अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार शहरी उपभोक्ता के हितों को दे रही प्राथमिकता

इसी हफ्ते एक मंच पर चार अर्थशास्त्रियों से पूछा गया कि जब मुद्रास्फीति का भेड़िया सड़कों पर खुला घूम रहा है तो क्या इससे नागरिकों में असंतोष नहीं फैलेगा? इसके साथ तीन और सवाल जुड़े थे। पहला, महंगाई का भेड़िया पिंजरे से निकलकर बाहर तो आ गया है, लेकिन क्या सरकार के पास इसे दोबारा काबू करके पिंजरे में डालने की युक्तियां हैं?

दूसरा, इस भेड़िये के ताकतवर होते चले जाने की वजहें और परिस्थितियां वैश्विक हैं या भारतीय- और अगर वैश्विक हैं तो क्या हमारी अर्थव्यवस्था में इतनी क्षमता है कि इन हालात का मुकाबला करके नागरिकों की मदद कर सके? तीसरा, अगर सरकार महंगाई को नरम करने के लिए सब्सिडी बढ़ाएगी या टैक्स वसूली में कटौती करेगी तो क्या इससे अर्थव्यवस्था और सांसत में नहीं फंस जाएगी?

जाहिर है यह बेहद दिलचस्प और ज्ञानवर्धक बहस इस तथ्य के इर्द-गिर्द हो रही थी कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 7.79 प्रतिशत तक पहुंच गया है। थोक मूल्य सूचकांक पहले से ही बढ़ा हुआ है। चारों अर्थशास्त्री इस बात पर एकमत थे कि मुद्रास्फीति के इस चिंताजनक स्तर का सबसे बुरा असर गरीब तबके पर होगा, जो मुख्य तौर पर असंगठित क्षेत्र में काम करता है। वे यह भी मान रहे थे कि ऐसे मौके पर अगर किसानों की आमदनी को सरकार की तरफ से समर्थन नहीं मिला तो उनकी हालत और खराब हो जाएगी।

उन्हें कहीं न कहीं इस बात का एहसास था कि कृषि-क्षेत्र में आमदनी बढ़ने की सम्भावनाएं न के बराबर हैं। और तो और, अर्थशास्त्री अपने विचारधारात्मक मतभेदों के बावजूद तीन और अहम बातों पर एकमत दिखे- पहली बात तो यह थी कि मुद्रास्फीति के कारण वैश्विक हैं यानी इसे नियंत्रित करने या पलटने की उम्मीद हमें सरकार से नहीं करनी चाहिए। दूसरी, यह अल्पकालिक नहीं बल्कि दीर्घकालिक परिघटना है यानी भारतीय अर्थव्यवस्था को लम्बे अरसे तक महंगाई का दंश झेलने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

तीसरी, महंगाई का भेड़िया केवल तेल या जिंसों के दाम बढ़ने के कारण नहीं गुर्रा रहा, बल्कि भारत में महंगाई व्यापक किस्म की बहुक्षेत्रीय परिघटना है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी के आंकड़ों को मानें तो बुरी खबर यह मिलती है कि महंगाई का भेड़िया सड़क पर अकेला नहीं है, बल्कि उसे वहां पहले से मौजूद बेरोजगारी के हिंसक पशु की सोहबत मिली हुई है। आंकड़े बताते हैं कि दो अप्रैल को देश में बेरोजगारी दर 7.5% थी।

इसमें शहरी बेरोजगारी 8.5% और ग्रामीण बेरोजगारी 7.1% तक पहुंची हुई थी। यह आंकड़ा पिछले साल से कम जरूर है, पर शायद ही कोई कहे कि यह चिंताजनक नहीं। अर्थशास्त्रीगण इस बात पर भी सहमत थे कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीमी है। बाजार में मांग भी सुस्त है। सरकार की राजस्व स्थिति स्वस्थ नहीं। रुपया डॉलर के मुकाबले बहुत गिर चुका है। सरकार जानती है यदि उसने तेल पर एक रुपया टैक्स घटाया तो उसकी आमदनी सोलह हजार करोड़ घट जाएगी।

यह जरूर है कि इतनी बातें स्वीकारने के बावजूद अर्थशास्त्रियों ने इस शुरुआती सवाल का साफ जवाब नहीं दिया कि महंगाई और बेरोजगारी के मिले-जुले हमले का परिणाम जन-असंतोष में निकलेगा या नहीं? किसान आंदोलन की स्मृतियां अभी धुंधली नहीं पड़ी हैं। सरकार जानती है कि जरा भी मौका मिलने पर किसान फिर से आंदोलन का आह्वान कर सकते हैं। वैसे भी एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने की मांग अभी हवा में ही लटकी है।

सरकार नहीं चाहती कि किसानों को किसी भी तरह से शहरी मध्यवर्ग की हमदर्दी मिल सके। शायद इसी कारण केंद्र सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने बाजार में गेहूं और आटे के बढ़ते दामों से घबराकर इस खाद्यान्न के निर्यात पर रोक लगा दी है। लेकिन इस रोक से क्या हुआ? गेहूं किसानों को आमदनी के स्तर पर जो थोड़ा-बहुत फायदा होने की संभावना थी, वह खारिज हो गई है। अशोक गुलाटी जैसे सरकार समर्थक अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि एक बार फिर सरकार ने शहरी उपभोक्ता के हितों को किसानों के हितों पर प्राथमिकता दी है।

मुद्रास्फीति के चिंताजनक स्तर का सबसे बुरा असर गरीब तबके पर होगा, जो मुख्य तौर पर असंगठित क्षेत्र में काम करता है। अगर किसानों को सरकार का समर्थन नहीं मिला तो उनकी हालत और खराब हो जाएगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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