तीन दोस्तों ने 5 हजार रुपए से देसी चप्पल का स्टार्टअप शुरू किया; सालाना 2.5 करोड़ का बिजनेस

कई बार आप कुछ चीजों की कद्र तब तक नहीं करते, जब तक उसकी तारीफ दूसरे न कर दें। कुछ ऐसा ही हुआ दो दोस्त, लक्ष्य अरोरा और हितेश केंजले के साथ। लक्ष्य और हितेश इजिप्ट AIESEC नाम के एक इंटरनेशनल NGO में इंटर्नशिप करने पहुंचे थे। इसी प्रोग्राम में दुनिया के अलग-अलग हिस्से से यंगस्टर्स आए थे। एक प्रोग्राम के सबकी नजर हितेश की कोल्हापुरी चप्पल पर गई।

हितेश ने तो बस एक नॉर्मल चप्पल पहनी थी, लेकिन वहां मौजूद लोगों के लिए वह एक पीस ऑफ आर्ट (piece of art) से कम नहीं थी। लोगों का इंटरेस्ट देख दोनों दोस्तों ने कोल्हापुरी चप्पल बनाने वाले कारीगरों से मिलने का विचार किया।

जब वे देश वापस लौटकर आए तो कारीगरों से मिलने की बात उन्हें याद थी। बस, वे उनसे मिलने पहुंच गए। इसके बाद उनका काम इन्हें इतना पसंद आया कि इन फुटवियर को इंटरनेशनल मार्केट तक ले जाने का प्लान बना लिया। इस काम में उनके साथ एक और फ्रेंड आभा अग्रवाल जुड़ गईं।

इस तरह तीनों ने मिलकर शुरू किया ‘देसी हैंगओवर’ नाम से फुटवियर का स्टार्टअप। बिना कोई अनुभव सिर्फ 5 हजार में शुरू हुए इस स्टार्टअप से आज सालाना करीब 2.5 करोड़ कमाई हो रही है। देश के 100 से ज्यादा आउटलेट में आज इनके प्रोडक्ट्स मिलते हैं। इसके साथ ही अमेरिका, सिंगापुर और मलेशिया में इनके प्रोडक्ट्स की काफी डिमांड है।

आज की पॉजिटिव खबर में जानते हैं इन तीनों दोस्तों की कहानी, जिनकी पहल से महाराष्ट्र के कई कारीगरों की तकदीर बदल रही है…

इसकी शुरुआत कैसे हुई?

लक्ष्य अरोरा (L), आभा अग्रवाल और हितेश केंजले (R) ने मिलकर 2014 में देसी हैंगओवर की शुरुआत की।
लक्ष्य अरोरा (L), आभा अग्रवाल और हितेश केंजले (R) ने मिलकर 2014 में देसी हैंगओवर की शुरुआत की।

लक्ष्य अरोरा (27) आर्ट में ग्रेजुएट हैं। हितेश केंजले (31) ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। इजिप्ट से भारत वापस आने के बाद दोनों ऐसे कारीगर से मिलना चाहते थे, जो ट्रेडिशनल तरह से जूते-चप्पलें बनाते थे। इस काम के लिए उन्होंने कई शहरों की यात्राएं की। अंत में दोनों महाराष्ट्र के बेलगाम डिस्ट्रिक्ट के मिराज गांव पहुंचे। इस गांव के ज्यादातर कारीगर कोल्हापुरी चप्पल बनाने का काम करते हैं।

लक्ष्य बताते हैं, ‘उनका हुनर और काम करने का अंदाज हम लोगों को काफी अच्छा लगा। कारीगरों से बात कर पता चला कि उनके प्रोडक्ट्स बिचौलियों से होते हुए मार्केट तक पहुंचते हैं। यही वजह है कि उन्हें उनकी मेहनत की सही कीमत नहीं मिलती। अच्छा पैसा न कमाने की वजह से कारीगरों की दूसरी जनरेशन इस काम में आने के बजाय शहर जाकर मजदूरी करने को मजबूर थी। मैंने उनके जूतों के कुछ सैंपल अपने दोस्तों को भेजे। फिर हमने तय किया कि हम खुद का स्टार्टअप शुरू करेंगे। ये बात हमने आभा को बताई और हम तीनों ने मिलकर देशी हैंगओवर की शुरुआत कर दी।’

कारीगरों के काम करने के तरीके को बेहतर बनाया

इंटरनेशनल मार्केट को ध्यान में रखते हुए देसी चप्पल को स्टैंडर्ड साइज में तैयार कर रहे हैं।
इंटरनेशनल मार्केट को ध्यान में रखते हुए देसी चप्पल को स्टैंडर्ड साइज में तैयार कर रहे हैं।

लक्ष्य जब कारीगरों से मिले तो देखा कि उन लोगों का काम करने का तरीका बहुत बेसिक था। जिसे इंटरनेशनल मार्केट तक नहीं ले जाया जा सकता था। इसके बाद कई पैमानों पर बदलाव कर फाइनल डिजाइन तैयार की गई, जो लोगों को आरामदायक और काफी सुंदर भी लगी।

लक्ष्य बताते हैं, ‘शुरुआत में हमने एक ही प्रोडक्ट पर काम किया। उसमें कई बदलाव किए। फुटवियर में पेटेंट फुट लाकर लगाए, ताकि पहनते वक्त जूते किसी को न काटे। फिसलन से बचने के लिए एंटी स्लिपरी सोल और आर्च सपोर्ट का भी इस्तेमाल किया, जिससे ज्यादा देर शूज पहनने से भी पैरों में दर्द न हो। जूतों की क्वालिटी को भी बेहतर बनाया।

