50% से ज्यादा महिलाएं-संसद में 33% को तरसीं …. संसद या पार्टी वाली तिकड़म में उलझीं, राज्यसभा की 13 सीटों पर आज चुनाव-मुकाबले में 4 महिलाएं

देश में महिलाओं की आबादी 1000 पुरुषों पर 1020 हो गई है। हाल ही में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव परिणाम में जीतने वाले सदस्यों में महिलाओं की संख्या अच्छी-खासी है। 31 मार्च यानी आज राज्यसभा की 13 सीटों के लिए हो रहे मुकाबले में सिर्फ 4 महिलाएं ही मैदान में हैं। ऐसे में सवाल उभरता है कि आखिर महिलाओं को राजनीति में लाने के बड़े-बड़े दावों-वादों के बावजूद इनकी संख्या गिनी-चुनी क्यों हैं? क्यों करीब तीन दशक बीत जाने के बावजूद महिला आरक्षण बिल पारित नहीं हो सका? क्या इसे लेकर पार्टियों की नीयत साफ नहीं है?

राज्यसभा की 13 सीटों के लिए आज जो द्विवार्षिक चुनाव होने हैं। इनमें पंजाब की पांच, केरल की तीन, असम की दो और हिमाचल, नगालैंड व त्रिपुरा की एक-एक सीट हैं। इस मुकाबले में महिलाएं केवल 4 हैं। असम की एक सीट से कांग्रेस की रानी नारही, केरल की एक सीट से कांग्रेस की प्रत्याशी जेबी माथेर, नगालैंड से भाजपा की फैंगनॉन कोन्याक और त्रिपुरा से कम्युनिस्ट पार्टी झरना दास वैद्य मैदान में हैं।

महिलाओं ने पार लगाई ‘आप’ की नैया, फिर भी भूल गए
हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सभी पार्टियों ने महिलाओं को वरीयता देने की बात कही। महिलाओं के लिए कई बातें कही गईं। सभी पार्टियों के घोषणा पत्र में महिला आरक्षण की बात थी, लेकिन फिर महिला आरक्षण बिल अब तक पास नहीं हो सका। हालिया विधानसभा चुनाव की बात करें तो पंजाब में 93 महिलाएं चुनाव लड़ीं, जिनमें से 13 जीतकर विधानसभा पहुंचीं। जीतने वालों में सबसे अधिक 11 महिलाएं आम आदमी पार्टी से हैं। इनमें से 1 को मंत्री बनाया गया। बावजूद इसके पंजाब से खाली हुईं पांच राज्यसभा सीटों के लिए आप ने एक भी महिला को उम्मीदवार नहीं बनाया।

संसद में सीटों का आरक्षण या पार्टियों में टिकट का आरक्षण?

महिलाओं को आरक्षण देने के दो तर्क चलते हैं। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटों को आरक्षित करना या फिर पार्टियों का महिलाओं को टिकट देने में आरक्षण। दोनों को अलग-अलग ट्रीट किया जाता है और एक-दूसरे के विकल्प के तौर पर पेश किया जाता है। जबकि एक के बिना दूसरा कारगर नहीं है। पंजाब यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के विभागाध्यक्ष प्रो.आशुतोष कुमार के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने में देश की आधी आबादी की भागीदारी बढ़ाने के लिए महिला आरक्षण बिल लाने की पहल शुरू की गई। इसमें प्रावधान किया गया कि लोकसभा और विधानसभाओं की एक तिहाई यानी 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएंगी। हालांकि, इस बिल में राजनीतिक पार्टियों को कितनी महिलाओं को टिकट देना होगा, इसका कोई जिक्र नहीं है। इसके बावजूद विरोध करने वालों को लगता है कि शहरी महिलाएं संसद में आएंगी और हम पर हुक्म चलाएंगी। दलित और पिछड़ी महिलाएं और पीछे रह जाएंगी

महिला आरक्षण बिल के फायदे और नुकसान
फायदा: राजनीतिक विशेषज्ञ आशुतोष का कहना है कि अगर महिला आरक्षण बिल कानून बन जाता है तो कानून बनाने के दौरान देश की आधी आबादी की पूरी भागीदारी नजर आएगी। संसद में महिलाओं से संबंधित मुद्दे प्राथमिकता के साथ उठाए जाएंगे। कानून बनाते वक्त महिलाओं को पूरी तवज्जो दी जाएगी, जबकि मौजूदा वक्त में वोट देने में महिलाएं पुरुषों से आगे हैं, लेकिन फिर भी कानून बनाते वक्त उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है।

