ताजमहल की चकाचौंध ने आगरा के अपने महत्व को लील लिया
यहां पर्यावरण की गाइडलाइन इतनी पेचीदा हैं कि सिवाय ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त और पर्यटन के और कोई कारोबार अब यहां नहीं पनप सकता है. आगरा का फ़ाउंड्री उद्योग, जूता कारख़ाने, सरसों के तेल की मिलें और पेठे व दालमोठ का कारोबार अब लुंज-पुंज अवस्था में हैं. पंछी पेठे के नाम पर अनगिनत दुक़ानें तो खुली हैं लेकिन पेठे की वह मिठास ग़ायब है.
आगरा के किनारी बाज़ार में बेड़मी पूरी-सब्ज़ी लेने के लिए शनिवार को भारी भीड़ थी. किसी तरह मेरा नंबर आया तो मैंने कहा, अरे लाला मैं दिल्ली से आया हूं, मुझे तो जल्दी फ़ारिग करो. दूकानदार कुछ बोलता इसके पहले ही एक ग्राहक ने कहा, “जे ताजमहल (Tajmahal) उठा कर सरकार कहूं और ले जाए. ताजमहल के कारण शहर के सब काम-धंधे बंद हैं”. जिस ताजमहल को देखने के लिए पूरी दुनिया के लोग उत्सुक रहते हैं, उसके लिए एक स्थानीय निवासी की यह वितृष्णा देखने लायक़ थी. पर उसकी बात में भी दम है. ताजमहल की ख़ूबसूरती बचाये रखने के लिए इतनी बंदिशें हैं कि इसके चक्कर में आगरा शहर के सारे पुराने उद्योग-धंधे और व्यापार चौपट हो चुके हैं. दरअसल वह समझ गया था, कि मैं दिल्ली से बस ताजमहल देखने की ख़ातिर ही आया हूं. बाक़ी आगरा में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं.
आगरा की वह दस्तकारी
आगरा कभी मशहूर था, अपनी पच्चीकारी के लिए, लाल पत्थरों को इस तरह तराश कर उसमें नक़्क़ाशी कर दी जाती थी कि वह पत्थर जीवित हो जाता था. आगरा का फ़ाउंड्री उद्योग, जूता कारख़ाने, सरसों के तेल की मिलें और पेठे व दालमोठ का कारोबार अब लुंज-पुंज अवस्था में हैं. पंछी पेठे के नाम पर अनगिनत दूक़ानें तो खुली हैं लेकिन पेठे की वह मिठास ग़ायब है. यहां पर्यावरण की गाइडलाइन इतनी पेचीदा हैं कि सिवाय ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त और पर्यटन के और कोई कारोबार अब यहाँ नहीं पनप सकता है. ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त का कारोबार भी इसलिए चल रहा है, क्योंकि एक तो आगरा शहर दिल्ली से मात्र तीन घंटे की दूरी पर है और आज भी यह गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्र से दक्षिण भारत के पठारी इलाक़े में प्रवेश का मुख्य द्वार है. यहीं से आगरा-बॉम्बे रोड जाती है.
देश की राजधानी अब उजाड़ अवस्था में
आगरा एक जमाने में उत्तर प्रदेश के पांच सिरमौर शहरों में शरीक था. इन शहरों को कवाल (कवाल) टाउन कहा जाता था. अर्थात् कानपुर, आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, लखनऊ. आज यदि लखनऊ को छोड़ दिया जाए तो शेष के पास गर्व लायक़ कुछ नहीं बचा है. न परंपरागत उद्योग, न आधुनिक कल-कारख़ाने और न ही व्यापार. यहां तक कि पुराने व्यापारिक घरानों ने भी दिल्ली, मुंबई की राह पकड़ी. आगरा के वरिष्ठ पत्रकार योगेश जादौन बताते हैं कि कभी यहाँ के जूते विदेशों में भी जाते थे लेकिन अब पर्यावरण विभाग ने तमाम तरह की बंदिशें लगा दी हैं. चमड़े की टैनिंग का काम तो यहाँ आज़ादी के पहले से ही बंद है और यहाँ पर कानपुर से पका-पकाया चमड़ा आता था. किंतु वहाँ भी टैनिंग बंद है. चेन्नई से चमड़ा लाया जाए तो क़ीमत बढ़ जाएगी. आख़िर आगरा से बैठ कर कभी मुग़ल बादशाह पूरे देश पर राज करते थे. अंग्रेजों ने भी पश्चिमोत्तर प्रांत (NWF) की राजधानी आगरा में ही बनायी थी. यहां के विश्वविद्यालय से आधे से अधिक हिंदुस्तान के कॉलेज सम्बद्ध थे.
