पैरेंट्स को ही बच्चों को समझाना होगा कि उनकी शो-ऑफ की आदत से स्वास्थ्य को हो रही हानि
किसी भी शहर के शैक्षिक संस्थानों के बाहर सड़क पर सुबह-शाम पैरेंट्स व स्टूडेंट्स के वाहनों की भीड़ का दृश्य सामान्य है। दो हफ्ते पहले पुणे में एक दुर्घटना घटी, जिसमें अर्नव अमोल निकम नामक एक 12 वर्षीय छात्र स्कूल बस से उतरने की जल्दी में फिसलकर गिरा और बस की चपेट में आ गया।
अलबत्ता ये घटना स्कूल परिसर के बाहर नहीं बल्कि घर के रास्ते में हुई थी, लेकिन छात्र के माता-पिता इसके लिए स्कूल को दोषी ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि स्कूल अपने खुलने-बंद होने के समय को अलग-अलग करें और इस तरह ट्रैफिक जाम टालें। माता-पिता ने यह आरोप भी लगाया है उनके बच्चे के साथ हुए हादसे के बावजूद शैक्षिक संस्थानों, ट्रैफिक पुलिस और शिक्षा विभाग ने कोई सबक नहीं सीखा है।
जहां बहुत से स्कूल हैं, वहां भीड़ के मद्देनजर पुणे-मुम्बई जैसे शहरों की पुलिस ने सुझाव दिया है कि स्कूलों के खुलने-बंद होने के समय में 15 मिनट का अंतर हो, पर अभिभावकों के दबाव से इस पर अमल नहीं हुआ। मैंने खुद देखा है कि पैरेंट्स स्कूलों के समय का मेल ऑफिस जाने के समय से करना चाहते हैं, ताकि ऑफिस जाते समय बच्चे को स्कूल छोड़ सकें।
कई स्कूलों के खुलने-बंद होने का एक ही समय होने के प्रमुख कारणों में से यह एक है। समस्या तब विकट हो जाती है, जब एक ही जगह बहुत सारे दो और चार पहिया वाहन जमा हो जाते हैं। मुझे याद है कि मुम्बई प्रदूषण नियंत्रण विभाग ने स्कूल खुलने-बंद होने के समय पर वायु प्रदूषण की जांच की थी और पाया था कि इस दौरान गैस चैम्बर जैसी स्थिति निर्मित हो जाती है।
दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों में- जहां पहले ही प्रदूषण का स्तर अत्यधिक है- ट्रैफिक पुलिस ने अभिभावकों से अपील की है कि वे प्रदूषण कम करने के लिए बच्चों को स्कूल बस से भेजें। लेकिन दुर्भाग्य से यह अपील भी नहीं सुनी गई। दिलचस्प बात है कि अनेक बच्चे ऐसे भी हैं, जिनके माता-पिता स्कूल बस का खर्च उठा रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद वे दिखावे के लिए कार में स्कूल जाते हैं।
शाम के समय चीजें और बिगड़ जाती हैं, जब पैरेंट्स स्कूल के बाहर इंतजार करते हैं पर कार के इंजिन चालू रखते हैं, ताकि एसी चलता रहे। उन्हें यह नहीं पता होता कि हर बच्चा एसी कार में बैठने से पहले गैस चैम्बर जैसी स्थिति से गुजरता है। कल्पना करें, पूरे साल इससे गुजरने वाले बच्चे पर इसका क्या असर पड़ता होगा?
इससे बचने के लिए पैरेंट्स को आगे आना होगा और अपनी सहूलियतें छोड़नी होंगी। उन्हें बच्चों को भी समझाना होगा कि उनकी शो-ऑफ की आदत से उन्हीं के स्वास्थ्य को हानि हो रही है। अब तो छोटे शहरों में भी मेट्रो जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम विकसित होने लगे हैं। ऐसे में हमें अपने परिवहन के साधन बदलकर कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कोशिश करनी चाहिए। हमें बच्चों में सार्वजनिक परिवहन के साधनों या स्कूल बस का उपयोग करने की आदत विकसित करनी चाहिए।
फंडा यह है कि बच्चों को वैसी लग्जरी देकर, जिसकी उन्हें इस उम्र में जरूरत नहीं, उन्हें गैस चैम्बर में मत धकेलिए। ऐसा करके आप न सिर्फ उन्हें प्रदूषित माहौल में रहने को मजबूर कर रहे हैं, बल्कि बाद में जब वे वह लग्जरी प्राप्त करेंगे तो वे उसका असली मजा नहीं ले सकेंगे।