NEP 2020: क्या हिंदी भाषी राज्यों में दूसरी भाषा के बाद तीसरी भाषा भी जरूरी होगी?
NEP 2020: क्या हिंदी भाषी राज्यों में दूसरी भाषा के बाद तीसरी भाषा भी जरूरी होगी?
नई शिक्षा नीति 2020 के तहत बच्चों को तीन भाषाएं सिखाई जाएंगी. लेकिन इसमें ये देखा जाएगा कि संविधान के नियम, लोगों की इच्छा, अलग-अलग इलाकों की जरूरतें और देश की एकता बनी रहे.
तमिलनाडु और भारत सरकार के बीच नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (NEP) 2020 को लेकर घमासान मचा हुआ है. यह नीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने एजुकेशन सेक्टर में बड़े सुधार के तौर पर लागू की थी, लेकिन तमिलनाडु की सरकार इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन इस नीति का खुलकर विरोध कर रहे हैं. उन्होंने इसे ‘हिंदुत्व नीति’ बताया है और कहा है कि ये नीति क्षेत्रीय भाषाओं के मुकाबले हिंदी और संस्कृत को ज्यादा बढ़ावा देती है. उनका कहना है कि इससे तमिलनाडु की तरक्की वाली शिक्षा व्यवस्था को खतरा है.
लेकिन, क्या नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत उन राज्यों में तीसरी भाषा जरूरी है, जहां पहली भाषा हिंदी है? उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में तीसरी भाषा के तौर पर कौन-कौन से विकल्प दिए जा रहे हैं? इस स्पेशल स्टोरी में जान लीजिए.
नई शिक्षा नीति की खासियत क्या है?
सरकार ने संसद में बताया, इस नीति का कहना है कि हर स्तर पर बच्चों को अपनी भाषा में पढ़ने का मौका मिलना चाहिए. इससे उन्हें चीजें जल्दी समझ में आती हैं और वो बेहतर तरीके से सीख पाते हैं. जब बच्चे अपनी भाषा में सोचते हैं, तो उनके दिमाग में नए-नए विचार आते हैं क्योंकि उन्हें भाषा की कोई रुकावट नहीं होती.
सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी ही नहीं, ये नीति चाहती है कि बच्चे कोरियाई, जापानी, थाई, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, पुर्तगाली और रूसी जैसी विदेशी भाषाएं भी सीखें. इससे उन्हें दुनिया की अलग-अलग संस्कृतियों के बारे में पता चलेगा और दुनियाभर में सरलता से घूम-फिर सकेंगे.
ये नीति ‘ग्लोबल सिटीजनशिप एजुकेशन’ (GCED) को भी जरूरी मानती है. इसका मतलब है कि बच्चों को दुनिया की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए और वो उन्हें समझ सकें. बच्चों को दुनिया के बारे में जानकारी देना जरुरी है.
पढ़ाई ऐसी, जो काम आए!
सरकार का मानना है कि आजकल की दुनिया में नौकरी पाने के लिए नए-नए हुनर सीखने पड़ते हैं. इसलिए, हमारी पढ़ाई भी ऐसी होनी चाहिए जो हमें नौकरी दिलाने में मदद करे. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इसी बात पर जोर देती है.
सरकार ने नेशनल क्रेडिट फ्रेमवर्क (NCrF), नेशनल हायर एजुकेशन क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क (NHEQF) और अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम के लिए करिकुलम और क्रेडिट फ्रेमवर्क जैसे नए नियम बनाए हैं. प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के लिए गाइडलाइन भी बनाई गई हैं, जिससे कॉलेज और यूनिवर्सिटी इंडस्ट्री के एक्सपर्ट्स के साथ मिलकर काम कर सकें.
हमारी पढ़ाई को फ्यूचर ऑफ वर्क यानी आने वाले समय की नौकरियों के हिसाब से बदला जा रहा है. जैसे कि खेती, हेल्थ, बैंकिंग, एनर्जी, डिजिटल और क्रिएटिव इकोनॉमी और AI वाली नौकरियां. SWAYAM Plus नाम का एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म शुरू किया गया है, जहां इंडस्ट्री की जरूरतों के हिसाब से कोर्स मिलेंगे. इससे बच्चों को नौकरी पाने में आसानी होगी.
क्या कोई भाषा किसी भी राज्य पर थोपी जा रही है?
संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया कि नई शिक्षा नीति 2020 के तहत बच्चों को तीन भाषाएं सिखाई जाएंगी. लेकिन इसमें ये देखा जाएगा कि संविधान के नियम, लोगों की इच्छा, अलग-अलग इलाकों की जरूरतें और देश की एकता बनी रहे. सबसे अच्छी बात ये है कि तीन भाषाओं के मामले में पूरी छूट रहेगी. किसी भी राज्य पर कोई भाषा जबरदस्ती नहीं थोपी जाएगी. बच्चे जो तीन भाषाएं सीखेंगे, वो राज्य और बच्चे खुद चुनेंगे. बस ये ध्यान रखना होगा कि तीन में से कम से कम दो भाषाएं भारत की अपनी होनी चाहिए.
अगर कोई बच्चा अपनी सीखी हुई तीन भाषाओं में से कोई भाषा बदलना चाहता है, तो वो क्लास 6 या 7 में बदल सकता है. लेकिन उसे स्कूल खत्म होने तक तीनों भाषाओं में अच्छी पकड़ दिखानी होगी, जिसमें एक भाषा भारतीय साहित्य के स्तर की होनी चाहिए.
यूपी, एमपी और बिहार में तीसरी भाषा का क्या ऑप्शन हैं?
सरकार ने बताया है कि उत्तर प्रदेश में तीसरी भाषा के तौर पर छात्र उर्दू या संस्कृत में से कोई एक भाषा चुन सकते हैं. मध्य प्रदेश में तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत, हिंदी, उर्दू, पंजाबी, या मराठी में से कोई भी एक भाषा चुन सकते हैं. यहां पर हिन्दी को भी तीसरे विकल्प के रूप में रखा गया है. वहीं, बिहार में तीसरी भाषा के तौर पर उर्दू या संस्कृत में से कोई एक भाषा चुन सकते हैं. इस तरह, इन तीनों राज्यों में तीसरी भाषा के विकल्प उपलब्ध हैं, ताकि छात्र अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार भाषा का चयन कर सकें.
क्या हमारी भाषाएं धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं?
भारत हमेशा से अपनी भाषाई विविधता के लिए जाना जाता रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से हमारी भाषाएं अब खतरे में हैं. पिछले 50 सालों में 220 से ज्यादा भारतीय भाषाएं लुप्त हो चुकी हैं और UNESCO ने 197 भारतीय भाषाओं को ‘लुप्तप्राय’ घोषित किया है.
कई भाषाओं को लिखने की कोई लिपि नहीं है, जिससे उन्हें बचाना मुश्किल हो जाता है. जब किसी जनजाति या समुदाय के बुजुर्ग, जो उस भाषा को बोलते थे, दुनिया से चले जाते हैं तो उनके साथ ही वह भाषा भी खत्म हो जाती है. इन भाषाओं को बचाने या रिकॉर्ड करने के लिए अक्सर कोई खास कोशिश नहीं की जाती है, जबकि ये भाषाएं हमारी संस्कृति का बहुत बड़ा हिस्सा हैं.
क्या हमारी भाषाएं कमजोर हो रही हैं?
भारत की भाषाई विविधता सिर्फ उन भाषाओं तक सीमित नहीं है जो लुप्तप्राय हैं, बल्कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाएं भी कई चुनौतियों का सामना कर रही हैं. अगर इन्हें सही तरीके से नहीं सहेजा गया, तो आने वाले समय में ये भी संकट में पड़ सकती हैं.
सरकार का मानना है कि भारतीय भाषाओं को स्कूल और उच्च शिक्षा में हर स्तर पर सिखाया और इस्तेमाल किया जाना चाहिए. भाषाओं को जीवंत बनाए रखने के लिए किताबें, वर्कबुक, वीडियो, नाटक, कविताएं, उपन्यास और पत्रिकाएं उपलब्ध होनी चाहिए. दुनिया की प्रमुख भाषाओं से महत्वपूर्ण सामग्रियों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में किया जाना चाहिए, ताकि नई जानकारियां आम जनता तक पहुंच सकें. अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, कोरियाई और जापानी जैसी भाषाओं में लगातार नई शिक्षा सामग्री, शब्दावली और अनुवाद विकसित किए जाते हैं. लेकिन भारत इस मामले में अभी भी धीमा है.
GDP का कितना हिस्सा शिक्षा पर खर्च कर रही सरकार?
शिक्षा मंत्रालय के बजट को लगातार बढ़ाया जा रहा है. 2021-22 में यह 93,224.31 करोड़ रुपये था, जो 2024-25 में बढ़कर 1,21,118 करोड़ रुपये हो गया है. एनालिसिस ऑफ बजटेड एक्सपेंडिचर ऑन एजुकेशन 2019-20 से 2021-22 के अनुसार, 2021-22 में भारत में शिक्षा पर केंद्र और राज्यों का कुल खर्च देश की कमाई (GDP) का 4.12% था.