साइज का स्टैंडर्डाइजेशन किया, ताकि उन्हें किसी भी देश के लोग अपनी साइज के अनुसार खरीद सकें। हमारा पहला पीस ही लोगों को काफी पसंद आया और हम इस तरह आगे बढ़ते गए। आज हमारे पास एथनिक कैजुअल शूज के करीब 60 आर्टिकल हैं।’

लक्ष्य फुटवियर को देसी डिजाइन और मॉडर्न लुक में तैयार करने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। लड़के और लड़कियां दोनों के लिए एथनिक और कैजुअल शूज बनाए जाते हैं।

बहुत कम लागत से शुरुआत हुई

इस स्टार्टअप में 50% महिलाएं काम करती हैं।
इस स्टार्टअप में 50% महिलाएं काम करती हैं।

लक्ष्य बताते हैं, हम तीनों में से कोई भी इस बिजनेस के बारे में नहीं जानता था। हमें बस कारीगरों का काम पसंद आया और हम उनसे जुड़ गए। जब हमने काम शुरू किया था तब हमारे पास 5 हजार रुपए और दो कारीगर थे। उस समय कारीगरों का विश्वास जीतना ही मुश्किल था। उन्हें लगता था कि हम बच्चे हैं क्या करेंगे? दो कारीगरों की कमाई होने लगी तो उसे देखकर दूसरे भी जुड़ने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कई कारीगर हमसे जुड़ते चले गए। हमने भी बढ़ती कमाई से अपना बिजनेस बढ़ाना शुरू कर दिया।

आज हमारे पास करीब 90 कारीगर हैं। कई ऐसे कारीगर भी हैं, जो जूते बनाने का काम छोड़ शहर में मजदूरी किया करते थे। हमारी कंपनी में काम करने वाले कारीगरों को हर महीने करीब 12 हजार रुपए मिलता है। यहां 50% महिलाएं भी काम करती हैं। पहले के मुकाबले अब इनकी कमाई चार गुना ज्यादा बढ़ी है। हम आगे और भी कारीगरों को जोड़ने का प्लान कर रहे हैं।’

देसी हैंगओवर नाम क्यों?

देश के करीब 100 से ज्यादा आउटलेट पर इनके प्रोडक्ट्स बिक रहे हैं।
देश के करीब 100 से ज्यादा आउटलेट पर इनके प्रोडक्ट्स बिक रहे हैं।

लक्ष्य बताते हैं, देश कई साल पहले आजाद हो गया, लेकिन हमारी सोच गुलाम ही रह गई। हम विदेश से आई चीजों को बहुत वैल्यू देते हैं। मानो हमें विदेशी चीजों का हैंगओवर है। जबकि देसी चीजों की कोई खास अहमियत नहीं रहती।

यही वजह है कि हमने विदेशी का हैंगओवर कम करने के लिए ‘देसी हैंगओवर’ नाम दिया है। सिर्फ शूज में ही नहीं, बल्कि हर चीज में हमें अपने देश में बनी चीजों की कद्र करनी चाहिए। उसे बनाने वाले को हमें इज्जत देनी चाहिए। यही हम तीनों पार्टनर की सोच है।

इन कारीगरों की वजह से ही हमारा बिजनेस इतना बढ़ा है। इन्हें मान-सम्मान दिलाना हमारा फर्ज है। आज हम देश के करीब 100 आउटलेट के साथ जुड़े हैं, जहां हमारे ब्रांड के शूज बिकते हैं। इनमें fabindia, jade blue, Nimantran Ethnic Wear, Ajay Arvindbhai Khatri और OPTIONS शामिल हैं। इसके अलावा सिंगापुर, अमेरिका और मलेशिया की कई बड़ी कंपनी के साथ भी हमारा कोलेब्रेशन है। इस बिजनेस से हर साल करीब 2.5 करोड़ की कमाई होती है’

नेचर को ध्यान में रखकर जूते बनाए जाते हैं

तीनों दोस्तों ने कोरोना काल में भी कारीगरों की जरूरत का ध्यान रखा।
तीनों दोस्तों ने कोरोना काल में भी कारीगरों की जरूरत का ध्यान रखा।

आभा कहती हैं, ‘इस बिजनेस के पीछे हमारा यही मकसद था कि हम कमाई के साथ समाज और पर्यावरण दोनों में अपनी भूमिका निभा सकेx। हम जानवरों को मारकर उसके चमड़े से जूते नहीं बनाते। हम सिर्फ नेचुरल रीजन से मर जाने वाले जानवरों की खाल का इस्तेमाल करते हैं। जिस पर वेजिटेबल टैनिंग किया जाता है। इसमें हल्दी और हरड़ का इस्तेमाल किया जाता है। इस पूरे प्रोसेस में पानी का इस्तेमाल नहीं होता। हम रॉ मटेरियल चेन्नई और महाराष्ट्र की अलग-अलग जगहों से मंगाते हैं। जूते बनाने का काम हमारी यूनिट में ही होता है, जो मिराज गांव में है।’

गांव में बदलाव हुआ है? इस पर आभा का कहना है कि कारीगरों को हर महीने सैलरी उनके अकाउंट में मिल जाती है। इससे उनकी कमाई और आत्मविश्वास दोनों बढ़ा है। अब उनके जीने का तरीका भी काफी बदल गया है। हम तीनों दोस्त उनसे परिवार जैसे जुड़ गए हैं। कोरोना काल में भी हमने उनका साथ नहीं छोड़ा। काम बंद था, लेकिन हम उनकी जरूरतों का पूरा ध्यान रखते थे। इस तरह हमारा एक स्ट्रॉन्ग सिस्टम तैयार हो गया है। हमें बस इसे आगे बढ़ाना है।

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