अब पॉपकॉर्न खाते हुए तमाशा देखें, कांटे की टक्कर दे रहे हैं अखिलेश यादव, रोमांचक होंगे यूपी के विधानसभा चुनाव
बीएसपी और कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं किया है. बीएसपी पहले ही चुनाव में अकेले उतरने का ऐलान कर चुकी है और पार्टी प्रमुख मायावती करीब 300 उम्मीदवारों को टिकट भी बांट चुकी हैं. इसी तरह कांग्रेस भी विधानसभा चुनाव में अकेले ही मैदान में उतरेगी.
भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission) ने 8 जनवरी को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में विधानसभा चुनावों (Assembly Elections) का ऐलान कर दिया, जो 10 फरवरी से 7 मार्च तक सात फेज में होंगे. वहीं, वोटों की गिनती 10 मार्च को होगी और नतीजों का ऐलान किया जाएगा. पहv ले चरण का मतदान 10 फरवरी को, दूसरे चरण का 14 फरवरी को, तीसरे चरण का 20 फरवरी को, चौथे चरण का 23 फरवरी को, पांचवें चरण का 27 फरवरी को, छठे चरण का मतदान 3 मार्च को और सातवें चरण का मतदान 7 मार्च को होगा. कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए चुनाव आयोग ने कार या साइकिल या बाइक रैलियों समेत सभी रोड शो और जुलूस पर 15 जनवरी तक प्रतिबंध लगा दिया है. हालांकि, चुनाव आयोग ने यह भी कहा है कि बाद में इस फैसले की समीक्षा की जाएगी.
सत्तारूढ़ बीजेपी (BJP) और मुख्य प्रतिद्वंद्वी एसपी दोनों ने एक-दूसरे का मुकाबला करने के लिए छोटे-छोटे दलों से जाति आधारित गठबंधन किया है. आखिरकार उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों (Uttar Pradesh Assembly Election) की शाही जंग के लिए मंच तैयार हो चुका है. चुनावी मैदान में मुख्य रूप से चार प्रमुख राजनीतिक दल सत्तारूढ़ बीजेपी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस हैं, लेकिन मौजूदा हालात से यह संकेत मिल रहा है कि इस चुनावी जंग में काफी हद तक मुकाबला बीजेपी और एसपी के बीच होने जा रहा है.
चुनाव प्रचार के दौरान भले ही विकास और कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र किया जा रहा है, लेकिन चुनावी जंग में मुख्य रूप से जातिगत समीकरण का जोड़-तोड़ चल रहा है. दोनों मुख्य दावेदारों बीजेपी और एसपी ने छोटे-छोटे राजनीतिक दलों से गठबंधन किया है, जो जातिगत समीकरण साधने की कोशिश मानी जा रही है.
बीजेपी ने जाति आधारित इन दलों से किया गठबंधन
बीजेपी ने जाति-आधारित गठबंधन के माध्यम से राज्य में अपना आधार बरकरार रखने के लिए काफी तैयारी की है. भगवा ब्रिगेड पहले ही केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाले कुर्मियों के अपना दल और डॉ. संजय निषाद की निषाद पार्टी के साथ गठबंधन कर चुकी है. बीजेपी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में सात और छोटे-छोटे राजनीतिक दलों से गठबंधन किया, जो कि जाति आधारित है. इनमें भारतीय मानव समाज पार्टी, मुशर आंदोलन मंच, शोषित समाज पार्टी, भारतीय सुहेलदेव जनता पार्टी, जन शक्ति पार्टी और समता समाज पार्टी शामिल हैं.
इन दलों के नेताओं ने पिछले महीने बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह को अपना समर्थन पत्र सौंपा था. वहीं, बीजेपी इन इलाकों में अपना समर्थन बनाए रखने के लिए जाति आधारित सम्मेलन लगातार आयोजित करती रही है. प्रतिद्वंद्वी एसपी भी लगातार जाति-आधारित गठबंधन कर रही है तो बीजेपी भी राज्य के अति पिछड़े वर्गों तक पहुंच बनाकर डैमेज कंट्रोल में जुट गई है.