शू-हब में शू नहीं
कहने को तो यहाँ शू-हब बनाया गया मगर कई तरह की पेचीदगियाँ हैं. मसलन भू-खंड शहर से दूर दिए गए. सरकारी मदद न के बराबर मिली. जूते के कारोबार में कारीगर या तो मुस्लिम हैं या हिंदुओं की दलित जातियाँ. उनके पास खुद का व्यवसाय खड़ा करने के लिए धन नहीं है और मदद मिलती नहीं. इसके अलावा आगरा का पानी बहुत अधिक खारा है किंतु उसे ठीक करने के लिए कोई प्लांट नहीं लगा. जब आगरा में उद्योग नहीं तो आगरा में लोग कैसे रहेंगे? और पर्यटक यहाँ की अर्थ व्यवस्था का आधार नहीं है. लोग यहाँ बस ताजमहल देखने के लिए आते हैं. शहर के भीतर जा कर लोकल ख़रीदारी करने का उनके पास वक़्त नहीं होता.
टोल के पैसे सब निहाल
दिल्ली से नोएडा-ग्रेटर नोएडा होकर वाया यमुना एक्सप्रेस वे आने से पर्यटकों का रास्ता तो सुगम हो गया है और स्थानीय प्रशासन को भी टोल-टैक्स से आमदनी हो जाती है. लेकिन इसका दुष्प्रभाव यह पड़ है कि पर्यटक को आगरा की अन्य मशहूर चीजों को जानने का समय नहीं रहा. शनिवार 12 मार्च को यमुना एक्सप्रेस वे को पार कर जब मैं आगरा में दाखिल हुआ तब वहां इनर रिंग रोड में प्रवेश के लिए टोल-प्लाज़ा में इतनी भीड़ थी कि आधा घंटे में मेरी गाड़ी टोल गेट पर पहुंची. चालीस रुपए का टोल देकर मैं वाया बाह रोड ताजमहल की शिल्पग्राम पार्किंग में पहुंचा. वहां से पूर्वी गेट लगभग एक किमी है. वहाँ से बैटरी चालित बसों से जाना पड़ता है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुसार ताजमहल परिसर के 500 मीटर तक कोई भी पेट्रोल या डीज़ल गाड़ी नहीं आ सकती.
कोरोना के बाद पब्लिक के लिए ताज
कोरोना शुरू होते ही ताजमहल को पर्यटकों के लिए फ़रवरी 2020 में बंद कर दिया गया था. पहले और दूसरे दौर के बाद खुला कि तीसरी लहर आ गई. इसे फिर बंद कर दिया गया. इसके बाद पर्यटकों के लिए यह कुछ ही दिन पहले ही खोला गया था. अब चूंकि एक मार्च को शाहजहां का उर्स होता है, इसलिए आम दर्शकों के लिए यह बंद ही रहा. फिर चुनाव नतीजों के कारण भीड़ थमी. मगर शनिवार 12 मार्च को ऐसी उमड़ी कि उसे नियंत्रित करना मुश्किल. बस शुक्र यह रहा, कि चुनाव नतीजों में सारी सीटें भाजपा द्वारा जीत लिए जाने के बावजूद कोई विजय जुलूस नहीं निकाला गया. इसलिए अफ़रा-तफ़री नहीं मची.
वाह ताज़
वैसे तो कई बार ताजमहल गया हूं, लेकिन इस बार उसकी कुछ छटा ही निराली थी. उसके दीदार होते ही मुंह से अनायास निकला- वाह ताज ! इसलिए भी कि दो साल की बंदी के बाद ताजमहल अब अधिक साफ़-सुथरा कर दिया गया है. भीड़ कुछ भी हो, अनियंत्रित तो होती ही है और गंदगी भी फैलाती है. मगर कोरोना काल में ताजमहल और गंदा होने से बच गया. यूं भी कोरोना लॉकडाउन के पहले यहां तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आए थे, इसलिए तब ताजमहल का रंग-रोगन हुआ था. सच तो यह है, कि पर्यटन के कारण यह धरोहर नष्ट हो रही है. विदेशी पर्यटक तो यहां की कला और इसके पुरातत्व को समझने की दृष्टि से आते हैं, लेकिन दिल्ली की बाढ़ वाले पर्यटक सिर्फ़ मौज-मस्ती के वास्ते, इससे भी गंदगी बढ़ती है.
