!:इंदौर की देवी अहिल्या की कहानी; हर आदेश पर लिखती थीं- हुजूर शंकर…
सबसे पहले जानिए कौन थीं अहिल्या देवी…
अहिल्या का जन्म 31 मई 1725 ई. को महाराष्ट्र के अहमदनगर के चौंडी ग्राम में हुआ। उनके पिता मंकोजी राव शिंदे अपने गांव के पाटिल थे पर निर्धन थे। वे कई परेशानियों का सामना कर परिवार का लालन-पालन करते थे। पुणे जाते समय मालवा के पेशवा मल्हार राव होलकर चौंडी गांव में विश्राम के लिए रुके। यहीं उन्होंने अहिल्या को देखा। आठ साल की लड़की निष्ठा से भूखे और गरीब लोगों को भोजन करा रही थी। यह देख मल्हार राव ने अहिल्या का रिश्ता अपने बेटे खंडेराव होलकर के लिए मांगा। 1733 में खंडेराव के साथ विवाह कर कम उम्र में ही अहिल्या मालवा आ गईं।
मल्हारराव होलकर के वीर पुत्र खंडेराव होलकर की चार पत्नियां थीं- अहिल्याबाई, पाराबाई, पीताबाई और सुरताबाई। मल्हार राव होलकर को बेटे खांडेराव से ज्यादा बहू अहिल्या पर भरोसा था। 1754 में खंडेराव की युद्ध में वीरगति प्राप्त होने पर ससुर मल्हारराव होलकर के कहने पर अहिल्याबाई सती नहीं हुई जबकि अन्य 3 रानियां सती हो गईं। इसके बाद ससुर मल्हार राव ने बहू अहिल्या देवी को होलकर साम्राज्य की कमान सौंप दी थी।
पति के साथ सती होने का निर्णय लिया, पर ससुर ने ऐसा करने नहीं दिया
1745 में अहिल्याबाई ने पुत्र को जन्म दिया, नाम रखा मालेराव। इसके तीन वर्ष बाद पुत्री ने जन्म लिया, नाम रखा मुक्ता। 1754 में पति खंडेराव का देहांत हो गया, वे युद्ध में मारे गए। यह खबर सुनकर अहिल्याबाई ने सती होने का निर्णय लिया, लेकिन ससुर के समझाने के बाद निर्णय बदला। इसके बाद मल्हारराव अहिल्याबाई को राज्य कार्य संबंधी प्रशिक्षण देने लगे। वे युद्ध पर जाते तो अहिल्याबाई राज्य की व्यवस्था संभालती थीं। सुरक्षा, राजस्व, न्याय, नीति और सामान्य प्रशासन सभी क्षेत्रों में उन्होंने मार्गदर्शन किया। 20 मई 1766 को मल्हार राव का निधन हुआ, इसके बाद राजपाट अहिल्याबाई होल्कर के सुपुत्र माले राव होलकर को सौंपा गया। वह केवल 9 माह तक राज कर पाए और उनकी मृत्यु हो गई। इसके बाद राज्य का सारा भार अहिल्याबाई पर आ गया। उन्होंने 13 मार्च 1767 में रियासत की कमान अपने हाथों में ली। पुत्र के जाने से दुखी अहिल्याबाई ने अपनी राजधानी महेश्वर बना ली और इंदौर छोड़कर चली गईं। उनका शासनकाल करीब 28 बरस का था। साथ-साथ ख़ासगी संपत्ति की देखरेख भी करती थीं। उनका भारतीय इतिहास की सर्वश्रेष्ठ योद्धा रानियों में शुमार है। उनके शासनकाल के दौरान मराठा मालवा साम्राज्य ने सफलता की नई ऊंचाइयों को छुआ। उन्होंने देशभर में कई मंदिरों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। 13 अगस्त 1795 को महेश्वर में उनका स्वर्गवास हुआ।
अब चार शब्दों में समझिए देवी अहिल्या को
लीडरशिप : संपत्तियों की देखरेख का बोझ जनता पर न पड़े इसलिए ट्रस्ट बनाया
