सुरक्षा कारणों का हवाला देकर बच्चों को घर में कैद करना ठीक नहीं … ?

द करें जब स्कूल में शैतानी पर आपको सजा मिलती थी तब आप बैंच पर कितनी देर खड़े रह पाते थे? शायद 30 मिनट या 40 मिनट का पूरा पीरियड! कल्पना करें कैसे कोई आठ घंटे खड़े रह सकता है, वो भी शादियों वाली कुर्सी पर लंबे पंखों की मोर की ड्रेस पहने हुए, ताकि लोगों को लगे कि असली मोर खड़ा हुआ है।

जयपुर में एक शादी समारोह में मैंने देखा कि मोर का अभिनय कर रहे चार लोगों में 20 साल की उम्र से थोड़ी बड़ी यूक्रेन की रहने वाली अलीम भी थी। युद्धग्रस्त क्षेत्र में अपने परिवार के हालात से बेखबर ये युवा भारत में वर्क वीज़ा पर काम कर रहे हैं और किसी भी तरह का मेहनती काम करने के लिए तैयार हैं, ताकि भविष्य के लिए चार पैसे बचा सकें, जो कि इस समय अनिश्चित है।

जब मैंने अलीम से बात की, तो अहसास हुआ कि अकेलापन महसूस होने पर वह बमुश्किल ही रिश्तेदारों से बात कर पाती है, वजह है रूस-यूक्रेन युद्ध। उसने कहा कि ‘जब कभी भाग्य साथ देता है, तो ही घर वालों से बात हो पाती है। पर मेरी पूछने की हिम्मत नहीं होती कि क्या घर पर सब ठीक हैं।’ ठीक-ठाक सुविधाओं के बीच पले इन बच्चों की मैच्योरिटी और इस तरह के कड़ी मेहनत वाले काम करने की उनकी तत्परता देखकर मैं चकित रह जाता हूं।

अगर आप सोच रहे हैं कि अलीम में मैच्योरिटी युद्ध जैसी आकस्मिक परिस्थिति के कारण आई है, तो मैं आपको 13 साल की सुरोत्तमा दुबे से मिलाता हूं। उसके पिता पंकज भोपाल के रंगकर्मी हैं और मुंंबई में अभिनय सिखाते हैं, वह एक अरसे से शिकायत कर रहे हैं कि इन दो सालों में कोरोना के कारण घर में कैद रहने से सुरोत्तमा मोबाइल एडिक्ट हो गई है। ऐसी ही शिकायत करने वाले अभिभावकों से मैं कहता आ रहा हूं कि अगर बच्चों को बाहरी दुनिया से रूबरू कराएं, तो ये आदत दूर हो जाएगी।

मैं आमतौर पर ‘पसीना निकाल देने वाली गतिविधि’ की सलाह देता हूं, जो उनके दिमाग-शरीर को थका दे। चूंकि पंकज अभिनय से जुड़े हैं और इस साल की शुरुआत में सिनेमा-थिएटर्स खुलते ही उन्होंने थिएटर जाना शुरू कर दिया। पर उन्होंने एक अच्छा काम किया, वो ये कि बेटी को अपने साथ अच्छी फिल्में दिखाने ले जाने लगे हैं। पिता-पुत्री की ऐसी ही एक आउटिंग के दौरान पंकज फिल्म के बीच में मोबाइल चलाने लगे।

मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाली रोशनी से जाहिर है बाकी दर्शकों को खलल पड़ रहा था और उनकी शक्लें देखकर सुरोत्तमा नाराज हो गई और पिता को मोबाइल चलाने से रोका। और तब पंकज ने देखा कि सार्वजनिक जगहों पर जाकर अचानक उसकी बेटी मैच्योर हो गई है। थिएटर में वह कभी-कभार ही अपना फोन इस्तेमाल करती है।

बाहरी दुनिया देखने के बजाय घर पर लंबे समय तक रहने से कई बच्चे ढेर सारी गतिविधियों से चूक गए हैं। अलीम जैसे युवा वयस्कों के लिए यह अलग वैश्विक स्थितियां हैं। बच्चों को यह कहकर न रोकें कि बाहर बहुत अपराध हो रहे हैं। उन्हें बाहर जाने और अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेने के लिए कहें।

मैंने देखा है कि बच्चे जब घर से दूर होते हैं और किसी मुश्किल घड़ी में होते हैं तब वे अलर्ट रहते हैं। मेरा पक्के तौर पर मानना है कि बच्चे और किशोर जितना घर से बाहर जाएंगे, वे किसी भी लत से उतने ज्यादा आजाद होंगे जैसे सुरोत्तमा और अपने कंधों पर जिम्मेदारियां लेंगे जैसे अलीम।

फंडा यह है कि सुरक्षा कारणों का हवाला देकर बच्चों को घर में कैद करने की जरूरत नहीं है। सतर्कता और समुचित सावधानी के साथ उन्हें बाहर भेजें, इससे वे निष्ठुर दुनिया का सामना करने के लिए तेजी से मैच्योर होंगे।

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