सिर्फ राजपूत, जाट और सिख होते हैं राष्ट्रपति के गार्ड्स …?
टॉस में पाकिस्तान को हराकर मिली बग्घी, 70 करोड़ ईंटों से बना राष्ट्रपति भवन….
बात 1947 की है। भारत और पाकिस्तान के बीच हर चीज का बंटवारा हो चुका था, लेकिन बात एक बग्घी पर अटक गई। भारत का कहना था कि ये बग्घी हमें चाहिए और पाकिस्तान इस पर अपना दावा ठोक रहा था। आखिरकार इसका फैसला सिक्का उछालकर हुआ। भारत को जीत मिली और सोने की परत लगी ये बग्घी आज भी हमारे राष्ट्रपति की शोभा बढ़ा रही है।
राष्ट्रपति चुनाव की स्पेशल सीरीज के 5वें एपिसोड में आज हम राष्ट्रपति से जुड़ी 3 नायाब चीजों के रोचक किस्से पेश कर रहे हैं। इनमें एक उनकी बग्घी, दूसरा उनके गार्ड्स और तीसरा राष्ट्रपति भवन है…
भारत को टॉस में मिली बग्घी
सोने की परत चढ़ी, घोड़े से खींची जाने वाली ये छोटी गाड़ी यानी बग्घी मूल रूप से भारत में ब्रिटिश राज के दौरान वायसराय की थी।
1947 में आजादी के बाद गवर्नर जनरल के बॉडीगार्ड, जिन्हें अब राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड के रूप में जाना जाता है, को 2:1 के अनुपात में भारत-पाकिस्तान के बीच बांट दिया गया। जब वायसराय की बग्घी की बारी आई तो दोनों देश इस पर अपना दावा ठोकने लगे।
आखिरकार इसका फैसला क्रिकेट खेल के टॉस की तरह हुआ। राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड रेजिमेंट के पहले कमांडडेंट लेफ्टिनेंट कर्नल ठाकुर गोविंद सिंह और पाकिस्तानी सेना के साहबजादा याकूब खान के बीच बग्घी को लेकर टॉस हुआ। इसमें जीत भारत की हुई और इस तरह ये बग्घी हमें मिल गई।
1950 में देश के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राजपथ पर हुई गणतंत्र दिवस परेड में इसी बग्घी में बैठकर हिस्सा लिया था। शुरुआती सालों में भारत के राष्ट्रपति सभी सेरेमनी में इसी बग्घी से जाते थे और साथ ही 330 एकड़ में फैसले राष्ट्रपति भवन के आसपास भी इसी से चलते थे। धीरे-धीरे सुरक्षा कारणों से इसका इस्तेमाल कम हो गया।
रोचक किस्से
1984 के बाद राष्ट्रपति बग्घी का इस्तेमाल लगभग खत्म हो गया और इसकी जगह सिक्योरिटी कवर वाली कार ने ले ली।
करीब दो दशक बाद 2014 में प्रणब मुखर्जी ने बग्घी के इस्तेमाल की परंपरा फिर शुरू की और वह बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम में शामिल होने के लिए इसी बग्घी में पहुंचे थे।
प्रणब मुखर्जी देश के 13वें राष्ट्रपति थे, जो 2012 से 2017 तक पद पर रहे। प्रणब से पहले 2002 से 2007 तक देश के 11वें राष्ट्रपति रहे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भी कभी-कभार राष्ट्रपति भवन में घूमने के लिए बग्घी का इस्तेमाल करते थे।
250 साल पहले अंग्रेज गवर्नर जनरल ने किया था गठन
राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड या प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड यानी PBG, भारतीय सेना की एक घुड़सवार फौज रेजिमेंट है। यह भारतीय सेना की सबसे पुरानी घुड़सवार यूनिट और कुल मिलाकर सबसे सीनियर यूनिट है। PBG का सबसे अहम रोल भारत के राष्ट्रपति की सिक्योरिटी का जिम्मा संभालना है।
राष्ट्रपति की सिक्योरिटी के अलावा PBG राष्ट्रपति के सभी आधिकारिक और सेरेमोनियल फंक्शन में भी शामिल रहते हैं। PBG में शामिल जवान बेहतरीन घुड़सवार, काबिल टैंक मैन और पैराट्रूपर्स होते हैं।
आज जिसे हमें राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड के नाम से जानते हैं, उनका इतिहास करीब 250 साल पुराना है। इसका गठन 1773 में अंग्रेज गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने अपनी सुरक्षा के लिए 50 घुड़सवार सैनिकों के साथ वाराणसी (बनारस) में किया था।