होलकर रियासत की संपत्ति की देखरेख का बोझ जनता पर नहीं पड़े, इसके लिए खासगी ट्रस्ट बनाया। ट्रस्ट के खाते में 16 करोड़ रुपए जमा हो गए तो देवी अहिल्या ने इससे देश में मंदिर, धर्मशालाएं बनवाईं।
ट्रस्टीशिप : पारिवारिक खर्च जनता के पैसों से नहीं, व्यक्तिगत कोष से
होलकर परिवार के सारे खर्च राजकोष (दौलत) से नहीं किए जाते थे। जब ससुर मल्हार राव के अभिन्न मित्र बाजीराव पेशवा का निधन हुआ तो सारे क्रियाकर्म का खर्च राजकोष से करना चाहा तो बहू देवी अहिल्या ने ससुर को रोक दिया और कहा- यह खर्च मना कर दिया। यह खर्च पारिवारिक कोष (खासगी ट्रस्ट) से ही होगा।
जवाबदेही : युद्ध में जीते धन पर सबसे पहला हक राजकोष का
पति को तक कह दिया था कि जब तक आप अग्रिम वेतन चुका न देंगे, एक नया पैसा नहीं मिलेगा। पति खंडेराव के कक्ष में जीत में मिले धन को देख कहा, इस पर भी पहला हक राजकोष का है।
कायदों की पक्की : जमीन विवाद आने लगे तो बना दिया खसरा नियम
जमीन के विवाद खड़े होने लगे तो अहिल्यादेवी ने खसरा व्यवस्था लागू की। आवेदकों से जमीन पर लंबाई में 7 फलदार पेड़ और चौड़ाई में 12 फलदार पेड़ लगाने को कहा। इस तरह विभाजन बराबर हुआ।
वे किस्से जो बताती हैं कि वे कितनी निर्डर और इंदौर से कितना प्यार करती हैं…
किस्सा-1 : होलकर रियासत के दीवान गंगाधर यशवंत चंद्रचूड़ के एक षड्यंत्र का पता चलते ही अहिल्या देवी गरज कर बोलीं… ‘यह वैभव मेरे पुरखों ने हंसी-मसखरी या नाच-गाकर प्राप्त नहीं किया है। उन्होंने अपना खून पसीना एक कर यह राज्य स्थापित किया है। ऐसा कोई न समझे कि मैं अबला या असहाय औरत हूं। हाथ में माला लेकर अड़ जाऊंगी तो सारी योजना धरी रह जाएगी। मैं पेशवा की चाकरी करने को सदा तैयार हूं, पर किसी ने मेरे राज्य की ओर आंख उठाई तो वह कभी सफल नहीं होगा।’
किस्सा-2 : एक बार महादजी सिंधिया जो ग्वालियर के तत्कालीन राजा रणोजी सिंधिया के उत्तराधिकारी थे, वे किसी राजनैतिक स्वार्थ के लिए देवी अहिल्या के पास महेश्वर आए। महादजी सिंधिया को पेशवा ने समस्त उत्तर, मध्य ,पश्चिम भारतीय राज्यों से कर वसूलने औऱ साम्राज्य विस्तार की जिम्मेदारी दी थी। वे महेश्वर आए तो देवी अहिल्या ने उनका आदर सत्कार किया। एक दिन उन्होंने धमकी भरे लहजे में अपनी योजना देवी को सुनाई। मां अहिल्या क्रोध में बोलीं …’जैसे तुम अपने घर की स्त्रियों को सुपारी के टुकड़े के समान मुंह में डालकर गटक जाते हो, वही सलाह तुकोजी होलकर (प्रथम) को देकर तुम दोनों फौज लेकर आओ। जिस दिन इंदौर पर तुम्हारी फौज कूच करेगी, उसी दिन हाथी के पांव की साकल से तुम्हें बांधकर तुम्हारा स्वागत करने मैं आऊंगी.. तभी मैं मल्हारराव होलकर की बहू कहलाऊंगी।’
प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी दो घटनाएं…
प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए वे पति व ससुर का विरोध भी कर लेती थीं। उनके दो उदाहरण हैं जो इस बात की तस्दीक करते हैं।
