आसन्न चुनावों को देखकर आप समझ सकते हैं कि साम्प्रदायिक तापमान सहसा क्यों बढ़ गया

गैरी कास्पारोव ने कहा था, ‘अगर आप बहुसंख्यकों को विश्वास दिला सकें कि वे अल्पसंख्यकों के विक्टिम हैं और आप उनकी रक्षा कर सकते हैं तो आप लोकतंत्र में सफल हो सकते हैं।’ यह कथन डोनाल्ड ट्रम्प को चुनने वाले अमेरिका के बारे में था, लेकिन आज भारत की स्थिति में भी यह प्रासंगिक है। हाल ही में अनेक राज्यों में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति बनी थी। इसके बाद जो नैरेटिव निर्मित किया गया, उसे ध्यान से देखें।

सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो वायरल किए गए, जिनमें राम नवमी और हनुमान जयंती की शोभायात्रा पर पथराव होते दिखलाया गया है। इसके पीछे यह संदेश दिया जा रहा है कि आज देश में हिंदू अल्पसंख्यकों से प्रताड़ित हैं। जबकि शायद सच्चाई इससे कहीं जटिल है। आक्रामक नारेबाजी कर रहे जुलूस और उन पर प्रतिक्रिया में किया जाने वाला पथराव जिस भविष्य का चित्र हमारे सामने खींचता है, वह सबका साथ सबका विकास के अनुरूप तो हरगिज नहीं है।

इसके उलट यह लगता है कि वर्षों से नफरत की जिस राजनीति को नार्मलाइज किया जा रहा था, वह अब फल-फूल चुकी है। जो पहले हाशिए के लोग कहलाते थे, वे अब मुख्यधारा में आ चुके हैं। जरा हिंसा के भौगोलिक-वृत्त पर एक नजर डालें। यह भाजपा-शासित मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात से लेकर विपक्षी दलों की सरकारों वाले राजस्थान, बंगाल, ओडिशा, झारखंड तक फैला है।

राष्ट्रीय राजधानी में भी हिंसा हुई है, किंतु वहां की पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। भाजपा-शासित राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। कांग्रेस-शासित राजस्थान में भी चुनाव आसन्न हैं। वहीं दिल्ली में इस साल के अंत में महत्वपूर्ण नगरीय निकाय चुनाव होंगे। अब आप समझ सकते हैं कि देश का साम्प्रदायिक तापमान अचानक कैसे बढ़ गया है। यह स्थिति तब है, जब केंद्र अपने प्रभुत्व के चरम पर है और उसे विपक्ष से कोई चुनौती नहीं मिल रही है।

देखा जाए तो नए भारत के लिए कुछ रचनात्मक करने का यही सबसे आदर्श समय है। इसके बावजूद तमाम कोशिशें भावनाएं भड़काने वाले ध्रुवीकरण और मुस्लिमों के अन्यीकरण के लिए की जा रही हैं, फिर चाहे हिजाब का मामला हो, हलाल मीट का या अजान का।

कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने इन घटनाओं को उचित ही ‘वेपन्स ऑफ़ मास डिस्ट्रैक्शन’ यानी जनता का ध्यान भटकाने के हथकंडे कहा है। बढ़ती कीमतों और घटती आय पर लोगों का ध्यान न जाए, इसके लिए जरूरी है कि साम्प्रदायिकता की पतीली में उबाल लाया जाता रहे।

थरूर सही कह रहे हैं किंतु एक सीमा तक ही। क्योंकि हिंदू-राष्ट्र के मिशन के केंद्र में स्थित धार्मिक-सांस्कृतिक टकराव अब उभार पर है। आठ वर्षों की सत्ता ने हिंदुत्ववादियों को निश्चिंत कर दिया है। यूपी में योगी आदित्यनाथ की सनसनीखेज जीत से उनके हौसले बुलंद हो गए हैं। जब संघ प्रमुख अखंड भारत की बात करते हैं तो वे हिंदुओं के प्रभुत्व वाले एकीकृत राष्ट्र की ओर ही संकेत कर रहे होते हैं।

पर्वों-त्योहारों पर शस्त्रों का आक्रामक प्रदर्शन इसी का हिस्सा है। नहीं तो मस्जिदों के सामने जानबूझकर डीजे म्यूजिक बजाने का क्या मतलब है? यह ये संदेश देने के लिए है कि अगर मुस्लिमों को अजान के लिए लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल करने की इजाजत दी जाएगी तो हम भी शोरगुल करने से पीछे नहीं हटेंगे। जैसे को तैसा वाली राजनीति विहिप और बजरंग दल के लिए लाइफलाइन से कम नहीं रही है।

अतीत में रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसकी मदद से भाजपा राष्ट्रीय प्रभुत्व वाली पार्टी बन गई थी। ये समूह एक ऐसे राजनीतिक परिवेश में बेचैनी का अनुभव करते हैं, जिसमें प्रधानमंत्री उन पर निर्भर हुए बिना भी एक के बाद एक चुनाव जीतते चले जा रहे हैं। भाजपा के निर्वाचित राजनेताओं की तरह हिंदुत्व के झंडाबरदारों को अभी तक सत्ता का स्वाद चखने का भी अवसर नहीं दिया गया है।

अब वे वैधानिक और प्रशासनिक अंकुश से मुक्त होकर अपने लिए ध्यानाकर्षण चाहते हैं। हाल में हुई धर्म-संसद से लेकर गो-रक्षक और लव-जिहाद आंदोलनों तक का मकसद यही रहा है। दिल्ली में पुलिस अनुमति के बिना विहिप-बजरंग दल के द्वारा शोभायात्रा निकालना भी इसी का द्योतक है। यह बुलडोजर मार्का राजनीति भले अल्पसंख्यकों में डर का माहौल बना दे, किंतु इससे जो आक्रोश व असंतोष उपजेगा, वह देश के लिए खतरनाक है।

याद रखना चाहिए कि अगर ‘हिंदू विक्टिम हैं’ का नैरेटिव चलाया जा सकता है तो ‘मुस्लिमों को विक्टिम बनाया जा रहा है’ का काउंटर-नैरेटिव भी चरमपंथी तत्वों के लिए ईंधन का काम कर सकता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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