क्या वैज्ञानिकों की चेतावनियों को अनदेखा करना भारी पड़ा?

केदारनाथ यात्रा और प्राकृतिक आपदा की चुनौतियां: क्या वैज्ञानिकों की चेतावनियों को अनदेखा करना भारी पड़ा?
हर बार वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के सुझावों और चेतावनियों की अनदेखी को जिम्मेदार माना जा सकता है। आज धंसते हुए, जोशीमठ की भविष्यवाणी 1975 में मिश्रा कमेटी ने कर दी थी। लगता है कि हमारे नीति नियंताओं और शासकों ने वैज्ञानिक चेतावनियों की अनदेखी करने की कसम खा रखी है।
केदार घाटी बहुत तंग है और उसके अंत में 3,583 मीटर ऊंचा केदार पर्वत या केदार डोम है जिसे अलकनन्दा घाटी की ओर से चले बादल पार नहीं कर पाते हैं और वहीं बरस जाते हैं। 

इन हालात को देखते हुए सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि हमने 2013 की केदारनाथ आपदा से क्या और कितना सीखा?  यही सवाल हाल की वायनाड भूस्खलन त्रासदी से उठ रहा है और इसी तरह के मिलते-जुलते सवाल देश में अन्यत्र मुंह बाए खड़े हैं। विशेषज्ञों की चेतावनियों के अनुसार आपदाओं की क्षेत्र विशेष में पुनरावृति हो रही हैं और योजनाकार तथा नीति नियंता अपनी ही धुन में मशगूल हैं। 

आबादी की जरूरतों को पूरा करने और नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए विकास की अत्यन्त आवश्यकता है और हर सरकार अपने नागरिकों के लिए यही प्रयास करती भी है। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि हम प्रकृति के साथ इतनी छेड़छाड़ कर दें कि अपने ही नागरिकों को जान के लाले पड़ जाएं। जैसे कि अभी केदार घाटी में हो रहा है और फरवरी 2021 में उच्च हिमालयी क्षेत्र नीति  घाटी में धौलीगंगा और ऋषि गंगा की बाढ़ में हो गया।

इन आपदाओं के लिए हर बार वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के सुझावों और चेतावनियों की अनदेखी को जिम्मेदार माना जा सकता है। आज धंसते हुए, जोशीमठ की भविष्यवाणी 1975 में मिश्रा कमेटी ने कर दी थी। लगता है कि हमारे नीति नियंताओं और शासकों ने वैज्ञानिक चेतावनियों की अनदेखी करने की कसम खा रखी है।

उत्तराखण्ड और वायनाड में सच साबित हुई इसरो की चेतावनियां

भारतीय अन्तरिक्ष संगठन (इसरो) ने 2023 में देश के भूस्खलन संवेदनशील 147 जिलों का जोखिम मानचित्र तैयार किया था जिसमें सबसे ऊपर रुद्रप्रयाग जिले को रखा था जहां 31 जुलाइ को आयी आपदा के कारण इन दिनों हजारों तीर्थ यात्रियों की जानें संकट में फंसी रही या अब भी फंसी हैं।

दूसरे नम्बर पर उत्तराखण्ड का ही टिहरी जिला अत्यंत जोखिम की श्रेणी में रखा गया था जहां गत 26 एवं 27 जुलाई की रात को भूस्खलन से तिनगढ़ गांव तबाह हो गया और मां-बेटी जिन्दा दफन हो गये। इसरो के जोखिम मानचित्र पर पश्चिमी घाट पर्वत श्रेणी से लगे केरल के वायनाड सहित सारे 14 जिले शामिल किये गये थे। वहां गाडगिल कमेटी के बाद कस्तूरीरंगन कमेटी ने खतरे की घंटी बजा दी थी जो कि सरकारों के कानों में नहीं गूंजी।

केदारघाटी के जलतंत्र और भूगोल से अनभिज्ञता 

केदार घाटी की संवेदनशीलता इसरो के जोखिम मानचित्र के आईने में तो नजर आ ही रही है। लेकिन भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग, उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र तथा गढ़वाल विश्व विद्यालय के भूवैज्ञानिकों ने केदार घाटी जो कि सबसे संवेदनशील है और जो एमसीटी के दायरे में आती है, तथा केदारनाथ धाम जो स्वयं एक मलबे के पर स्थित है, वहां भारी निर्माण की सख्त मनाही कर रखी है। लेकिन वहां फिर भी सौंदर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर बहुत भारी निर्माण कर दिया गया जो कि अब भी जारी है। यही नहीं सन् 2013 में चोराबाड़ी ग्लेशियर पर बादल फटने और ग्लेशियल झील के टूटने के कारणों भयंकर अनदेखी की गई।