नुकसान: महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करने वाले कुछ लोगों का कहना है कि पारित होने के बाद विधानसभा और लोकसभा की एक तिहाई सीटें सिर्फ महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। ऐसे में राजनीतिक घराने के लोग अपनी बेटियों और बहुओं को यहां से उतार सकते हैं, जिससे राजनीति में परिवारवाद का चलन और बढ़ेगा।

हालांकि, ऐसा नहीं है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाएं सिर्फ चुनाव लड़ेंगी और उनके पिता या पति काम करेंगे। इसका ज्वलंत उदाहरण उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाजपा नेता दयाशंकर सिंह और उनकी पत्नी स्वाति सिंह हैं। स्वाति की राजनीति में एंट्री भले ही पति की राजनीति बचाने के लिए हुई थी, लेकिन उन्होंने खुद को साबित किया और योगी सरकार में एक मंत्री के तौर अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई।

पार्टी में 33 फीसदी टिकट का क्या लॉजिक है?
राजनीतिक विशेषज्ञ आशुतोष बताते हैं कि अभी पार्टियां टिकट देते वक्त महिला चेहरों को अनदेखा कर देती हैं, जब महिला आरक्षण लागू हो जाएगा तो विधानसभा और लोकसभा में एक तिहाई महिला सीटों को भरने के लिए पार्टियां ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा जाएगा। लोकसभा और विधानसभा में 33 फीसदी महिलाओं को आरक्षण देने पर क्या सीटें शर्तिया आरक्षित हो जाएंगी और महिला कैंडिडेट न मिलने पर सीटें खाली रहेंगी? इसके जवाब में आशुतोष बताते हैं कि नहीं, कोई भी पार्टी नहीं चाहेगी कि संसद में उनका बहुमत कम रहे। इसलिए पार्टियां महिलाओं को 33 फीसदी से ज्यादा टिकट देने के बारे में सोचेंगी।

महिला आरक्षण बिल का इतिहास

  • साल 1975 में टूवर्ड्स इक्वैलिटी नाम की एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण दिया था और आरक्षण देने की बात कही थी। उस वक्त रिपोर्ट तैयार करने वाली कमेटी के अधिकतर सदस्य इसके खिलाफ थे और महिलाओं को भी लगा वे आरक्षण के रास्ते से नहीं बल्कि अपने बलबूते पर राजनीति में आएंगी, लेकिन 10-15 सालों में महिलाओं ने अनुभव किया कि राजनीति में हर कदम पर रोड़े अटकाए जाते हैं। उनको समान मौके नहीं मिलते हैं। इसके बाद महिलाओं को संसद में प्रतिनिधित्व देने की मांग शुरू हुई।
  • 1980 के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित कराने की कोशिश की थी, लेकिन विधानसभाओं ने इसका विरोध किया था।
  • 12 सितंबर, 1996 को महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एचडी देवेगौड़ा सरकार ने पेश करने की कोशिश की थी। गैर-कांग्रेसी गठबंधन की इस सरकार को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था, जबकि इस सरकार के दो मुख्य स्तंभ- मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव महिला आरक्षण के विरोधी थे।
  • जून, 1997 में एक बार फिर विधेयक को पास कराने का प्रयास हुआ, उस वक्त लोकतांत्रिक जनता दल के प्रमुख शरद यादव ने बिल की निंदा करते हुए कहा था कि परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी।
  • 26 जून, 1998 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक को 12वीं लोकसभा में 84वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में पेश किया, लेकिन यह बिल पास नहीं सका। इसके वाजपेयी की सरकार गिर गई और लोकसभा भंग हो गई।
  • मई, 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार दोबारा सत्ता में लौटी और एक बार फिर महिला आरक्षण बिल पेश किया, लेकिन इस बार भी सफलता नहीं मिली।
  • साल 2003 में एनडीए सरकार ने फिर कोशिश की, लेकिन प्रश्नकाल में ही सांसदों ने खूब हंगामा किया।

यूपीए-2 ने राज्यसभा में कराया था पारित
मार्च, 2010 में यूपीए-2 के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस बिल को राज्यसभा में पारित कराने की पहल की थी। मनमोहन सरकार को उम्मीद थी कि जिस तरह विधेयक को राज्यसभा में पास करा लिया गया है, वैसा ही लोकसभा में भी पारित करा लिया जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