घटना-1 : चाहे खासगी (पारिवारिक ट्रस्ट) का खजाना हो या दौलत (राजकोष) का खजाना। वे दोनों का हिसाब बराबर रखती थीं। बात उस समय की है जब मल्हारराव होलकर के अभिन्न मित्र बाजीराव पेशवा का निधन मालवा क्षेत्र में हुआ। पेशवा के परिवार के लोगों के वहां आने से लेकर सूतक शांति तक के सारे क्रियाकर्म, मृत्युभोज, दान पुण्य का खर्च मल्हारराव ने ‘दौलत के खजाने’ से किया। मातोश्री ने जब यह खर्च देखा तो बोलीं कि यह होलकर का घर, पारिवारिक मामला है, सूबेदार जी ने यह मित्रता में किया है, इसलिए यह खर्च जनता के पैसों से नहीं बल्कि खासगी से होना चाहिए। उसके तुरंत बाद उन्होंने उक्त राशि खासगी से दौलत के खजाने में ट्रांसफर करवा दी।
घटना-2 : अहिल्या देवी के पति खंडेराव होलकर को युवराज होने के नाते नियमित रूप से दौलत और खासगी ट्रस्ट दोनों खजाने में से वेतन दिया जाता था। उनको खर्च कम पड़ता था तो वे एडवांस सैलरी ले लेते थे। जब अहिल्याबाई ने यह देखा तो बोलीं कि आपने क्यों एडवांस लिया। आज यदि आप प्रजा के सामने उदाहरण नहीं रखेंगे तो होलकर परिवार की छवि खराब होगी। जब तक आप अग्रिम रूप में ले चुके वेतन को न चुका दें, आपको एक नया पैसा नहीं मिलेगा। इसके बाद जब वह खंडेराव के कक्ष में गईं तो उन्हें वहां लूट में या जीत में मिला धन दिखता है। वह बोलतीं हैं कि इस धन को भी आप नहीं रख सकते। इस पर पहला हक राजकोष का है। प्रशासन को लगा कि यह आपको देना चाहिए तो देंगे।
देवी अहिल्या के दो निष्पक्ष फैसले…
फैसला-1 : जमीन के टुकड़े पर विवाद पर मां अहिल्या की दो टूक
एक बार किसी जमीन के टुकड़े को लेकर काफी दिनों से ग्वालियर राज्य और होलकर राज्य में मतभेद चल रहा था। इसका फैसला अहिल्याबाई पर छोड़ दिया गया। उन्होंने निर्णय दिया कि न तो यह जमीन ग्वालियर राज्य की है न ही होलकर राज्य की। इस जमीन का इस्तेमाल गोचर भूमि के रूप में होगा। इस पर कोई लगान भी नहीं लिया जाएगा।
फैसला-2 : यह राजपाट शिव का है
पति, ससुर और बेटे की मौत के बाद अपना राज्य भगवान शिव को समर्पित कर दिया। वे सिर्फ सेविका के रूप में राज्य का कार्य करती थीं। यहीं से शुरुआत हुई थी हुजूर शंकर ऑर्डर की, जो महाराजा यशवंत राव होलकर द्वितीय के समय तक चलते रहे। यह विश्व में एक मिसाल भी है। यही कारण है कि अहिल्याबाई के काल के सिक्कों पर शिव लिंग अंकित होता था।
7/12 का उतारा (खसरा) नियम उन्हीं ने बनाया
जमीन के मालिक होने के सबूत के तौर पर अहिल्याबाई ने 7/12 खसरा नियम बनाया। उनके शासनकाल में जब जमीन के विवाद आने लगे तो उन्होंने आवेदकों से जमीन पर लंबाई में 7 फलदार पेड़ और चौड़ाई में 12 फलदार पेड़ लगाने को कहा। इस तरह विभाजन बराबर हुआ। उसके बाद उन्होंने नियम बनाया कि फल आने के बाद 7 फलदार पेड़ के फलों से होने वाली कमाई वार्षिक टैक्स के रूप में राजकोष में जमा करें और 12 पेड़ों के फलों से होने वाली कमाई अपनी आजीविका के लिए रखें। महाराष्ट्र राज्य का राजस्व विभाग अब भी इसके जरिए हर जिले की भूमि का रिकॉर्ड रखता है।
मां अहिल्या के व्यक्तित्व के ये पहलू भी खास
