पूरी दुनिया में दिख रहे हैं महंगाई के आसार ?

पूरी दुनिया में दिख रहे हैं महंगाई के आसार

दुनिया के कई देशों में राजनीतिक परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल रहा है। इससे नीतियों में भी रैडिकल बदलाव आएंगे। आबादी की बढ़ती उम्र, वैश्वीकरण का बदलता रूप, जलवायु-परिवर्तन, इमिग्रेशन विरोधी भावनाओं और तकनीकी प्रगति के मद्देनजर सेंट्रल बैंक आने वाले वर्षों में कई अलग-अलग दिशाओं से दबाव महसूस करेंगे।

एक स्पष्ट चिंता राजकोषीय-नीति और ऋणों को लेकर है। जब तेज-तर्रार नेता सत्ता में आते हैं तो वे मितव्ययिता के बारे में ज्यादा नहीं सोचते। उनमें से अधिकांश तो बड़ी साहसी योजनाओं के साथ आते हैं, जिससे खर्च में भारी वृद्धि होती है।

यहां पर अर्जेंटीना के राष्ट्रपति जेवियर माइली एक अपवाद हैं, क्योंकि उन्हें पिछले तेज-तर्रार नेतृत्व की नीतियों को उलटने के लिए चुना गया था। लेकिन उदारवादी नेताओं को भी आने वाले वर्षों में खर्च करने का अधिक दबाव महसूस होगा।

वास्तविक ब्याज दरों के अपने दीर्घकालिक रुझान पर लौटने की संभावना है, जिसका यह मतलब है कि ऋण-सेवाओं की लागतें सरकारों के बजट का बड़ा हिस्सा हजम कर जाएंगी। भू-राजनीति की मौजूदा स्थिति को देखते हुए सैन्य खर्च भी निस्संदेह बढ़ेगा।

वहीं शिक्षा पर खर्च को भी बढ़ाना होगा, क्योंकि सरकारें अपनी आबादी को एआई युग के लिए तैयार करना चाहेंगी। इन सबके अलावा, जलवायु-संबंधी व्यय और सब्सिडी और भी जरूरी हो गई है। राजनीतिक विसंगतियों के चलते कार्बन-उत्सर्जन पर टैक्स लगाना मुश्किल हो गया है, जो कि वित्तीय रूप से ज्यादा विवेकपूर्ण होता।

यह सब अतिरिक्त खर्च यह दर्शाता है कि केंद्रीय बैंकों को सरकारों के विस्तारवादी-आवेगों को सख्त नीति के साथ संतुलित करना होगा। लेकिन कई देश पहले ही भारी कर्ज में डूबे हैं। क्या केंद्रीय बैंक कुछ कर्जों को कम करने की उम्मीद में उच्च मूल्य-वृद्धि की अनुमति देंगे? या वे अपनी-अपनी सरकारों के सामने खड़े होंगे, दरें बढ़ाएंगे और जोखिम उठाएंगे? जब राजकोषीय प्राथमिकताएं और कर्ज के स्तर मौद्रिक नीति के दायरे को निर्धारित करते हैं, तो अर्थशास्त्री इसे राजकोषीय प्रभुत्व कहते हैं। हमें इसके और मामले देखने को मिल सकते हैं।

लेकिन आबादी के रुझानों के बारे में क्या? चार्ल्स गुडहार्ट और मनोज प्रधान का मानना है कि चीन में कामकाजी आयु की आबादी कम हो रही है, और दुनिया के दूसरे देशों में भी आबादी बूढ़ी होती जा रही है। इससे श्रम-शक्ति में कमी आएगी और विकास धीमा होगा।

खर्च बढ़ेगा- कुछ हद तक बुजुर्गों की देखभाल के लिए- और श्रमिकों की कमी होने से वेतन-वृद्धि भी मजबूत हो सकती है। यह सब महंगाई को बढ़ाने वाला है। बेशक, उम्र बढ़ने के साथ-साथ बचतें भी बढ़ेंगी, और उम्रदराज हो रहे देशों में इमिग्रेशन से कामगारों की कमी पूरी की जाएगी। लेकिन आज तो यह हालत है कि बुजुर्ग होती आबादी वाले कई देशों द्वारा तो बड़ी संख्या में इमिग्रेंट्स को स्वीकार करने से खुले तौर पर इंकार किया जा रहा है।

