आम का पेड़ भले एक बार फल देने से इनकार कर दे, लेकिन कोखदार औरत के पास इससे बचने का रास्ता नहीं है

प्राचीन रोम में फरवरी का महीना बड़ा खास हुआ करता। सर्दियों की कच्ची धूप में सिंकते हुए लोग त्योहार की बाट जोहते। लुपरकेलिया नाम के इस फेस्टिवल को रोमवासी फेब्रुआ भी कहते- यानी शुद्धिकरण का पर्व। फरवरी की 15 तारीख को उन औरतों का शुद्धिकरण होता, जो मां नहीं बन पा रही हों या फिर जो अपने मक्खन से रपटीले चरित्र के कारण पति-बच्चों में दिल न लगा पा रही हों।

प्रेग्नेंट भेड़ों को काटकर उनके खून से ऐसी स्त्रियों के सिर की मालिश होती, ताकि खोपड़ी के छेदों से होते हुए ममता के हॉर्मोन्स घुसें और दिमाग को ठीक-ठिकाने लगा दें।

रोमवासी मानते थे कि संतान देना औरत के लिए उतना ही जरूरी है, जितना कि बहादुर मर्दों के लिए युद्ध पर जाना, या फिर ढीली भुजाओं वालों के लिए परचून की दुकान खोलना। आम का पेड़ एकबारगी आम देने से इनकार कर दे, लेकिन कोखदार स्त्री के पास बचने का कोई रास्ता नहीं।

एक बार मां बन चुकी औरत से मौसमी फल की तरह हर सीजन बच्चे पैदा करने की उम्मीद की जाती। ये सिलसिला कब्र तक चलता। यही कारण है कि ईसा पूर्व पांचवीं सदी में भी भरपूर जवान और सेहतमंद औरतें मां बनने से कतराने लगी थीं। इसका जिक्र ग्रीक फिजिशियन और दार्शनिक हिपोक्रेटिस की किताब ‘हिपोक्रेटिस ओथ’ में मिलता है।

ये डॉक्टर औरतों की ना-नुकुर की आदत पर गुस्से में कहता है कि बर्तन (औरत) अगर अपने इस्तेमाल (कोख) पर आनाकानी करे तो उससे जबर्दस्ती में कोई हर्ज नहीं। तो जबर्दस्तियां चलीं और चलती ही चली गईं।

कभी गुस्से, तो कभी प्यार से औरत को यकीन दिलाया गया कि किसी कंपनी की CEO नहीं, मंत्री-कुमंत्री भी नहीं, यहां तक कि मोक्ष-परलोक भी नहीं, सिर्फ और सिर्फ मां बनना ही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। औलाद दो और घर पर राज करो। बाहर की बेरहम दुनिया से हम निपट लेंगे।

‘भली औरत के लिए सबक’ की इस कड़ी में देश का सबसे बड़ा सरकारी बैंक SBI भी शामिल हो गया। कुछ ही रोज पहले नए भर्ती नियम लाते हुए उसने प्रेग्नेंट महिलाओं को ‘टेंपरेरी अनफिट’ बता दिया। दरअसल 31 दिसंबर को बैंक ने नई मेडिकल गाइडलाइन जारी की, जिसमें लिखा था कि 3 महीने से अधिक गर्भवती महिलाओं को काम पर आने की इजाजत नहीं होगी, जब तक कि बच्चे के जन्म को 4 महीने नहीं हो जाते।

नई गाइडलाइन पर खूब गुलगपाड़ा हुआ और फिर, जैसा कि दस्तूर है, बैंक ने टेंपररी अनफिट शब्द पर माफी मांगते हुए नियम वापस ले लिया।

सर्कुलर लौटा तो, लेकिन जाते-जाते मॉडर्न सोच की वॉशिंगटन जैसी चौड़ी दिखती स्ट्रीट को बरेली की पतली गली में बदलकर चला गया। वो गली, जिसकी ओट में शोहदे पत्ते खेलते हैं और थके कुत्ते सुस्ताते हैं। जेनपेक्ट सेंटर फॉर वुमन्स लीडरशिप की साल 2018 की स्टडी के मुताबिक, 30 साल की उम्र तक की करीब 50 फीसदी महिलाएं मां बनने के बाद नौकरी छोड़ देती हैं।

काम पर वापस लौटने वाली महिलाओं में से 48 प्रतिशत जॉइनिंग के चार महीने के भीतर ही काम छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं।

