‘एक देश, एक चुनाव’ से डर क्यों?
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ यानी ‘एक देश, एक चुनाव’ विधेयक लोकसभा में पेश हो चुका है! अब यह जेपीसी को जाएगा या इस पर सदन में ही लम्बी बहस होनी है, यह तय होना अभी बाकी है। केंद्र सरकार इस विधेयक को लाने के पीछे नीतिगत निरंतरता, कम चुनाव-खर्च होने और प्रशासनिक-क्षमता बढ़ने का तर्क दे रही है।
लेकिन सवाल यह उठता है कि विपक्षी दल इसका विरोध क्यों कर रहे हैं? दरअसल, ‘एक देश, एक चुनाव’ का मतलब यह है कि लोकसभा, विधानसभाओं और नगरीय निकायों, सबके चुनाव एक साथ कराए जाएं। ये संभव कैसे होगा?
इसके लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने सुझाव दिया है कि 2029 या 2034 में यह संभव हो सकता है। हालांकि ज्यादातर विधानसभाओं के कार्यकाल अलग-अलग हैं और एक साथ चुनाव कराने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ेगी।
कोविंद कमेटी ने कहा है कि एक साथ चुनाव की जो भी तारीख तय हो, तब जिन विधानसभाओं का कार्यकाल पहले खत्म हो रहा है उसे बढ़ा दिया जाए और जिनका कार्यकाल बाद में खत्म हो रहा है उनका कार्यकाल घटा दिया जाए। विपक्ष की आपत्ति यह है कि यह देश राज्य और संघ की अलग-अलग परम्परा पर चलता है।
ऐसे में राज्य विधानसभाओं को आप लोकसभा के अधीन कैसे कर सकते हैं? दरअसल, हमारे देश की तासीर यह है कि वह लोकसभा चुनाव में अलग मन से वोट करता है और विधानसभा चुनाव में अलग मन से। नगरीय निकायों के चुनावों में तो मामला और भी अलग हो जाता है।
मुद्दे, मामले और इश्यू भी अलग-अलग होते हैं। अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो लोकसभा चुनाव की धारा या बयार ही हर जगह बह सकती है। यानी केंद्र की सरकार में बैठे राजनीतिक दल को ज्यादा फायदा हो सकता है।
यही वजह है कि विपक्षी दलों ने यह आशंका भी जताई है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ की नीति के कारण छोटे और क्षेत्रीय दल समाप्त हो जाएंगे। क्षेत्रीय दलों की चिंता अपनी जगह सही हो सकती है लेकिन तर्क यह भी हो जाता है कि कोई भी राजनीतिक दल जनता की भलाई का काम अगर शिद्दत से कर रहा होगा तो वह हारेगा क्यों?
वह समाप्त क्यों हो जाएगा? इस आशंका के पीछे आखिर कौन-सा डर काम कर रहा है? अब मान लीजिए, यह विधेयक पारित हो जाता है- जो कि सत्ता दल चाहेगा तो पारित हो ही जाएगा और एक बार एक साथ चुनाव हो भी जाएंगे- फिर भी जो सरकारें बीच में गिर जाएंगी, जैसी कि गिरती रही हैं, उनका क्या होगा? कमेटी ने इसके लिए भी सुझाव दिया है।
बहुत स्पष्ट तो नहीं, लेकिन कहा शायद यह गया है कि दो साल से ज्यादा का समय रहते कोई सरकार गिर जाती है, तो वहां चुनाव कराए जाएंगे, लेकिन इससे कम समय रहने पर चुनाव नहीं होंगे। आशंका यह है कि कम समय रहने पर सरकार गिरती है तो वहां राष्ट्रपति शासन लगाना होगा।
यानी केंद्र का शासन। यही सबसे बड़ी दिक्कत है विपक्ष को।
फिर जब लोकसभा का कार्यकाल पूर्ण होने को आएगा, तो बीच में जिन विधानसभाओं में चुनाव हुए हैं, उनके कार्यकाल फिर घटाए जाएंगे? विपक्ष को यही सबसे बड़ी आपत्ति है।
विपक्ष का कहना यह भी है कि इस व्यवस्था में चुनाव आयोग राष्ट्रपति को सलाह देने लगेगा!
दरअसल, हमारे देश की तासीर यह है कि वह लोकसभा चुनाव में अलग मन से वोट करता है और विधानसभा चुनाव में अलग मन से। अगर एक साथ चुनाव हों तो लोकसभा चुनाव की धारा या बयार ही हर जगह बह सकती है। हालांकि अभी विधेयक में बहुत से संशोधनों की राह खुली हुई है। हो सकता है कोई परिपक्व ढांचा सामने आने पर बात बन जाए।