पंकज चतुर्वेदी। इस वर्ष मौसम ने होली से पहले ही तीखे तेवर दिखाने शुरू कर दिए। अब जितनी अधिक गर्मी होगी, पीने, स्नान, खेत और कारखानों आदि के लिए उतनी ही जल की मांग बढ़ेगी। धरती पर पानी की जरूरत या तो बरसात से पूरी होती है या फिर ग्लेशियरों से। गर्मी के अनियंत्रित होने से इन दोनों जल स्रोतों का गणित बिगड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन की तीखी मार के चलते बरसात का मौसम अब अनिश्चित-सा हो गया है। अभी से अधिकांश छोटी नदियां सूख गई हैं। इसका सीधा असर तालाबों, कुओं, नहरों और बावड़ियों पर दिख रहा है।

देश में अत्यधिक जल दोहन तथा अकुशल प्रबंधन के कारण भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। इसके परिणामस्वरूप आने वाले समय में देश को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में हमें इस जल संकट से निपटने के लिए तैयारी करनी होगी। तैयारी का कोई जटिल फार्मूला नहीं है। बस हमें पुरखों ने पानी की हर बूंद को सहेजने के जो जंतर दिए थे, उन्हें सिद्ध कर रखना होगा।

भारत में विश्व की कुल आबादी का लगभग 18 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है, जबकि देश में पीने योग्य जल संसाधनों का मात्र चार प्रतिशत भाग ही उपलब्ध है। जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है और देश के लगभग 70 प्रतिशत जल स्रोत प्रदूषित हैं। जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2050 तक हमारी जल की आवश्यकता 1,180 अरब घन मीटर होने की संभावना है। देश में जल की उपलब्धता वर्तमान में 1,137 अरब घन मीटर है। 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी को पीने योग्य स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा।

यदि भारत के ग्रामीण जीवन और खेती को बचाना है तो बारिश की हर बूंद को सहेजने के अलावा और कोई चारा नहीं है। अनुभव बताता है कि भारी भरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे शब्द जल संकट का निदान नहीं हैं। करोड़ों-अरबों की लागत से बने बांध सौ साल भी नहीं चलते, जबकि हमारे पारंपरिक ज्ञान से बनी जल संरचनाएं उपेक्षा, बेपरवाही के बावजूद आज भी पानीदार हैं। हमारे देश की नियति है कि थोड़ा ज्यादा वर्षा हो जाए तो पानी समेटने के साधन नहीं बचते और कम बारिश हो तो ऐसा रिजर्व स्टाक नहीं दिखता, जिससे काम चलाया जा सके। देश के बहुत बड़े हिस्से के लिए अल्प वर्षा नई बात नहीं है और न ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना, लेकिन बीते पांच दशक के दौरान आधुनिकता की आंधी में दफन हो गए हजारों तालाबों और पारंपरिक जल प्रणालियों के चलते ही हालात बिगड़े हैं।

मध्य प्रदेश के तीन लाख की आबादी वाले बुरहानपुर शहर में कोई 18 लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित होता है, जिसका निर्माण 1615 में किया गया था। इस प्रणाली को ‘भंडारा’ कहा जाता है। हमारे पुरखों ने हजारों साल पहले देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बारिश के पानी को समेटने की कई प्रणालियां विकसित एवं संरक्षित की थीं। घरों की जरूरत यानी पेयजल एवं खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था।

हरियाणा से मालवा तक जोहड़ जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचनाएं हैं। ये आमतौर पर वर्षा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटे तालाब की मानिंद होते हैं। तेज ढलान पर पानी की धारा को रोकने की पद्धति ‘‘पाट’’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘‘नाड़ा या बंधा’’ अब देखने को नहीं मिल रहा है। कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना भी रही हैं। आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए एवं इसकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज को दी जाए।

यह देश-दुनिया जब से है, तब से पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और कम बरसात, मरुस्थल जैसी विषमताएं प्रकृति में विद्यमान रही हैं। भूख या पानी के कारण लोगों के अपने पुश्तैनी घरों से पलायन की बातें बीते दो सौ साल से सुनने को मिल रही हैं। उसके पहले का समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। समस्या यह है कि आज कस्बे-शहर में बनने वाली योजनाओं में पानी की खपत एवं आवक को कोई नहीं आंक पाता है। हमारे देखते-देखते ही घरों के आंगन, गांव के पनघट एवं कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं। बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे, जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए। अब जब पाताल का पानी निकालने एवं नदियों पर बांध बनाने की जुगत फेल होती दिख रही है तो फिर उनकी याद आ रही है।

कुल मिलाकर जल को सोच-समझकर खर्च करना तो जरूरी है ही, आकाश से गिरी हर बूंद को सहेजने के लिए पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जीवित करना भी अनिवार्य है। ये प्रणालियां महज पानी नहीं सहेजेंगी, धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित भी करेंगी। हरियाली, मवेशी के लिए चारा, भोजन के लिए मछली एवं अन्य जल-फल के रूप में तो इनका आशीष मिलेगा ही।

(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)