एसपी ने भी निकाला जाति का गणित
एसपी ने ओपी राजभर के नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP), ओंकार चौहान की जनवादी पार्टी और पूर्वी यूपी में कृष्णा पटेल के नेतृत्व वाली अपना दल (के) तो पश्चिम यूपी में राष्ट्रीय लोक दल (RLD) और महान दल के साथ गठबंधन किया है. एसपी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी के लिए लगभग 36 सीटें छोड़ सकती है. दरअसल, इस गठबंधन को अपनी खोई हुई जमीन हासिल करने के लिए जाट-मुस्लिम कॉम्बिनेशन पर भरोसा है. मध्य और बुंदेलखंड क्षेत्र में एसपी अकेले चुनाव लड़ेगी, लेकिन मंडल दल और जनवादी पार्टी के प्रत्याशी एसपी के चुनाव चिह्न पर मैदान में उतर सकते हैं. वहीं, शिवपाल यादव और अखिलेश यादव अपने मतभेदों भुलाकर यादव परिवार में पांच साल से चली आ रही दरार खत्म करके संयुक्त मोर्चा बनाने के तैयार हैं. हालांकि, अखिलेश यादव को शिवपाल समर्थकों के लिए कुछ सीटें छोड़नी होंगी.
अकेले चुनाव लड़ेंगे बीएसपी और कांग्रेस
बीएसपी और कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं किया है. बीएसपी पहले ही चुनाव में अकेले उतरने का ऐलान कर चुकी है और पार्टी प्रमुख मायावती करीब 300 उम्मीदवारों को टिकट भी बांट चुकी हैं. इसी तरह कांग्रेस भी विधानसभा चुनाव में अकेले ही मैदान में उतरेगी. पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में एसपी के साथ गठबंधन किया था, लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा सामने नहीं आया. इन राजनीतिक दलों से इतर हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली AIMIM और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी भी चुनावी मैदान में अपना दमखम दिखाने का प्रयास कर रही है.
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 403 में से 312 सीटों पर जीत हासिल करके विपक्षी दलों को करारी मात दी थी. उस दौरान एसपी 49 सीटें, बीएसपी 19 सीटें, कांग्रेस सात सीटें जीत पाई थी, जबकि बाकी सीटें अन्य राजनीतिक दलों की झोली में गई थीं.
यूपी में, एसपी ने बीजेपी को मजबूर कर दिया कि वह मोदी और राम को रोटी से आगे रखें
आज उत्तर प्रदेश में मुकाबला 50-50 का है. कोई नहीं जानता कि किसका पलड़ा भारी रहेगा. कई वजहों के चलते योगी आदित्यनाथ सरकार से नाराजगी है. कोरोना की दूसरी लहर के दौरान बिगड़े हालात भी इसमें शामिल हैं. आज भी हम यह नहीं जानते कि राज्य के ग्रामीण इलाकों में कितने लोगों ने अपनी जान गंवा दी. जिन लोगों ने अपनों को खो दिया या जो लोग प्रभावित परिवारों के आएसपीस रहते हैं, वे इसे आसानी से भुला नहीं पाएंगे. राज्य में आर्थिक तंगी बढ़ रही है. महंगाई में लगातार इजाफा हो रहा है. रोजी-रोटी का भी नुकसान हो रहा है. ओमिक्रोन वेरिएंट के असर को लेकर भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी, लेकिन अनुमान है कि राज्य में विधानसभा चुनावों के दौरान यह चरम पर पहुंच सकता है.
मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी सरकार की उपलब्धियों को दिखाने की हरसंभव कोशिश की है. मीडिया में पूरे पन्ने के विज्ञापनों की बाढ़-सी आ गई है, लेकिन आम लोगों की जिंदगी की कठिनाइयां साफ नजर आती हैं. चुनाव के औपचारिक ऐलान से काफी पहले ही प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश में अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था. कई महीने पहले शुरू हुए इस शो से बीजेपी के जागरूक होने का पता चलता है और वह डैमेज कंट्रोल में जुट गई है. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में होने वाले विधानसभा चुनावों में मोदी ही मुद्दा बनते जा रहे हैं.