दरअसल, हमारे योजनाकार ही नहीं बल्कि आपदा प्रबंधक भी जलतंत्र की अनदेखी करने की भयंकर भूल कर रहे हैं। हिमालय पर ऊपर चढ़ते समय वर्षा कम होती जाती है और स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र में बादल बारिस की जगह वर्फ बरसाते हैं। लेकिन 2013 में ऐसा नहीं हुआ जो कि जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत था।

केदार घाटी बहुत तंग है और उसके अंत में 3,583 मीटर ऊंचा केदार पर्वत या केदार डोम है जिसे अलकनन्दा घाटी की ओर से चले बादल पार नहीं कर पाते हैं और वहीं बरस जाते हैं। तंग घाटी होने के कारण बादलों का वेग भी बहुत अधिक होता है जो कि अचानक पहाड़ से टकराकर बादल फटने की जैसी स्थितियां पैदा हो जाती है, इसलिए इस घाटी में निरन्तर बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं होती रहती है।

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केदारनाथ की धारण क्षमता से अत्यधिक अधिक होने से आपदा का एक कारण बन रहा है। – 
आस्था की बाढ़ भी संकट का एक कारण
एक स्वेच्छिक संगठन की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट ने 2018 में केदारनाथ की बेहद सीमित धारण क्षमता को अनुभव करते हुए वहां प्रतिदिन 5000 से कम यात्रियों को जाने की सीमा तय की थी। लेकिन यात्रियों के भारी दबाव को देखते हुए राज्य सरकार ने 2022 में बदरीनाथ के लिए 16 हजार, केदारनाथ के लिए 13 हजार, गंगोत्री के लिए 8 हजार और यमुनोत्री के लिए 5 हजार तय की।
सरकार पर यात्रियों से ज्यादा हितधारकों और राजनीतिक दबावों के चलते इस साल सीमा को बढ़ाकर बदरीनाथ के लिए प्रतिदिन 20 हजार, केदारनाथ 18 हजार, गंगोत्री 11 हजार और यमुनोत्री के लिए 9 हजार यात्री कर दिया गया। इससे भी दबाव कम नहीं हुआ तो सरकार ने जून में सारी सीमाएं हटा दीं। उसका नतीजा यह हुआ कि 4 अगस्त 2024 तक केदारनाथ जाने वाले यात्रियों की संख्या 10,91,316 तक और बदरीनाथ जाने वालों की संख्या 8,88,494 तक पहुंच गई, गौर करने वाली बात यह है कि  पहले सदैव बदरीनाथ जाने वाले यात्रियों की संख्या केदारनाथ से बहुत अधिक रहती थी। बदरीनाथ के लिए सीधे वाहनों से जाया जाता है जबकि केदारनाथ के लिए लगभग 21 किमी की कठिन पैदल यात्रा भी है। लेकिन अब केदारनाथ में बदरीनाथ से अधिक भीड़ जा रही है।

उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व पूरे सीजन में केदारनाथ के यात्रियों की संख्या औसतन 1 लाख तक और बदरीनाथ जाने वालों की संख्या 9 लाख तक होती थी। पिछले साल केदारनाथ में 19,61,277 तक तीर्थ यात्री पहुंच चुके थे।

दरअसल, 2013 की आपदा को अवसर में बदलने की रणनीति का ही नतीजा यात्रियों का यह सैलाब है जो कि केदारनाथ की धारण क्षमता से अत्यधिक अधिक होने से आपदा का एक कारण बन रहा है। यही नहीं बहुत संवेदनशील पारितंत्र वाले इन धामों में वाहनों की बाढ़ झौंकी जा रही है।

केदारनाथ की जड़ में इस साल 4 अगस्त तक 1,69,575 और सीधे बदरीनाथ तक 1,01,002 वाहन पहुंच चुके थे। यही नहीं अति संवेदनशील गोमुख तक भी इस साल अब तक 6,309 यात्री पहुंच गए जिनमें ज्यादातर कांवड़िए ही थे। प्रकृति के साथ अगर ऐसी ज्यातियां होती रहेंगी तो मानवीय संकट का टाला नहीं जा सकेगा।

 

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