कैसे आया दल-बदल कानून, नेता इसके बदलावों का तोड़ कैसे निकालते हैं? सुप्रीम कोर्ट में इस पर क्या हो रहा है?

मध्य प्रदेश और कर्नाटक की राजनीति में क्या हुआ था? ये तो हम सबको पता ही है। दोनों ही राज्यों में कुछ विधायकों ने विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया और दूसरी पार्टी में शामिल हो गए। इस्तीफा इसलिए दिया, ताकि दल-बदल का कानून उन पर लागू न हो। बाद में इनमें से ज्यादातर उप-चुनाव में उतरे और जीतकर अपनी नई पार्टी से फिर से विधायक और मंत्री बन गए। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हुई। मांग की कि इस्तीफा देने वाले विधायकों पर विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी जाए।

मामला क्या है?

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को एक नोटिस जारी किया है। नोटिस दल-बदल कानून से जुड़ी एक याचिका पर जारी हुआ है। याचिका में इस्तीफा देकर दोबारा चुनाव लड़ने वाले विधायकों-सांसदों के तब तक चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की मांग की गई है, जब तक उस सदन का कार्यकाल समाप्त नहीं हो जाता।

दरअसल, पिछले कुछ सालों से राज्यों में पार्टियां विधायकों के गुट से विधायकी से इस्तीफा दिलाकर सरकार गिरा देती हैं। इससे इस्तीफा देने वाले विधायक पर दल-बदल कानून नहीं लगता और वो इस्तीफा देकर पार्टी बदल लेते हैं। जब उनकी खाली की गई सीट पर उप-चुनाव होता है तो वहां से दोबारा चुनाव लड़ लेते हैं। ज्यादातर मौकों पर जीत भी जाते हैं।

याचिका किसने दायर की है?

याचिका मध्य प्रदेश कांग्रेस की नेता जया ठाकुर ने दायर की है। जया 2019 के लोकसभा चुनाव और 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में दमोह से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की दावेदार थीं। हालांकि, जया को पार्टी ने दोनों बार टिकट नहीं दिया। जया ने याचिका अपने वकील पति तरुण ठाकुर के जरिए दायर की है।

मार्च 2020 में कांग्रेस के 22 विधायकों ने विधायकी छोड़ने के बाद पार्टी से इस्तीफा दे दिया और भाजपा में शामिल हो गए। इनमें से कई दोबारा चुनाव जीतकर विधायक बन चुके हैं। जया के इलाके दमोह के विधायक राहुल सिंह भी बाद में विधायकी छोड़ भाजपा में शामिल हुए हैं। भाजपा उन्हें यहां के उप-चुनाव में उम्मीदवार बना सकती है। इस याचिका को राहुल को चुनाव लड़ने से रोकने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है।

याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में क्या कहा है?

याचिका में कहा गया है कि चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के लिए इस्तीफा दल-बदल कानून के काट के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। याचिकाकर्ता का कहना है कि इन मामलों में स्पीकर विधायकों को अयोग्य नहीं ठहराते और पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हैं।

याचिका में कहा गया है कि मणिपुर में चुनाव के बाद भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। लेकिन, कांग्रेस के विधायकों से दल-बदल करवाकर वो सत्ता में आ गई। उसके बाद कई दल-बदलुओं को मंत्री का पद भी दिया गया। ऐसा ही कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भी हुआ।

दल-बदल कानून क्या है?

1967 में हरियाणा के विधायक गया लाल ने एक दिन में तीन बार पार्टी बदली। उसके बाद से राजनीति में आया राम गया राम की कहावत मशहूर हो गई। पद और पैसे के लालच में होने वाले दल-बदल को रोकने के लिए राजीव गांधी सरकार 1985 में दल-बदल कानून लेकर आई। इसमें कहा गया कि अगर कोई विधायक या सांसद अपनी मर्जी से पार्टी की सदस्यता छोड़कर दूसरी पार्टी ज्वॉइन कर लेता है तो वो दल-बदल कानून के तहत सदन से उसकी सदस्यता जा सकती है। अगर कोई सदस्य सदन में किसी मुद्दे पर मतदान के समय अपनी पार्टी के व्हिप का पालन नहीं करता है, तब भी उसकी सदस्यता जा सकती है।

क्या इस कानून में कोई अपवाद भी है?

अगर किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक एक साथ दल-बदल कर लेते हैं तो उनके ऊपर ये कानून नहीं लगेगा। 2003 में हुए संशोधन के पहले नियम था कि अगर एक तिहाई विधायक या सांसद बगावत करके अलग होते हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी। संविधान की दसवीं अनुसूची में दल-बदल के मामले में फैसला लेने का अधिकार सदन के अध्यक्ष को दिया गया। याचिका में इसी में बदलाव की मांग की गई है। दल-बदल के मामलों में फैसला विधानसभा अध्यक्ष को लेना होता है। इसे लेकर कई विशेषज्ञों का कहना है कि विधायकों के मामले में ये फैसला राज्यपाल और सांसदों के मामले फैसला राष्ट्रपति को लेना चाहिए।

दल-बदल से बचने के लिए नेताओं ने क्या रास्ता निकाला?

2003 में जब कानून में सख्ती की गई तो लगा अब दल-बदल के मामलों में कमी आ जाएगी। लेकिन, इसका भी राजनीतिक दलों और नेताओं ने रास्ता निकाल लिया। अब नेता पहले अपनी विधायकी से इस्तीफा देता है। उसके बाद पार्टी छोड़ता है। नई पार्टी में जाकर दोबारा चुनाव लड़ता है और सत्ता में हिस्सेदारी भी पाता है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश इसके सबसे ताजा उदाहरण हैं। जहां विधायकों का एक समूह एक साथ इस्तीफा देकर दूसरी पार्टी में शामिल हो गया। और विरोधी दल सत्ता में आ गया। बाद में इन बागियों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट भी मिल गया।

कर्नाटक और मध्य प्रदेश में क्या हुआ था?

जुलाई 2019 में कांग्रेस के 14 और जनता दल सेक्युलर के 3 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। इससे राज्य में एचडी कुमार स्वामी की सरकार अल्पमत में आ गई। विधायकों के इस्तीफे के बाद भाजपा के बीएस येद्दियुरप्पा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। कुमारस्वामी को फ्लोर टेस्ट का सामना करना पड़ा। लेकिन, स्पीकर ने इस्तीफा देने वाले विधायकों का इस्तीफा मंजूर नहीं किया। बागी विधायक सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए । बागियों ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई कि कोर्ट स्पीकर को उनके इस्तीफे मंजूर करने को कहे, जिससे वो दल-बदल के तहत अयोग्य होने से बच जाएं, क्योंकि अगर फ्लोर टेस्ट के दौरान ये विधायक पार्टी व्हिप को नहीं मानते तो ये अयोग्य ठहरा दिए जाते।

इसी तरह मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों ने बगावत कर दी। उन्होंने भी अपने इस्तीफे स्पीकर को भेज दिए। इसके बाद अल्पमत में आई कमलनाथ सरकार को लंबे ड्रामे के बाद इस्तीफा देना पड़ा और भाजपा के शिवराज सिंह चौहान ने सरकार बनाई। बगावत करने वाले कई नेता दोबारा विधायक और मंत्री बन चुके हैं।

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