प्रणाली आने के बाद इसमें वृद्धि हुई है। उन्होंने कहा कि जीएसटी ने जो अत्यधिक कर की मांग का जो दौर शुरू किया है, उस पर ध्यान देने की जरूरत है।

दरों को तर्कसंगत बनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि जीएसटी को सरल बनाने और राजस्व बढ़ाने की आवश्यकता है। जीएसटी को एक जुलाई, 2017 को ‘एक राष्ट्र, एक कर, एक बाजार’ की शुरुआत के तौर पर लागू किया गया था। इसमें कम से कम 16 अप्रत्यक्ष करों और उपकरों को शामिल कर दिया गया था।

आधुनिक आर्थिक गतिविधियों का समावेशवर्तमान जीडीपी पद्धति में डिजिटल इकोनॉमी, गिग इकॉनमी (गिग इकॉनमी एक मुक्त बाजार प्रणाली है जिसमें संगठन थोड़े समय के लिए श्रमिकों को काम पर रखते हैं या अनुबंधित करते हैं।) और पर्यावरणीय संसाधनों को पर्याप्त रूप से मापा नहीं जाता है। यह क्षेत्रों भारत की तेजी से बढ़ती इकोनॉमी में अहम योगदान दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2022-23 में डिजिटल भुगतान के माध्यम से 89.5 बिलियन लेनदेन हुए, जिसका मूल्य 135.2 ट्रिलियन रुपये था। ऑनलाइन सेवाओं और गिग वर्कर्स का कुल योगदान भारत की जीडीपी का लगभग 1.5% है। इन गतिविधियों को मापने से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच लगातार बढ़ रही आर्थिक खाई को बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा और उसका निदान संभव हो सकेगा।

लावण्या द लेबल की संस्थापक पूजा चौधरी कहती है कि भारत के जीडीपी की गणना करने के लिए, अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की जटिलताओं को समझना जरूरी है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से एमएसएमई और असंगठित क्षेत्रों को मापना एक बड़ी चुनौती है और अक्सर रूढ़िवादी सांख्यिकीय ढांचे के जरिए इसका सही आंकलन मुश्किल हो जाता है। दूसरी ओर, इकनोमेट्री टूल्स का विस्तार अधिक संस्थागत आर्थिक मूल्यांकन के लिए आशाजनक संभावनाएं प्रदान करता है। सैटेलाइट इमेजिंग, कैशलेस लेनदेन की जानकारी और रचनात्मक सैंपलिंग विधियां अनौपचारिक क्षेत्र के डेटा को बेहतर बना सकती हैं। जीडीपी के आंकलन में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के समाधान के लिए अधिक प्रभावी आर्थिक संकेतक बनाने होंगे। इसके लिए लचीले माप मानकों को आपसी सहयोग और बेहतर क्रियानव्यन जरूरी है। एक विविध और जीवंत अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की सही तस्वीर को मापने में नई और लगातार बदलती पद्धतियाँ महत्वपूर्ण हैं।

घरेलू श्रम को जीडीपी के पैमाने में शामिल करना तर्कसंगत नहीं

मनोरंजन शर्मा कहते हैं कि घरेलू श्रम को जीडीपी गणना में फिलवक्त शामिल नहीं किया गया है क्योंकि इस काम के मूल्य का अनुमान लगाना मुश्किल है और यह बाजार प्रणाली का हिस्सा नहीं है। जीडीपी गणना में गृहिणी के समय की अवसर लागत को नजरअंदाज कर दिया जाता है। जैसे , यदि एक मां अपने बच्चे के लिए खाना बनाती है, तो वह बाहर काम करने और अपनी सेवाओं के लिए भुगतान पाने का अवसर छोड़ रही है। हालांकि, अवैतनिक और घरेलू काम का कुल मूल्य सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 10% से 39% के बीच होने का अनुमान है। अर्थशास्त्रियों ने गृहकार्य के मूल्य को मापने के लिए विभिन्न तरीकों के लिए तर्क दिया है। उदाहरण के लिए, सर्वेक्षण में लोगों से पूछा जाता है कि वे अपना समय कैसे व्यतीत करते हैं, इसका उपयोग घरेलू उत्पादन का अनुमान लगाने के लिए किया जा सकता है।

