बसपा को कमजोर समझ रहे लोग ये ‘मायावी’ खेल देखें …. पार्टी की सीटें कम हुई हैं वोट बैंक नहीं, 3% बढ़ते ही बसपा 19 से 90 सीट पर पहुंच सकती है
फरवरी 2022, चुनाव में सिर्फ 8 दिन बाकी। मायावती पहली बार चुनाव प्रचार के लिए निकलीं। आगरा के कोठी मीना बाजार में रैली में 1000 लोग बुलाने की अनुमति थी, लेकिन 10 गुना ज्यादा लोग आ गए। मायावती ने कहा, “बहनजी कहां हैं पूछने वालों को बता दीजिएगा कि बहनजी पार्टी को मजबूत करने में लगी थीं।” असल में वह उस 3% वोट को ढूंढने में लगी हैं, जिनसे यूपी की सीएम कुर्सी उनके हाथ में आ जाए। वह ऐसा आज से नहीं 1993 से करती आ रही हैं।
पहली बार मिले 10% से ज्यादा वोट
1984 में बसपा का गठन हुआ। पार्टी दलित-पिछड़ों को एकजुट करने लगी। 9 साल बीत गए। बहुत बदलाव नहीं हुआ। पार्टी ने अपने वोटर तय किए। दलितों को एकजुट किया और 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर अपनी शक्ति दिखा दी। उस चुनाव में बसपा 164 सीटों पर लड़ी और 67 सीटें जीत गई। पार्टी को 11.12% वोट मिले। मुलायम सीएम बने। 1 साल 181 दिन बीते थे तभी दोनों दलों के बीच मनमुटाव हुआ और बसपा ने समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी।
![ये फोटो 1989 की है। जब मायावती ने हरिद्वार लोकसभा सीट पर पहली बार जीत दर्ज की थी।](https://images.bhaskarassets.com/web2images/521/2022/02/07/_1644248458.jpg)
20% के पास पहुंचा बसपा का वोट बैंक
1996 में दोबारा चुनाव हुए। मायावती के वोटर उनके साथ रहे। फिर से 67 सीटें मिली। वोट प्रतिशत 11% से बढ़कर 19.64% पहुंच गया। मायावती ने बीजेपी को समर्थन देकर सरकार बना दी। पहले के 184 दिन सीएम रही। उसी सरकार में कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्त और राजनाथ सिंह सीएम रहे। मायावती ने गठबंधन से नाता तोड़ लिया और अकेले चुनाव लड़ने का मन बना लिया।
2002 में 23% वोट के साथ जीत ली 98 सीट
2002 में मायावती ने 401 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। 98 सीटों पर विधायक जीते। वोट प्रतिशत बढ़ते हुए 23.06% पहुंच गया। बीजेपी और RLD ने बसपा को समर्थन देकर मायावती को सीएम बना दिया। एक साल बाद ही बीजेपी-बसपा में विवाद हो गया और गठबंधन टूट गया।
30% वोट के साथ मिल गई सत्ता
2007 में मायावती का जादू चल गया। पार्टी को 30.43% वोट मिले। 206 सीटों के साथ पार्टी ने बहुमत के साथ सरकार बनाई। कानून व्यवस्था दुरुस्त की। कोर वोटर खुश हुआ पर जो साथ आए थे वे नाराज होकर वापस चले गए। नतीजा ये रहा कि 2012 के चुनाव में पार्टी 25.95% वोटों के साथ 80 सीट पर आ गई। 2017 में स्थिति और खराब हुई। पार्टी को सिर्फ 19 सीटें मिलीं। वोट प्रतिशत 22.24% पर पहुंच गया।
![ये फोटो हमें बहुजन समाज पार्टी के ट्विटर हैंडल पर मिली। यह 2017 की रैलियों के दौरान की है।](https://images.bhaskarassets.com/web2images/521/2022/02/07/_1644248864.jpg)
अपने ही वोटर होने लगे पराए
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी ने आंकड़ा जारी किया है। मायावती जब 2007 में चुनाव जीती थीं उस वक्त 85% जाटव, 71% वाल्मीकि और 57% पासी जाति के लोगों ने वोट किया था। 2012 में जाटव 62%, पासी 51% साथ रहा, लेकिन वाल्मीकि वर्ग की तरफ से 42% वोट ही मिले। ये पहली बार था जब मायावती के कोर वोटर का उनसे ध्यान भंग हो गया।
क्या अब आएंगे साथ
बद्री नारायण प्रयागराज के गोविंद वल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टिट्यूट में प्रोफेसर हैं। उन्होंने ‘रिपब्लिक ऑफ हिन्दुत्व’ नाम से किताब लिखी। किताब में ‘बदलती हुई दलित अस्मिता’ का विश्लेषण करते हुए वह कहते हैं कि संघ अपनी सोशल इंजीनियरिंग में मायावती को पीछे छोड़ रहा है। बद्री नारायण बताते हैं कि संघ और बीजेपी मिलकर नॉन जाटव दलितों को अपने इनक्लूसिव हिन्दुत्व एजेंडे से जोड़ रहे हैं। इसकी पुष्टि 2012, 2014, 2017 और 2019 के चुनाव में हुई।
ये तो था बसपा का बढ़ता और घटता वोट प्रतिशत, अब हम समझते हैं कि इस चुनाव में कैसे बढ़ सकता है बसपा का वोट बैंक
2022 में क्या बदलाव हो सकता है
यूपी की राजनीति को करीब से देख रहे कौशल कुमार कहते हैं, ‘2017 में बीजेपी की लहर थी। बसपा का कोर वोटर भी बीजेपी की तरफ चला गया, लेकिन वह फिर से लौटता नजर आया है। अगर इस बार उसका वोट प्रतिशत 22% से बढ़कर 25% पहुंच गया तो बड़ा उलटफेर कर देंगे।’ ऐसा होने के तीन कारण हैं।
कारण 1 : बसपा ने करीब 150 सीटों पर एक साल पहले ही प्रत्याशी घोषित कर दिए थे। वो प्रत्याशी लोगों के बीच लगातार जा रहे हैं। ऐसे में उनकी जनता से बॉन्डिंग बढ़िया हो गई।
कारण 2 : 2017 में बसपा के अपने वोटर भी भाजपा में चले गए, लेकिन अब वह दोबारा पार्टी में आ रहे हैं। नेताओं के पार्टी छोड़ने के बीच भी जनाधार लगातार बढ़ता जा रहा है।
कारण 3 : बसपा ने इस बार जिताऊ नेताओं को प्रत्याशी बनाया है। जिस विधानसभा में जिस जाति के वोटर अधिक हैं वहां उसी वर्ग के नेता को प्रत्याशी बनाया गया है।
![ये फोटो यूपी के हापुड़ में आयोजित बसपा के रैली की है।](https://images.bhaskarassets.com/web2images/521/2022/02/07/_1644248931.jpeg)
देरी से प्रचार शुरू करने का नुकसान
कौशल कहते हैं कि आप मायावती के सारे चुनाव देख लें। वह कभी भी दो महीने पहले प्रचार नहीं शुरू करतीं। चुनाव से ठीक पहले प्रचार शुरू होता है। सोशल मीडिया पर भी पार्टी का प्रचार नहीं होता, लेकिन वोट मिलते हैं। मायावती का एक आह्वान ही उनके लिए सब कुछ है। इस बार अगर 3% वोट बढ़ गए तो सत्ता की चाबी मायावती के हाथ में होगी।