बीजेपी की पैनी नजर यूपी पर है
पंजाब में किसानों के विरोध के चलते एक फ्लाईओवर पर पीएम मोदी के 20 मिनट तक फंसने का मसला जाहिर तौर पर राज्य सरकार की चूक है, लेकिन चुनावी माहौल के केंद्र में इस मसले के माध्यम से मोदी को मुद्दा बनाने में बीजेपी ने जल्दबाजी कर दी है. बीजेपी की नजर पंजाब पर नहीं है, क्योंकि मौजूदा चुनावी दौर में उसका असर काफी कम है. सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही ‘पीएम-अंडर-अटैक’ और ‘प्रधानमंत्री की सुरक्षा’ जैसे मसलों का असर सबसे ज्यादा पड़ने का अनुमान है.
रोजी-रोटी के मसलों से दूरी बनाने के मकसद से बीजेपी मतदाताओं के ध्रुवीकरण का पुराना और आजमाया हुआ तरीका ही अपनाना चाहेगी. इसके माध्यम से हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और पीएम की सुरक्षा को पेश किया जाएगा. अगर एक भी चीज बीजेपी के पक्ष में जाती है तो उत्तर प्रदेश में हिंदुओं का हिंदूकरण होना तय है. यूपी के ब्राह्मण सत्ताधारी दल से नाखुश हो सकते हैं, क्योंकि उनका आरोप है कि राजपूत जाति से ताल्लुक रखने वाले योगी आदित्यनाथ ने ‘ठाकुर राज’ कायम किया. हालांकि, बीजेपी के हिंदू आधार को देखते हुए क्या ब्राह्मण भगवा पार्टी से दूरी बना लेंगे? यह तो समय आने पर ही पता लगेगा. अखिलेश यादव इस समुदाय को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. 2017 में पार्टी के सबसे पुराने समर्थक बनिया समाज 2016 में हुई नोटबंदी के चलते मोदी सरकार से बेहद नाराज था, लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने बीजेपी का ही साथ दिया था.
अखिलेश की सभाओं में भारी भीड़ जुट रही है
निस्संदेह, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव अपनी राजनीतिक सभाओं में भारी भीड़ जुटा रहे हैं. उनकी रैलियों में मौजूद लोगों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है, लेकिन लोगों में काफी उत्साह जरूर देखा गया. अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी के नेतृत्व वाली आरएलडी और छोटे-छोटे दलों से जाति आधारित गठबंधन किए हैं, जिससे उन्हें विपक्षी गठबंधन के खिलाफ जाटों और ओबीसी के वोटों को जुटाने में मदद मिलेगी. उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में किसानों की नाराजगी का सबसे ज्यादा फायदा जयंत चौधरी को मिलने की उम्मीद है, जिसके अंतर्गत कम से कम 100 सीटें आती हैं. इस क्षेत्र में जाटों के अलावा गुर्जर भी नाराज हैं, क्योंकि सरकार में उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. वहीं, लखीमपुरी खीरी में किसानों पर गाड़ी चढ़ाने के मामले को लेकर सिख भी खुश नहीं हैं.
यह चुनाव का ‘अंतिम पड़ाव’ है, जो विपक्षी गठबंधन के लिए चुनौती साबित हो सकता है. यहां बीजेपी के पास बढ़त है, क्योंकि उसके पास विशाल चुनावी मशीनरी है. उसके पास वे तमाम रिसोर्स हैं, जिनकी जरूरत होती है. इनमें लोगों को वोट देने के लिए बूथ तक लाने के लिए पर्याप्त संसाधन भी शामिल हैं. इसके पास ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ भी है, जिसे उसने ही स्थापित किया है. वहीं, डिजिटल मीडिया पर पकड़ भी है, जिसमें बीजेपी विपक्षी दलों से ज्यादा जानकार हैं. कांग्रेस इस पर पकड़ बना रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश में बीजेपी की मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी इस मामले में पिछड़ी हुई है. यह अपने संदेश को दिन-प्रतिदिन लोगों तक पहुंचने में सबसे बेहतर तरीका होगा.