महिला आरक्षण बिल लागू पारित कराने के लिए संसद के बाहर प्रदर्शन करतीं भाजपा की दिग्गज नेता सुषमा स्वराज, सीपीएम नेता वृंदा करात समेत अन्य महिला नेता।-फाइल फोटो कभी महिला आरक्षण बिल का ‘प्रॉक्‍सी कल्‍चर’ को बढ़ावा देने की बात कहकर विरोध हुआ तो कभी ‘सरपंच पति’ बढ़ जाएंगे, इसका डर दिखाया गया। संसद में पहली बार पेश होने के बाद 26 साल बीत गए, लेकिन अभी तक महिलाओं को 33% आरक्षण देने पर राजनीतिक दल एकजुट क्‍यों नहीं हो पा रहे।

लोकसभा में रिकॉर्ड महिला सांसद, क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका अहम
प्रोफेसर आशुतोष कहते हैं कि फिलहाल लोकसभा में महिलाओं की रिकॉर्ड 13 फीसदी संख्या है। हालांकि, इसमें भाजपा और कांग्रेस से ज्यादा क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका है। बेशक महिला आरक्षण बिल पारित नहीं हो पाया, लेकिन बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव टिकट देते वक्त एक तिहाई सीटों पर महिलाओं को उतारा। इस बार यही नीति कांग्रेस ने भी विधानसभा चुनाव में अपनाई।

बहुमत में सरकार फिर भी क्यों पारित नहीं हो पाया विधेयक?
राजनीतिक व्यंगकार आलोक पुराणिक कहते हैं कि महिला आरक्षण बिल पर सिर्फ सरकार ही नहीं, ये मान लीजिए कि किसी की भी नीयत साफ नहीं है। हमारा समाज पितृसत्तात्मक है। कांग्रेस, सपा हो या फिर अकाली दल ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां की कमान किसी एक ही परिवार के हाथ में रही है। नेता पार्टियों को अपनी विरासत समझते हैं और हमारे यहां दुर्भाग्य से अभी भी विरासत बेटों को सौंपी जाती है, बेटियों को नहीं।

उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी के अपनी बहन वाई एस शर्मिला से रिश्ते सिर्फ इसलिए बिगड़े क्यों कि वे भाई की छत्रछाया से निकलकर अपने पिता की राजनीतिक विरासत में अपना हिस्सा चाहती थी। इसके अलावा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत कई नेता ऐसे हैं, जिनके बेटे राजनीति में सक्रिय हैं और बेटियां नहीं। वे कहते हैं भाजपा के पास बहुमत है, लेकिन पार्टी के भीतर कई ऐसे नेता हैं जो नहीं चाहते कि बिल पास हो। ऐसे में पार्टी अपने नेताओं को नाराज करना नहीं चाहती।

आलोक पुराणिक कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियां महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए टिकट नहीं देती हैं। वे खुद को महिलाओं को हितैषी साबित करने के लिए दिखावा करती हैं। भाजपा की बात करें तो यह सही है कि पार्टी ने कोशिश की, लेकिन भाजपा में महिला नेता अपनी क्षमता से आगे आई हैं, उन्हें ​कोई आरक्षण या रियायत नहीं दी गई है। कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी राहुल गांधी को प्राथमिकता दी।

महिला आरक्षण बिल पारित कराने को लेकर प्रदर्शन करतीं कांग्रेस नेता अलका लांबा व अन्य। संसद के भीतर महिलाओं के प्रतिनिधित्‍व के लिहाज से 193 देशों की सूची में भारत 148वें स्‍थान पर है। लोकसभा में इस समय 81 महिला सांसद हैं। यह संख्या सदन के इतिहास में अबतक सबसे ज्‍यादा है। पहली लोकसभा में केवल 24 महिला सदस्‍य थीं।

महिला सांसदों ने उठाई आवाज
महिला आरक्षण बिल पारित कराने के लिए समय-समय पर महिला सांसद अपनी आवाज बुलंद करती रहीं हैं। इन महिला सांसदों में दिवंगत भाजपा नेता सुषमा स्वराज, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्व सांसद वृंदा करात, शिवसेना की राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी और कांग्रेस नेता अलका लांबा का नाम शामिल है।

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