भगवान शिव की अनन्य भक्त : देवी अहिल्या शिव की अनन्य उपासक रहीं। होश संभालने के बाद से मृत्यु शैया तक महादेव के लिए समर्पित रहीं। बचपन में एक बार जब वह मंदिर जा रही थीं, तभी औरंगाबाद परगने के ग्राम चौंडी में आए मल्हारराव होलकर की नजर उन पर पड़ी। गोल सुंदर चेहरे वाली वाली उस 8-10 वर्षीय बालिका के हाथ में पूजा की थाली, उन्नत ललाट, खिंची हुई भृकुटी, मनोहर नासिका और बड़ी आंखों में कुछ ऐसा आकर्षण था कि मल्हारराव वहीं रुक गए। वे देवी अहिल्या के पिता मनकोजी तथा माता सुशीलाबाई शिंदे के घर पहुंचे और अपने पुत्र के लिए अहिल्या का हाथ मांग लिया। यह संबंध बनते देर न लगी और 31 मई 1725 को जन्मी अहिल्या का विवाह 1735 में खंडेराव से हुआ।
देवी अहिल्या ने देश भर में बनवाए 65 मंदिर
मंदिरों के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण के लिए अहिल्याबाई का नाम सम्मान से लिया जाता है। उन्होंने न सिर्फ अपने राज्य में बल्कि पूरे भारत में करीब 65 मंदिर, धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। इसके अलावा सड़कें, कुएं, तालाब, बावड़ियां, घाट और पानी की टंकी को मूलभूत सुविधाओं के साथ बनवाया। महेश्वर में रहते हुए देश के दूरस्थ स्थलों जैसे अमरकंटक, बद्रीनाथ, केदारनाथ, अयोध्या, गंगोत्री, पुष्कर, मथुरा, रामेश्वर तथा हरिद्वार में धर्मशालाएं बनवाईं। उज्जैन में 9 मंदिर और 13 घाटों का निर्माण उनके नाम है। ये हैं उनके द्वारा कराए प्रमुख निर्माण…।
1. काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी – भगवान शिव का यह प्राचीनतम मंदिर गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। कहा जाता है कि यह मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान है। मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण 1780 में देवी अहिल्याबाई ने करवाया था।
2. सोमनाथ मंदिर, वेरावल, गुजरात – कहा जाता है कि सोमनाथ का मंदिर ईसा के पूर्व भी था। मंदिर पर बार-बार आक्रमण हुए। 1783 में अहिल्याबाई ने पुणे के पेशवा के साथ मिलकर ध्वस्त मंदिर के पास अलग मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर के गर्भगृह को जमीन में बनाया गया।
3. विष्णुपद मंदिर, गया, बिहार – माना जाता है विश्व में यही एक ऐसा मंदिर है जहां भगवान विष्णु के चरण चिन्ह की पूजा होती है। इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है। फालगु नदी के तट पर बने इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1787 में अहिल्याबाई ने कराया था।
4. बैजनाथ मंदिर, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश – यह नागर शैली में बना हिंदू मंदिर है। इसे 1204 ईस्वी में अहुका और मन्युका नामक दो स्थानीय व्यापारियों ने बनवाया था। यह वैद्यनाथ (चिकित्सकों के प्रभु) के रूप में भगवान शिव को समर्पित है।
5. एलोरा के गणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार अहिल्याबाई होलकर द्वारा कराया गया।