बिहार दिवस मनाने मात्र से नहीं बनेगा काम ?

बिहार दिवस मनाने मात्र से नहीं बनेगा काम, राज्य के लिए सोचें और काम करें खास-ओ-आम

बिहार पर चर्चा थी! बिहार दिवस था तो बिहार में बिहार पर चर्चाएं क्यों नहीं होती? सौ वर्ष से अधिक हो गए हैं राज्य को बने, लेकिन ऐसी चर्चाएं कम ही होती हैं. आज से करीब 113 वर्ष पहले 22 मार्च 1912 को, बंगाल प्रांत के बिहार और उड़ीसा डिवीजनों को ब्रिटिश भारत में बिहार और उड़ीसा प्रांत बनाने के लिए अलग कर दिया गया था. आजादी के पचास वर्ष बाद तक भी बिहार दिवस जैसा कुछ मनाया नहीं जाता था. बिहार दिवस की शुरुआत नीतीश कुमार के कार्यकाल में बिहार सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर की गई और इसे मनाया जाने लगा. भारत के अलावा, यह संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन (स्कॉटलैंड), ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, बहरीन, कतर, संयुक्त अरब अमीरात, त्रिनिदाद के अलावा टोबैगो और मॉरीशस जैसे देशों में मनाया जाता है क्योंकि इन सभी जगहों पर बिहार से गए प्रवासियों या बिहार मूल के लोगों की अच्छी खासी संख्या है. इस दिन बिहार में सार्वजनिक अवकाश होता है.

बिहार का ऐतिहासिक योगदान

वैसे तो आपको कई राजनैतिक रुझान वाले लोग आजकल ये कहते मिल जायेंगे कि इतिहास में झांकने का क्या फायदा, क्योंकि औरंगजेब पर जैसी चर्चाएं हो रही हैं वो उन्हें रास नहीं आ रही, लेकिन उनके नेताओं को देखेंगे तो वो बिहार के इतिहास से उतने कटे नहीं रहे. बिहार का मुख्यमंत्री बनते ही नब्बे के दशक में जब लालू यादव से किंग और किंग-मेकर के बारे में पूछा गया था, तो अपने पहले ही प्रेस कांफ्रेंस में लालू यादव ने कहा था कि जबतक वो चन्द्रगुप्त बने रहते हैं, तबतक चाणक्य कौन बन रहा है, उससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता. आज भले ही राजद वाले कह लें कि इतिहास को भूल जाना चाहिए, लेकिन उन्हें भी जरूरत पड़ते ही बिहार के इतिहास से चाणक्य, चन्द्रगुप्त, अशोक, सब याद आने लगते हैं. ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि भारत के इतिहास का जो स्वर्णिम वाला हिस्सा है, वो मगध यानी आज के बिहार का ही इतिहास है.

जो राष्ट्रीय चिह्न में तीन शेर दिखते हैं, वो बिहार के अशोक स्तम्भ से आते हैं, जो झंडे पर चक्र दिखता है, वो भी अशोक के स्तंभों का ही धर्म-चक्र है. इतना ही नहीं जब भारत स्वतंत्र हुआ तो देश के पहले नागरिक (यानी राष्ट्रपति) भी बिहार के ही डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे. साहित्य की बात करें तो केवल रामधारी सिंह ‘दिनकर’ स्वयं ही बिहार के नहीं थे, उन्होंने अपनी “रश्मिरथी” में अपने जिस राजा की प्रशस्ति गाई है, वो राजा कर्ण भी बिहार के ही अंग प्रदेश के थे. पुराने दौर में बाणभट्ट जैसे कवि बिहार में हुए, बीच के दौर में विद्यापति रहे और हाल के दौर तक रामवृक्ष बेनीपुरी से लेकर फनीश्वरनाथ रेणु तक बिहार में रहे हैं. हां ये अवश्य हुआ है कि “तीसरी कसम” के बाद के दौर में रुपहले पर्दे पर बिहार की कहानियाँ दिखी नहीं. साहित्य में समृद्ध होने का एक कारण बिहार के पास ये भी है कि मॉरिशस जैसे देशों में प्रचलित भोजपुरी तो बिहार में हर्षवर्धन के काल से रही ही, साथ ही यहां अंगिका, बज्जिका, मगही, सुरजापुरी, संथाल जैसी भाषाओं के अलावा मैथिली का भी समृद्ध इतिहास रहा है.

बिहार है धर्म के मामले में अनूठा

धर्म के इतिहास के को देखा जाए, तो एक और अनूठी बात बिहार के बारे में दिख जाती है. सेमेंटिक मजहबों की उद्गम स्थली लगभग एक जेरुशेलम ही है. ईसाई, यहूदी और इस्लाम तीनों मजहबों के लिए जेरुशेलम एक महत्वपूर्ण तीर्थ हो जाता है. बिलकुल वैसे ही बौद्ध, जैन और सिक्ख, तीनों के लिए बिहार का महत्व है. हिन्दुओं के लिए सनातन धर्म का एक उद्गम स्थल या जहा आकर धर्मगुरुओं के जीवन में बड़ा परिवर्तन आया, ऐसा गिनवाना तो कठिन है, लेकिन गया का श्राद्ध के लिए, सीतामढ़ी का माता सीता के जन्म के लिए, सबसे प्राचीन मंदिर – माता मुंडेश्वरी आदि को जोड़कर हिन्दुओं के लिए भी इसका महत्व कम नहीं. ऐसे में कहा जा सकता है कि जैसे पश्चिम में मजहब-रिलिजन के उदय के लिए जेरुशेलम का महत्व है, वैसा ही महत्व पूर्व के धार्मिक इतिहास में बिहार का है.