ASI के अधीन
पूर्वी गेट के बाद ताजमहल का पूरा क्षेत्र एएसआई (Archeological Survey of India) के सुपुर्द है. वही इसकी देख़-रेख करता है और सुरक्षा के लिए सीआईएसएफ (CISF) के जवान रहते हैं. पूर्वी गेट पर एक सिक्योरिटी एजेंसी SIS को इन लोगों ने हायर किया हुआ है. पर इसके बाद कई सारे किंतु-परंतु हैं. जैसे हर शुक्रवार को यहां 200 स्थानीय लोगों को नमाज़ पढ़ने की छूट है. हर वर्ष एक मार्च को शाहजहाँ के उर्स पर असंख्य लोगों की भीड़ जुटती है. इसे नियंत्रित कर पाना किसी भी अर्ध सैनिक बल के बूते का नहीं. एएसआई प्रति देसी पर्यटक 50 रुपए का टिकट ताजमहल परिसर में जाने का देती है. और संगमरमर के पत्थरों से बनी इमारत पर जाने के लिए 250 रुपए और लिए जाते हैं. विदेशी पर्यटकों से 750 रुपए वसूले जाते हैं.
गंदगी भी देसी पर्यटक फैलाते हैं
इसके अतिरिक्त प्रदेश के पर्यटन विभाग, नगर निगम सभी को ताजमहल की भीड़ से आमदनी होती है. इसलिए कोई भी संस्था नहीं चाहेगी कि यहां पर अनियंत्रित भीड़ छंटे. पर्यटकों की आमद से टिकट के ज़रिए जो आय होती है एएसआई उसे केंद्र के ख़ज़ाने में जमा कर देती है. यह आमदनी करोड़ों में है. और फिर आगरा आने वाला विदेशी पर्यटक सिर्फ़ ताजमहल ही नहीं जाता बल्कि आगरा फ़ोर्ट, सिकंदरा, एत्माद्दौला आदि स्थानों पर भी जाता है, अतः पर्यटकों के ज़रिए बहुत पैसा यहां आता है. इसके बाद असंख्य होटल हैं और दिल्ली से आने वाली टूरिस्ट टैक्सियों, बसों व निजी वाहनों से लिए जाने वाले टोल टैक्स व पार्किंग का भी एक बड़ा धंधा यहां फल-फूल रहा है. इसलिए स्थानीय प्रशासन से लेकर प्रदेश शासन तक यहां पर पर्यटकों द्वारा फैलाई जाने वाली अव्यवस्था के प्रति ख़ामोश रहता है. किंतु इस गंदगी से ताजमहल परिसर कहीं अधिक गंदा हो रहा है.
दिल्ली का शौक़िया पर्यटक
दिल्ली से आया शौक़िया पर्यटक आगरा तफ़रीह करने आता है. वह बस आया और भागा. यह पर्यटक जब ताजमहल देख लेता है, तो उसे शहर के अंदर जाने की न तो हिम्मत होती है न वह कोशिश करता है. पर्यटन विभाग इसकी कोई जानकारी भी नहीं देता. उसे तो लगता है कि उसने प्रेम के प्रतीक इस अंतर्राष्ट्रीय स्मारक को देख लिया, अब वह शहर के भीतर क्यों जाए? वह उसी रोज़ दिल्ली भागने की कोशिश करता है. अधिक से अधिक पंछी पेठा वह उन दूक़ानों से ख़रीद लेता है, जो बाह रोड से यमुना एक्सप्रेस वे तक खुल गई हैं. उसे पता ही नहीं होता कि पंछी पेठा की वह ख़ुशबू और उसका स्वाद तो उस दुकान पर है जो हरि पर्वत पर है या सिकंदरा के समीप. ताजमहल की इस चकाचौंध ने आगरा के अपने महत्व को लील लिया है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)