प्रश्न यह भी है कि स्पष्टीकरण तब क्यों आया, जब ऐसी खबरें आ गईं कि नकदी मिलने से हैरान सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने जस्टिस वर्मा का स्थानांतरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय कर दिया। जो भी हो, अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम इस मामले में क्या फैसला करता है। उसका फैसला जो भी हो, स्थानांतरण कोई समाधान नहीं। यह तो संदेह के घेरे में आए जज को दिया जाने वाला एक तरह का संरक्षण ही होगा। यह ठीक नहीं कि भ्रष्टाचार के आरोपों से दो-चार होने वाले उच्चतर न्यायपालिका के जजों को या तो स्थानांतरित कर दिया जाता है या फिर उन्हें कोई काम नहीं दिया जाता। सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम के पास इससे अधिक सामर्थ्य नहीं कि वह ऐसे न्यायाधीशों को त्यागपत्र देने के लिए कहे और उनके ऐसा न करने पर सरकार को उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाकर हटाने का निर्देश दे।

प्रश्न केवल यह नहीं है कि न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया इतनी दुरूह क्यों है? प्रश्न यह भी है कि उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति करने वाला कोलेजियम सिस्टम अपनी तमाम विसंगतियों के बाद भी अस्तित्व में क्यों है? विडंबना यह है कि इन विसंगतियों की स्वीकारोक्ति के बाद भी जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं हो पा रहा है। एक समय मोदी सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाकर इसकी पहल की थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उसे असंवैधानिक करार दिया। यह आज तक समझना कठिन है कि इस आयोग की खामियों को दूर करने के स्थान पर उसे सिरे से क्यों खारिज किया गया? क्या इसलिए कि जज ही जजों की नियुक्ति करते रहें?

ध्यान रहे कि किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं होता। यह सही समय है कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की पहल नए सिरे से की जाए, क्योंकि जहां कोलेजियम के जरिये होने वाली नियुक्तियों को लेकर सवाल उठते रहते हैं, वहीं न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के प्रश्न भी रह-रहकर सिर उठाते रहते हैं। ये प्रश्न न्यायपालिका की साख को गिराने के साथ ही उसके प्रति आम आदमी के भरोसे को कम करने का ही काम कर रहे हैं। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक सच्चाई है। इससे मुंह मोड़ना जीती मक्खी निगलने जैसा ही है।