बिहार की समस्याएं

स्वतंत्रता के समय से ही नीतियों के मामले में बिहार के साथ न्याय नहीं हुआ. इनमें सबसे विद्वेष भरा था “फ्रेट इक्वलाइजेशन पालिसी” जिसके कारण खनिज और कोयला तो बिहार से उसी कीमत पर जाता रहा जिस कीमत पर यहाँ उपलब्ध था, लेकिन कोई भी फैक्ट्री, कोई उद्योग बिहार नहीं आये. जब कच्चा माल कहीं भी एक ही कीमत पर मिलेगा तो भला कोई कच्चे माल की उपलब्धता वाली जगह पर फैक्ट्री क्यों लगाएगा? इसके बाद जो निजी और सरकारी दोनों किस्म के निवेश का अभाव रहा, उसे बिहार अभी भी झेल रहा है जबकि नब्बे के दशक में ये नीति बदल दी गयी. इसके बाद बारी आई “हरित क्रांति” की जो दिल्ली दरबार के पास वाले पंजाब में तो आई मगर बिहार के कृषि प्रधान राज्य होने पर भी उसे ये कहकर दरकिनार कर दिया गया कि बिहार में भूमि सुधार लागू नहीं हुए हैं. उद्योगों को लगाने-चलाने के लिए पूँजी की भी आवश्यकता होती है और बिहार की बैंकिंग व्यवस्था के डिपाजिट-क्रेडिट रेश्यो ने पूँजी की उपलब्धता पर उल्टा असर डाला.

बाढ़ और सुखाड़

आज के बिहार को गंगा नदी करीब करीब बीच से काटती है. इन दो हिस्सों में से उत्तरी हिस्सा बाढ़ से पीड़ित रहता है और दक्षिणी हिस्सा सुखाड़ से. इन दोनों के अलावा भूकंप, आग लगने, या बिजली गिरने जैसी जो भी आपदाएं होती हैं, लगभग सभी बिहार में आती हैं. नेपाल में बांध बनवाने की बातें आजादी के समय से चल रही हैं, लेकिन दशकों की चर्चा के बाद भी कभी बाँध बनेंगे इसकी संभावना नहीं दिखती. जमीनी स्तर पर देखा जाए तो जो तटबंध बने हैं, उनका उल्टा असर हुआ है. जैसे-जैसे तटबंधों की लम्बाई बढ़ी है, वैसे-वैसे बाढ़ की विभीषिका भी बढ़ती रही है. परंपरागत रूप से ऐसे अवसरों के लिए जो सुखाई गयी सब्जियाँ आदि घर-घर बनाई जाती थीं उसके बदले सरकारी राहत पर निर्भरता भी बढ़ी है. परंपरागत ज्ञान को ही दक्षिणी बिहार की ओर ले जाएँ तो वहाँ पानी बचाने के लिए अहर-पाइन व्यवस्था थी. इनके जरिये बरसात के मौसम में पानी छोटे तालाबों में जमा किया जाता और आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग किया जाता.

हाल के वर्षों में मुख्यमंत्री की विशेष योजनाओं में तालाब, कुंए और नहर आदि को पुनःजीवित करने पर ध्यान दिया गया है वरना ये समाप्त हो रहे हैं. पटना शहर के अन्दर से तालाब लगभग लुप्त हो गए हैं और उनकी जगह अपार्टमेंट्स ने ले ली है. दरभंगा जिसे कभी तालाबों का शहर कहा जा सकता था, वहां भी भू-माफिया ने यही हाल किया है. इसका प्रभाव ये भी हुआ कि मछलियों की स्थानीय प्रजातियां लुप्त हो चली हैं और उनकी जगह कार्प, अमेरिकन मांगुर और कतला आदि लेते जा रहे हैं. पर्यावरण के चक्र पर इसका असर होना तय है.

कुल मिलाकर देखें तो सरकारी नीतियों के साथ-साथ प्रकृति की दोहरी मार बिहार झेल रहा है. इसके बीच भी बिहार की बेहतरी की उम्मीद में बिहार दिवस पर “पाटलिपुत्र संवाद” जैसे कई कार्यक्रम युवा करते रहे हैं. बदलावों की उम्मीद राज्य में इसलिए भी दिखाई देती है क्योंकि आज बिहार की आबादी का करीब 40 फीसदी युवाओं का है. उम्मीद की जाए कि बातें शुरू हुई हैं तो बदलाव भी आयेंगे.

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