जब से डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन से आयात पर व्यापक टैरिफ लगाया था, तब से हम संरक्षणवाद की व्यापक वापसी देख रहे हैं। इसका पहला परिणाम सीमा-पार निवेश में कमी के रूप में सामने आया है। अभी तक तो व्यापार में स्थिरता बनी हुई है, कुछ हद तक इसलिए क्योंकि चीनी इनपुट्स को फाइनल-असेम्बलिंग के लिए अमेरिका भेजे जाने से पहले दूसरे देशों में भेजा जा रहा है। लेकिन अगर ट्रम्प की व्हाइट हाउस में वापसी होती है तो वे इस तरह के ट्रांस-शिपमेंट को समाप्त करने की कोशिश करेंगे, जबकि हर जगह टैरिफ बढ़ाएंगे।

डी-ग्लोबलाइजेशन का ट्रेंड विदेशी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि जारी रखेगा। लेकिन क्या यह प्रक्रिया मुद्रास्फीति को भी बढ़ाने वाली है? यह इस पर निर्भर करता है कि किस तरह की प्रक्रिया सामने आती है। यदि टैरिफ अचानक बढ़ाए जाते हैं तो मुद्रास्फीति में काफी वृद्धि होगी, और केंद्रीय बैंकों के लिए ब्याज दरों में बढ़ोतरी से बचना मुश्किल हो जाएगा।

संरक्षणवाद आयात की कीमतों में वृद्धि कर सकता है; लेकिन चूंकि यह लोगों को गरीब बनाता है और मांग को घटाता है, इसलिए यह मुद्रास्फीति को ज्यादा नहीं बढ़ा सकता। डी-ग्लोबलाइजेशन प्रतिस्पर्धा को कम करके एकाधिकारवादी-मुनाफे को बढ़ावा देगा और इस प्रकार केंद्रीय बैंकों को अधिक मुद्रास्फीति की अनुमति देने के लिए प्रलोभन देगा। लेकिन यह देखते हुए कि वैश्वीकरण के साथ मुद्रास्फीति कम हुई थी, हमें कम से कम इस संभावना के लिए तैयार रहना चाहिए कि डी-ग्लोबलाइजेशन इसके विपरीत करेगा।

लो-कार्बन इकोनॉमी की ओर बढ़ने से तस्वीर और जटिल होगी। ग्रीन-रेगुलेशन आम तौर पर ऊर्जा के दूषित स्रोतों पर लागत लगाते हैं, कभी-कभी इस हद तक कि बैंक ऐसी परियोजनाओं को फंड भी नहीं देते। लेकिन जब तक ऊर्जा के दूषित स्रोत एक आवश्यक उत्पादन-इनपुट बने हुए हैं, तब तक उन पर निर्भर उत्पादन महंगा होगा।

जब मांग बढ़ेगी तो फर्मों को अधिक दूषित ऊर्जा का उपयोग करना होगा, जिससे लागत और उत्पादन की कीमतें और बढ़ेंगी। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए केंद्रीय बैंक की नीतियों को बहुत सख्त होना होगा, और इसका मतलब होगा धीमी वृद्धि। इससे ग्रीन-एनर्जी की ओर शिफ्ट धीमा पड़ सकता है।

यहां जिन बिंदुओं पर चर्चा की गई है, उनमें से अधिकांश ऊंची महंगाई की ओर धकेलने वाले हैं। हां, अगर एआई से उत्पादकता बढ़ती है, तो अधिक सस्ती आपूर्ति के कारण मुद्रास्फीति संबंधी दबाव कम हो सकते हैं। हालांकि, अभी यह दूर की बात है।

महंगाई का प्रश्न नेतृत्व की प्रकृति से जुड़ा है…
तेज-तर्रार नेता महंगाई के हालात पैदा करते हैं- उदाहरण के लिए, इमिग्रेशन को रोककर या बेरोकटोक खर्च करके। ऐसा करके वे केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को भी खत्म करते हैं। अतीत में भी इसके परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं।
(प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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