वजह समझने के लिए स्टडी में कई सवाल हुए, जिनके जवाब कमोबेश एक-से थे। मांओं का कहना था कि घर, बच्चा और नौकरी तीनों अकेले संभालना मुश्किल हो जाता है। ज्यादातर ने ये भी कहा कि मां बनने के बाद कंपनी का नजरिया उन्हें लेकर रातोंरात बदल गया। कल तक जो युवती दफ्तर के नजले से लेकर दिमागी बुखार तक का अकेला इलाज थी, वही अब सुस्त और ढीली कहलाने लगी।

उन्हें काबिलियत से हल्का काम थमाया जाने लगा। रेशमी जुराबों की जगह तुम अब जमालगोटा बेचो। कोई जल्दी नहीं, आराम से- क्योंकि प्रमोशन तो तुम्हें मिलने से रहा।

इसे मदरहुड पेनल्टी कहते हैं। देसी ढंग से समझें तो मां बनने की सजा। बच्चे पैदा करने के बाद जब आप घर पर गुनगुना अजवाइन पानी पी रही थीं, तब मर्द कड़क कॉफी गले में उड़ेलते हुए फाइलें निपटा रहे थे। जब आप 6 महीने की छुट्टी मना रही थीं, बेचारे पुरुष सहकर्मी आपके हिस्से का काम भी कर रहे थे। जब आप बच्चे के नए दांत में मगन थीं, बाकी लोग बॉस की बासी डांट खा रहे थे।

 

बेचारापन अच्छा-खासा चल निकला था कि तभी आपने काम पर वापस लौटने का ऐलान कर दिया। साथ में तरक्की भी मांगने लगीं! अजी, तौबा कीजिए मोहतरमा! कुर्बानी मर्द देते हैं और प्रमोशन को आप रोती-पीटती हैं। मां बन गईं, यही क्या कम प्रमोशन है!

कंसल्टिंग फर्म अवतार (AVTAR) दफ्तरों में समान अवसर पर काम कर रही है। साल 2020 में उसकी एक स्टडी बताती है कि मां बनने के बाद अव्वल तो औरतें काम पर लौटती ही नहीं, और जो लौटती हैं, वे वर्कप्लेस पर सबसे कोने में बिठा दी जाती हैं। लगभग 69 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि मैटरनिटी लीव से लौटने के बाद उनका प्रमोशन रुक गया। साथ ही उन्हें घिसे-पिटे रोल मिलने लगे, क्योंकि बॉस का उनकी काबिलियत से भरोसा उठ गया था। काबिलियत न हुई, मक्खन का लोंदा हो गई, धूप लगते ही पिघलकर पसर जाएगी।

मैटरनिटी पेनल्टी के उलट एक और टर्म भी है, बड़ा ही शोख और उम्मीदों से भरा हुआ। फादरहुड बोनस! ये दफ्तरों में काम करते पिताओं के हिस्से आता है। बेचारे मर्द पहले ही हाड़गलाऊ काम कर रहे होते हैं, तिसपर पिता बनना तो उनकी कमर ही तोड़ डालता है। ऐसे में स्कॉटलैंड की हवाई टिकट का तोहफा न सही, गुलमर्गी घोड़े की सैर तो कराई ही जा सकती है।

थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर पब्लिक पॉलिसी रिसर्च की साल 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिताओं को सिंगल युवकों और महिला कर्मचारियों के मुकाबले 21 प्रतिशत तक ज्यादा बोनस मिलने की गुंजाइश रहती है। ‘परिवार-वाला’, ‘अकेला कमाऊ’ जैसे लाचार पंख उसकी अदृश्य टोपी पर सजे होते हैं। कामकाजी मां सुस्त कहलाती हैं, कामकाजी पिता भरोसेमंद। कामकाजी मां घर भागने के बहाने खोजती है, कामकाजी पिता सपनों में भी फाइलें देखता है।

कामकाजी मां असल में काबिल पिताओं की जगह छेक रही है। लिहाजा, उसे घर बैठाने के तमाम जतन होते हैं, फिर चाहे वो प्राचीन रोम का लुपरकेलिया त्योहार हुआ करता हो, या फिर भारतीय सरकारी बैंक का सर्कुलर। रोम तो रुक चुका। उसे पता है कि स्त्री झरबेरी का पेड़ नहीं, जो झकझोरने पर बेरियों की तरह औलादें टपकने लगें। अब हमारी बारी है!

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