महाराष्ट्र-झारखंड के बाद आखिर दिल्ली किसकी?
मौसम सर्दियों का है और चुनाव का भी। सर्दियां इस बार हाड़ कंपाने वाली तो नहीं थीं, लेकिन लम्बी जरूर रहीं। चुनाव के भी कुछ यही हाल रहे। पहले जम्मू-कश्मीर और हरियाणा। फिर महाराष्ट्र और झारखंड। …और अब दिल्ली।
कड़ाके की ठंड के लिए मशहूर दिल्ली भी इस बार ज्यादा ठंडी नहीं रही। ठंड आते ही चुनावी गर्मी जो शुरू हो गई थी! क्या भाजपा, क्या आप और क्या कांग्रेस, सभी के प्रचार ने गर्मी बढ़ाई। कहते हैं दिल्ली में कुछ बहुत बड़ा होने वाला नहीं है। वैसे भी यह पूर्ण राज्य तो है नहीं, इसलिए इसे जीतने के लिए जितना जोर लगाना चाहिए, कोई नहीं लगा रहा है।
अनुमान कहते हैं कि केजरीवाल की आप पार्टी की सीटें जरूर घट सकती हैं लेकिन कोई बड़ा उलटफेर होने वाला नहीं है। लगता है- उलटफेर कोई चाहता भी नहीं है। अकेली दिल्ली की सत्ता में वैसे भी रक्खा ही क्या है? पुलिस तक तो उसके पास है नहीं। बेचारे अर्जियां लगाते रहते हैं और वे अस्वीकृत होती रहती हैं।
हालांकि शीला दीक्षित ने जिस तरह दिल्ली को संवारा-निखारा था, वैसा तो कोई नहीं कर पाया है लेकिन उनकी कांग्रेस पार्टी का भी अब दिल्ली में कोई धनी-धोरी नहीं रहा। वोट उनके आम आदमी पार्टी ने छीन लिए। नेता आपस में कुश्ती लड़ते रहते हैं।
जहां तक आप पार्टी का सवाल है, उसे हर हाल में दिल्ली की सत्ता चाहिए। ये पार्टी और उसके नेता वही हैं, जो कभी पार्टी के गठन के वक्त कहा करते थे कि ‘हम सत्ता में रहकर भी बागी रहेंगे उन महफिलों के, जहां शोहरत तलवे चाटने से मिलती है।’ सरकारी मकान नहीं लेंगे।
सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल या बेजा इस्तेमाल नहीं करेंगे। एक अलग तरह की राजनीतिक पौध विकसित करेंगे आदि। शुरू में इस पार्टी के इन नारों ने लोगों को बहुत लुभाया। बहुत ललचाया। लेकिन बाद में चीजें हल्की होती गईं और इस पार्टी की शोहरत भी कालांतर में शुचिता या सिद्धांतों के बजाय फ्रीबीज़ यानी कि मुफ्त की रेवड़ियों पर आकर टिक गई।
ऐसा नहीं है कि दूसरी पार्टियां इन रेवड़ियों से परहेज कर रही हैं। सब की सब इसी पैटर्न को अपनाए हुए हैं। किसी की तरफ से हजार, किसी की ओर से डेढ़ हजार, ढाई हजार और तीन हजार रुपए महीना तक मुफ्त में देने के वादे आए दिनों किए जा रहे हैं। महिलाओं के उत्थान के नाम पर दिया जाने वाला यह पैसा सत्ता में आने या सत्ता में वापसी करने की मुख्य धुरी बन गई है।
सवाल सिर्फ इतना है कि इस तरह के वादे पर भरोसा किसका किया जाए? अब तक का ट्रेंड यह रहा है कि जो पार्टी सत्ता में रहती है, उसका भरोसा लोग ज्यादा करते हैं। जैसे मध्यप्रदेश की सरकार वहां पहले से महिलाओं को यह पैसा दे रही थी, इसलिए उसी पर लोगों ने भरोसा किया। जबकि विपक्ष ने सरकार द्वारा दी जा रही रकम से ज्यादा देने का चुनावी वादा किया था, लेकिन लोगों ने सत्ता पर ही भरोसा जताया। यही महाराष्ट्र में हुआ। …और झारखंड में भी। जबकि महाराष्ट्र और झारखंड में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें थीं।
कुल मिलाकर, जो पहले से मिल रहा है, उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता। दूसरा कोई सत्ता में आकर दे या न दे, इस झंझट में कोई पड़ना नहीं चाहता। यही वजह है कि जिन राज्यों में भी महिलाओं को हर महीने कुछ राशि दी जा रही है, वहां चुनाव होने पर सरकार रिपीट हो रही है। दिल्ली लगता है, इसका अपवाद नहीं हो सकती। हालांकि असल परिणाम तो 8 फरवरी को ही पता चलेंगे, लेकिन राजनीतिक गलियारों में चर्चा कुछ इसी तरह की हैं।
कोई बड़ा उलटफेर होने वाला नहीं है। लगता है- उलटफेर कोई चाहता भी नहीं है। अकेली दिल्ली की सत्ता में वैसे भी रक्खा ही क्या है? पुलिस तक तो उसके पास है नहीं। बेचारे अर्जियां लगाते रहते हैं और वे अस्वीकृत होती रहती हैं।