विधानसभा चुनावों में अब सोशल मीडिया की अहमियत अब और ज्यादा बढ़ जाएगी, क्योंकि निर्वाचन आयोग ने रैलियों, रोड शो और नुक्कड़ सभाओं पर भी प्रतिबंध लगा दिया है. उम्मीदवारों को घर-घर जाकर प्रचार करना होगा. पार्टियों को वर्चुअल मीटिंग से अपना भरोसा कायम करना होगा, जिससे लोग समय पर अपना मन बना सकें. ओमिक्रॉन के साए में होने वाले चुनावों में निर्वाचन आयोग के निर्देशों के बीच संसाधन, संगठनात्मक मशीनरी और डिजिटल प्लेटफॉर्म फर्क बना सकते हैं.
उत्तर प्रदेश में अब मामला 50-50 का लग रहा है
उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ गुस्सा सिर्फ टीवी तक ही सीमित रहेगा. जमीन पर वह मजबूत स्थिति में है. पिछले कुछ दशकों से उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल ने लगातार दो चुनाव नहीं जीते हैं. सवाल यह है कि क्या योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी इस ट्रेंड को बदल पाएगी? ऐसा लगता है कि विभिन्न मुद्दों पर तैयार रिपोर्ट के आधार पर बनी धारणा लोगों के विचार से उलट है. हालांकि, जब लोग वोट डालने जाते हैं, तब यह सब ज्यादा मायने नहीं रखता. नाराजगी को हमेशा ज्यादा कवरेज मिलता है. यह खबरों का तरीका है. प्राइम टाइम में अधिकांश टीवी न्यूज एंकर चीखते-चिल्लाते देखे जाते हैं, लेकिन किसी राजनीतिक दल या नेता के खिलाफ उनके गुस्से का चुनाव के नतीजों पर असर नहीं पड़ता है.
2019 में बड़े बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी सरकार की सत्ता में वापसी और बिहार में बीजेपी की बढ़त से यह बात स्पष्ट हो चुकी है. माना जाता है कि उस समय पार्टी और उसके नेताओं की लोकप्रियता के कई कारण काम करते हैं, बल्कि हर चुनाव कई वजहों से प्रभावित होता है. उत्तर प्रदेश में एक साल से अधिक समय तक सबसे प्रमुख खबर किसानों का आंदोलन और उनका गुस्सा रही. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले राकेश टिकैत इसके सबसे प्रमुख नेता के रूप में उभरे. कई लोगों का तर्क यह है कि बीजेपी के प्रति किसानों का गुस्सा कम नहीं हुआ है और वे भगवा पार्टी की हार तय करेंगे और योगी आदित्यनाथ सरकार को सत्ता से हटा देंगे.
बीजेपी कम सीटों के साथ सत्ता में वापसी करेगी?
दूसरे अहम मसलों की बात करें तो योगी आदित्यनाथ सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा मुद्दा कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान हुई बदइंतजामी है. हजारों लोगों की मौत, गंगा नदी में तैरती लाशें, आंशिक रूप से जले हुए शवों को सामूहिक रूप से दफनाने को राज्य सरकार के खिलाफ गुस्से का बड़ा कारण बताया गया है. लगभग हर परिवार ने किसी न किसी को खो दिया और जब वे वोट देने जाएंगे तो इसे नहीं भूलेंगे. इसी तर्क के माध्यम से बीजेपी की हार की भविष्यवाणी की जा रही है.
इसके अलावा भी कई मसले हैं, जिनमें बढ़ती बेरोजगारी, घटती आय, कीमतों में इजाफा, आवारा पशुओं द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाना, ब्राह्मणों का अलगाव, दलितों का बीजेपी से दूर जाना आदि शामिल हैं, जो बीजेपी के लिए नुकसानदायक साबित हो सकते हैं. मसला यह है कि क्या इन सभी को कई वजहों के रूप में समझा जाए या सिर्फ नाराजगी माना जाए? और क्या ये सभी मसले बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए पर्याप्त हैं?
