तैरता विकास, टेरता विनाश … वायनाड त्रासदी का यही सबक !

तैरता विकास, टेरता विनाश: असली विकास प्रकृति की सुरक्षा एवं संरक्षण से ही… वायनाड त्रासदी का यही सबक
हर आपदा का एक जैव-पारिस्थितिक पहलू होता है, जो कुछ लोगों के निजी स्वार्थ के कारण बहुतों को नुकसान पहुंचा जाता है।

वायनाड और फिर कुल्लू-मनाली में जो आपदा बरसी, उसने ‘विकास या विनाश’ का मुद्दा फिर छेड़ दिया है। कोई भी आपदा अचानक, अकेले नहीं आती है। उससे पहले समाज और सत्ता में भी अच्छे विचार और सच्चे काम की कमी आती है। आपदा प्राकृतिक हो या मानवीय-हर आपदा का एक इकोलॉजिकल या जीव पारिस्थितिकी-तंत्र होता है, जो कुछ लोगों के निजी स्वार्थ के कारण बहुतों को नुकसान पहुंचा जाता है।
इसलिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक, मणिपुर से लेकर मुंबई तक, जो भी जलवायु संबंधी आपदा घट रही है, उनके पीछे मानवीय स्वार्थ जिम्मेदार होता है। प्रकृति तो सदा परिवर्तनशील ही रही है, मगर आपदाग्रस्त नहीं। आखिर हर मानसून में बढ़ती जा रही इन भयावह त्रासदियों से हम कोई सीख क्यों नहीं लेते। 

आज का विकास मॉडल प्रकृति के विनाश पर आधारित है। महंगाई और बेरोजगारी के बीच आलीशान इमारतें, सुपर हाईवे, पर्यटन कॉरिडोर व छह-लेन चौड़ी सड़कें उनसे जरूरी कैसे हो सकती हैं? विकास का जो मॉडल पिछले कुछ दशकों से देश में चलाया जा रहा है, उसे समाज और सत्ता के पैमाने पर देखना होगा। समाज के मन में यह घर कर गया है कि असल विकास तो विदेश का ही है और हमें देश में विदेश जैसा विकास चाहिए। यानी भारत को भौतिक तौर पर अमेरिका या इंग्लैंड ही बनाना है। 

यह वैसा ही है, जैसा 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज्य में दर्शाने की कोशिश की थी। यानी हमें बाघ का स्वभाव (निरंकुशता) तो चाहिए, लेकिन बाघ (अंग्रेज) नहीं चाहिए। मगर बाघ का स्वभाव तो बाघ के साथ ही आएगा। प्रकृति में सभी की जरूरत के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन एक की भी लालसा के सामने वह कम ही रहने वाला है। 

सिर्फ मुनाफे के लिए ही उद्योगपति विकास मॉडल के हिस्सेदार बनते हैं। इसलिए सड़कें बनानी हों या इमारतें, या कोई अन्य उद्योग लगाने हों, उस जमीन पर जीने-बसने वालों को अनावश्यक मान लिया जाता है। वायनाड, कुल्लू-मनाली या अन्य पहाड़ी इलाकों में सत्ता व उद्योगपतियों की सांठगांठ ने सिर्फ मुनाफे का ही विकास दर्शाया। विकास के नाम पर पेड़ तो खूब काटे जाते हैं, मगर उतने पेड़ लगाए नहीं जाते। बादल फटने या तेज बारिश होने से भुरभुरी मिट्टी भूस्खलन ही लाती है। या नदी का जल बिना ठहरे तेजी से बहता है, तो रास्ते से सब कुछ बहा ले जाता है। नतीजतन आपदा आती है। समाज को विकास के लिए विवेक से काम लेना होगा।

ऐसी ही सांठगांठ दिल्ली के राजेंद्र नगर के कोचिंग सेंटर हादसे में भी दिखी। रिहायशी इलाकों में कोचिंग सेंटर चलाने की मंशा भी मुनाफे की ही रही है। बस उनमें पढ़ने वाले प्रतिभाशाली बच्चे दूसरे राज्यों से आए थे। वर्ष 1935-36 में गांधी जी ने तय किया कि देश के बीचों-बीच सेवा कार्य करने-सीखने का गांव बने। सेवाग्राम आश्रम उद्योगपति जमनालाल बजाज को बनाना था। गांधी जी ने बजाज से शर्त रखी कि आश्रम बनाने के लिए जो भी जरूरत होगी, वह उसके सिर्फ पांच किलोमीटर के दायरे से ही ली जाए। इसके उन्होंने तीन कारण बताए-आसपास के लोगों को रोजगार मिलेगा, आत्मनिर्भरता बढ़ेगी और समरसता पैदा होगी। सभ्य समाज में सबका विकास ऐसी ही समरस अर्थव्यवस्था से होना चाहिए।

वायनाड, कुल्लू-मनाली और पहाड़ों में रहने-बसने वालों के लिए विकास का जो मॉडल अपनाया गया, उसमें पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु प्रदूषण होता है। विकास के नाम पर साठ प्रतिशत जंगल काट दिए गए हैं। पर्यटकों के लिए पेड़-पहाड़ काट कर सड़कें बनाना वहां रहने-बसने वालों के लिए रोजगार का बहाना भर है। ऐसे ही रोजगार का विकास कभी दिल्ली आकर कुसुमपुर पहाड़ी पर या मुंबई के धारावी के स्लमों में बसे लोगों ने भी देखा था। आज वे न घर के हैं, न घाट के।

दिल्ली के जमनापार में एक उच्च मध्यवर्गीय कालोनी निर्माण विहार है। उसमें कभी बारिश के पानी को सहेजने के लिए अलग से खुली नालियां बनाई गई थीं। फिर विकास के नाम पर उन नालियों को ढक दिया गया, अब उन नालियों पर कारें खड़ी होती हैं। ढक देने से नालियों की सफाई नहीं होती और जल निकासी भी अवरुद्ध हो गई है। नतीजतन हर बारिश में कालोनी बाढ़ ग्रस्त होती है।

जन और जनसेवक अगर ईमानदारी से स्थानीय विकास पर जोर देते, देश कब का विकसित राष्ट्र बन जाता। समाज को ही एकजुट होकर संपोषणीय विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) के लिए आगे आना होगा, क्योंकि पारिस्थितिकी की समझ तो वहां जीने-बसने वालों से ही बनती है। असली विकास प्रकृति की सुरक्षा एवं संरक्षण से ही हो सकता है। 

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