बीजेपी के दोनों हाथों में लड्डू, दांव पर सिंधिया और कमलनाथ की साख

आम तौर पर किसी भी राज्य में हो रहे विधानसभा उपचुनावों पर पूरे देश की नजर नहीं टिकी होती है, जितना इस इस बार मध्य प्रदेश में हुए उपचुनाव पर है. 3 नवंबर को राज्य में 28 सीटों पर मतदान हुआ. परिणाम 10 नवंबर को आएगा और तब तक तीन नेताओं की नींद गायब रहेगी. ये तीन नेता है प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ (Kamal Nath) और ज्योतिरादित्य सिंधिया  नवंबर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में 230 सदस्यों वाली विधानसभा में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था.

प्रदेश में बीजेपी की 15 सालों से सरकार चल रही थी. पर आशा के विपरीत बीजेपी बहुमत से 9 सीटें कम जीत पाई. कांग्रेस पार्टी को 114 सीटों पर जीत मिली जिसका कारण था युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया की अथक मेहनत. कांग्रेस पार्टी को 4 निर्दलीय, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी, जिसके 2 और 1 विधायक चुने गए थे का समर्थन मिला. पर जब सरकार बनाने की बात आई तो सिंधिया की जगह कांग्रेस आलाकमान ने कमलनाथ के नाम पर मुहर लगा दी. निकटवर्ती राज्य राजस्थान में भी ऐसा ही कुछ हुआ था.

बीजेपी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’

कांग्रेस पार्टी को वहां पूर्ण बहुमत मिला, जिसका श्रेय प्रदेश कांग्रेस के युवा अध्यक्ष सचिन पायलट को दिया गया, पर जब सरकार बनाने की बारी आई, वहां भी वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पार्टी आलाकमान ने चुना. यह वह समय था जबकि बीजेपी अपने मिशन ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ पर काम कर रही थी. एक एक करके कांग्रेस पार्टी की राज्य चुनावों में या तो हार हो रही थी या फिर उनकी सरकार गिर रही थी और बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बन रही थी. चूंकि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वर्षों से बीजेपी की सरकार थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू सिर पर चढ़ कर बोल रहा था, उम्मीद यही की जा रही थी कि तीनों राज्यों में बीजेपी की ही जीत होगी. पर पासा उल्टा पड़ गया. जहां राजस्थान और छतीसगढ़ में कांगेस पार्टी तो बहुमत मिला, मध्य प्रदेश में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी.

कांग्रेस आलाकमान का वरिष्ठ नेताओं को युवा शक्ति के ऊपर तवज्जो देना समझ से परे था. पार्टी आलाकमान को यही लगा कि राजस्थान की तरह जहां सचिन पायलट को उप-उख्यमंत्री पद दे कर मना लिया गया था, मध्य प्रदेश में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को मना लिया जाएगा. सिंधिया ने कहा तो कुछ नहीं पर कमलनाथ सरकार में शामिल होने से मना कर दिया. 16 महीनों तक कमलनाथ सरकार चली. कमलनाथ ने सिंधिया को नजरअंदाज करना ही बेहतर समझा.

सिंधिया ने बदल लिया पाला

सिंधिया लोकसभा चुनाव हार चुके थे और राज्यसभा में जाना चाहते थे जो कमलनाथ और पार्टी आलाकमान को यह मंजूर नहीं था. और फिर वही हुआ जिसकी कांग्रेस पार्टी ने कल्पना भी नहीं की थी. मार्च 2020 में सिंधिया ने बगावत कर दी. 22 विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए. शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बन गई. धीरे-धीरे बागी विधायकों की संख्या बढती चली गई. दल-बदल कानून के तहत सभी बागी विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया, जिसके कारण उपचुनाव कराने की जरूरत पड़ी.

बगावत के बाद कांग्रेस पार्टी की संख्या विधानसभा में घटकर 88 पर पहुंच गई और पार्टी के सामने अब सभी 28 सीटों को जीतने की चुनौती है. अगर ऐसा हुआ तब ही कमलनाथ की मुख्यमंत्री के रूप में वापसी हो सकती है. पर जीत सभी 28 सीटों पर, जबकि ये सीटें ग्वालियर और चंबल क्षेत्रों से हैं, जहां सिंधिया परिवार का दबदबा माना जाता है, कांग्रेस पार्टी के लिए आसान नहीं होगा.
ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी के खाते से राज्यसभा सदस्य बन चुके हैं और उम्मीद यही की जा रही है कि शीघ्र ही उन्हें मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी बनाया जाएगा. पर सिंधिया के सामने भी चुनौती कम नहीं है. सभी 28 सीटों पर बीजेपी की जीत असंभव नहीं तो कठिन जरूर है. यानी कहीं ना कहीं सिंधिया और पूरे ग्वालियर राज परिवार की साख दांव पर लगी है.

कमलनाथ और सिंधिया की दांव पर प्रतिष्ठा 

कांग्रेस के अंतरकलह का ना सिर्फ बीजेपी को फायदा हुआ, बल्कि शिवराज सिंह चौहान की एक तरह से लाटरी निकल आई. वैसे भी उपचुनावों में सत्ता पक्ष का पलड़ा भारी होता है, और तब जबकि बागियों में से कई चौहान सरकार में मंत्री पद पर आसीन हैं. जनता आमतौर पर यही चाहती है कि उनका प्रतिनिधि मंत्री बने ताकि उनका काम हो सके. अगर कोई चमत्कार नहीं हुआ तो बीजेपी आराम से कम से कम 9 सीटें तो जीत ही लेगी. यानी बीजेपी और शिवराज सिंह चौहान के दोनों हाथों में लड्डू है और प्रतिष्ठा कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की दांव पर हैं. पर अगर हार किसी की होगी तो वह है कांग्रेस पार्टी और पार्टी आलाकमान की और युवा के ऊपर बुजुर्ग नेताओं को प्राथमिकता देने की नीति की.

 

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