कुछ दिन पहले आई एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, बीजेपी सत्ता में वापसी कर सकती है. हालांकि, उसकी सीटें कम होने का अनुमान जताया गया है. सीटों की संख्या में कमी समझ में आती है. पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में तीन-चौथाई सीटों पर जीत हासिल की थी और उस प्रदर्शन को दोहराने की उम्मीद काफी कम है. आगामी चुनाव में उसे 230-249 सीटें मिलने की उम्मीद है. सर्वे में कहा गया है कि अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी को भले ही योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली बीजेपी के लिए प्रमुख प्रतिद्वंदी माना जा रहा है, लेकिन वह 137-152 सीटों तक ही जीत पाएगी. एक नेता के रूप में भी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद के पसंदीदा उम्मीदवार थे और 52 प्रतिशत लोगों ने उनका समर्थन किया. जबकि अखिलेश यादव को 32 फीसदी लोगों का साथ मिला.
विपक्ष का बिखराव बीजेपी को मजबूत करेगा
सर्वे के अलावा भी आदित्यनाथ के सत्ता में लौटने और इस प्रवृत्ति को तोड़ने के कई कारण हैं. बीजेपी ने कई छोटे दलों के साथ गठबंधन किया है, जो विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और आगामी चुनावों से पहले राज्य की सत्तारूढ़ बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के लिए अपने समुदायों के अधिक प्रतिनिधित्व के लिए एक साथ आए हैं. ये राजनीतिक दल विभिन्न ओबीसी समूहों से ताल्लुक रखते हैं, जिनमें बिंद, गड़रिया, कुम्हार, धीवर, कश्यप और राजभर शामिल हैं. ये सात राजनीतिक दल भारतीय मानव समाज पार्टी, शोषित समाज पार्टी, भारतीय सुहेलदेव जनता पार्टी, भारतीय समता समाज पार्टी, मानवहित पार्टी, पृथ्वीराज जनशक्ति पार्टी, और मुसहर आंदोलन मंच या गरीब पार्टी हैं, जो ‘हिस्सेदारी मोर्चा’ बनाने के लिए एक साथ आए हैं.
ये समूह बीजेपी के वोट बेस को और मजबूत करेंगे. वहीं, विपक्ष बिखर गया है, जिसके चलते बीजेपी विरोधी वोट बंट जाएंगे. नाराज जाट और मुस्लिम एसपी-आरएलडी के साथ, दलित मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ और नाराज ब्राह्मण और अन्य समूह कांग्रेस के साथ चले जाएंगे. प्रियंका वाड्रा कांग्रेस को जितना मजबूत करेंगी, बीजेपी के लिए उतना ही अच्छा होगा.
आक्रोश या क्रोध के कारण भी काफी ज्यादा हैं. हिंदू वोट बीजेपी के अलावा कहीं नहीं जा रहा है. अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण ने कई हिंदुत्व दिलों को शांत किया है, भले ही इसके नाम पर घोटाले भी जुड़े हैं. कई लोग कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुई मौतों के लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराते हैं. उनका मानना है कि सरकार ने तो वायरस को खुला नहीं छोड़ दिया था. एक संवाददाता ने याद करते हुए बताया था कि एक व्यक्ति ने कोरोना महामारी की वजह से अपने परिवार के कई सदस्यों को खो दिया. उसका कहना था कि सरकार ने लोगों को मास्क पहनने, सामाजिक दूरी बनाने और अन्य सावधानी बरतने के लिए कहा था. अगर लोगों ने सलाह नहीं मानी तो इसमें सरकार की कोई गलती नहीं है. नाराजगी के फैक्टर के अलावा क्या विपक्ष के पाले में कुछ और है?
(नीरजा चौधरी दिल्ली की प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक हैं और राजेश सिन्हा ने तीन दशकों से अधिक समय तक राजनीति पर रिपोर्टिंग की है.)