अधिक सटीकतामौजूदा डेटा संग्रह प्रणाली में कई सीमाएं हैं, जैसे कि अनौपचारिक क्षेत्र का आंशिक समावेश और डेटा संग्रह में विलंब। नई पद्धति में डिजिटलीकरण का अधिकतम फायदा उठाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जीएसटी डेटा के उपयोग से सेवा और उत्पादन क्षेत्र का सटीक आकलन हो सकता है। 2023 में, जीएसटी संग्रह का औसत मासिक आंकड़ा 1.5 लाख करोड़ रुपये था, जो देश की आर्थिक गतिविधियों को प्रतिबिंबित करता है। आधार-लिंक्ड वित्तीय आंकड़े और उपभोक्ता व्यवहार पर आधारित रियल-टाइम डेटा, नीति-निर्माण को अधिक प्रासंगिक बना सकते हैं।

अंतरराष्ट्रीय पैमानों के अनुरूपआईएमएफ और विश्व बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की सलाह है कि भारत को अपनी जीडीपी गणना प्रणाली को अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनुरूप बनाना चाहिए। इसके पीछे उनका मानना था कि यह भारत को वैश्विक आर्थिक मंचों पर अधिक प्रभावशाली बनाएगा। इससे निवेशकों का भरोसा और विश्वास बढ़ेगा, जो भारत की तरक्की को और सशक्त करेगा। मसलन, सैटेलाइट इमेजरी और अन्य उन्नत तकनीकों का उपयोग करते हुए कृषि और भूमि उपयोग का सटीक मूल्यांकन किया जा सकता है। मनोरंजन शर्मा कहते हैं कि भारत की जीडीपी गणना पद्धति अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करती है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) भी शामिल है।

क्या भारत के लिए जीडीपी को पीपीपी के बजाय केवल नॉमिनल टर्म्स में में देखना फायदेमंद है?मनोरंजन शर्मा कहते हैं कि परचेजिंग पावर पेरिटी (पीपीपी) विनिमय दर निर्धारण का एक आर्थिक सिद्धांत है। इसमें कहा गया है कि दो देशों के बीच कीमत का स्तर बराबर होना चाहिए। इसका मतलब यह है कि मुद्राओं के आदान-प्रदान के बाद प्रत्येक देश में वस्तुओं की कीमत समान होगी। उदाहरण के लिए, यदि यूके में कोका कोला की कीमत 100 पाउंड थी, और यूएस में यह 1.50 डॉलर थी, तो पीपीपी सिद्धांत के अनुसार जीबीपी/यूएसडी विनिमय दर 1.50 (यूएस कीमत को यूके से विभाजित) होनी चाहिए।

दुनिया में जीडीपी की गणना बदलने से असर

दुनिया भर में अलग-अलग तरीके से जीडीपी की गणना बदलने बदली गई। इसमें अलग मानकों को जोड़ा गया। यह काल और परिस्थिति के अनुरूप था। उदाहरण के लिए, चीन ने 2016 में अपनी जीडीपी गणना में सेवा क्षेत्र और नई आर्थिक गतिविधियों को शामिल किया, जिससे उसकी विकास दर में लगभग 0.3% की वृद्धि हुई। इसी तरह, नाइजीरिया ने 2014 में अपनी बेस ईयर को अपडेट करते हुए फिल्म और टेलीकॉम इंडस्ट्री को शामिल किया, जिससे उसकी जीडीपी 89% तक बढ़ गई। वहीं इंडोनेशिया ने 2020 में अपने जीडीपी मापन में डिजिटलीकरण और ई-कॉमर्स सेक्टर को जोड़ा, जिससे छोटे और मध्यम उद्यमों की भूमिका अधिक स्पष्ट हुई। इससे निवेशकों का भरोसा बढ़ा। ब्राजील ने 2015 में कृषि और पर्यावरणीय सेवाओं को शामिल कर अपनी जीडीपी गणना को अधिक समावेशी बनाया, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की आर्थिक गतिविधियों को बेहतर मान्यता मिली।

घाना ने 2010 में जीडीपी गणना पद्धति बदली, जिससे अनपेक्षित रूप से उसकी अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी दिखाई दी, लेकिन इससे नीति-निर्माण और ऋण प्रबंधन में भ्रम उत्पन्न हुआ। दक्षिण अफ्रीका ने 2014 में बदलाव किया, लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र के सटीक आकलन में कमी रहने से उनकी नीति-निर्माण प्रक्रिया प्रभावित हुई।