वाराणसी के राजा चैत सिंह ने उसी साल इस यूनिट के लिए 50 घुड़सवार सैनिक और दे दिए। जिससे इस यूनिट में घुड़सवार सैनिकों की संख्या 100 हो गई। यूनिट के पहले कमांडर ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन स्वीनी टून थे।
मुगलों की भर्ती से शुरू यूनिट में अब जाट, सिख और राजपूत जवान शामिल
1773 में इसके गठन के समय इसमें अवध के मुगलों (मुसलमानों) को भर्ती किया गया। 1800 तक इसमें मुस्लिमों के साथ हिंदुओं (ब्राह्मणों, राजपूतों) को भर्ती करने की इजाजत मिल गई।
उस समय तक इसमें केवल उत्तर प्रदेश और बिहार (बिहार तब बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा था) के ही लोगों को भर्ती किया जाता था। 1800 के बाद इसके रिक्रूटमेंट पूल को बंगाल प्रेसिडेंसी से बदलकर मद्रास प्रेसिडेंसी कर दिया गया। अगले 60 वर्षों तक इस यूनिट में साउथ इंडियन का बोलबाला रहा।
1857 की क्रांति के बाद भारतीय सेना में भर्ती का केंद्र अवध और दक्षिण भारत की जगह पंजाब, हरियाणा समेत अन्य उत्तर भारतीय इलाकों की ओर हो गया। इसका असर गवर्नर जनरल्स बॉडीगार्ड यानी GGBG यूनिट पर भी पड़ा।
1895 के बाद इसमें ब्राह्मणों की भर्ती बंद कर दी गई। इसके बाद इस यूनिट में 50% सिखों और 50% मुस्लिमों का अनुपात तय कर दिया गया। आजादी के बाद GGBG ही PGB यानी प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड बनी।
कई बड़ी लड़ाइयां लड़ी
PBG का प्रमुख उद्देश्य वैसे तो हेड ऑफ स्टेट को सिक्योरिटी देना है, लेकिन अतीत में ऐसे कई अवसर आए हैं, जब PBG जंग के मैदान में अपनी बहादुरी दिखा चुकी है।
1774: रोहिल्ला के खिलाफ सेंट जॉर्ज की जंग में हिस्सा लिया, रोहिल्लाओं की हार।
1790-92: टीपू सुल्तान के खिलाफ तीसरे मैसूर युद्ध में हिस्सा लिया।
1824: एक टुकड़ी ने पहले बर्मा युद्ध में हिस्सा लिया था।
1857: पहले सिख युद्ध में हिस्सा लिया और बहादुरी के लिए 4 बैटल ऑनर्स हासिल किया।
1914-1918: पहले वर्ल्ड वॉर में अंग्रेजों ने इनका इस्तेमाल घुड़सवार सैनिकों की ट्रेनिंग के लिए किया।
1939-1945: कुछ समय के लिए 44वीं डिविजनल रीकानसन्स स्क्वॉड्रन यानी जासूसी यूनिट के रूप में काम किया।
1962: भारत-चीन जंग में सबसे पहले लद्दाख के चुशूल में सुरक्षा के लिए PBG की बख्तरबंद कारों को उतारा गया था।
1965: भारत-पाक युद्ध में PBG के जवानों ने ऑपरेशन अब्लेज में हिस्सा लिया।
1988-1989: श्रीलंका में LTTE के खिलाफ भारतीय शांति रक्षा सेना में शामिल।
- सोमालिया, अंगोला और सिएरा लियोन में UN शांति मिशनों पर भारतीय सेना का हिस्सा।
- दुनिया के सबसे ऊंचे बैटलफील्ड सियाचिन ग्लेशियर में इसकी 20 टुकड़ियां तैनात हैं।
अंगरक्षकों से जुड़े रोचक किस्से
- इस रेजिमेंट में सैनिकों की संख्या और इसका नाम साल दर साल बदलता रहा। इसमें सबसे ज्यादा 1929 सैनिक1845 में अंग्रेस-सिख युद्ध से पहले शामिल थे।
- देश की आजादी के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच इस यूनिट के जवानों का 2:1 के अनुपात में बंटवारा हुआ। मुसलमान यूनिट को पाकिस्तान को दे दिया गया, जबकि सिख और जाट यूनिट भारत को मिली।
- अब PGB में जाटों, सिखों और राजपूतों की संख्या 33.1% यानी बराबर अनुपात में होती है। इसमें भर्ती होने वाले अधिकतर जवान पंजाब, हरियाणा और राजस्थान से आते हैं।
- आजादी के पहले प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड के जवानों के लिए बेसिक हाईट कम से कम 6.3 फीट होना जरूरी थी, जो अब 6 फीट है।
- प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड रेजिमेंट के पहले कमांडडेंट थे लेफ्टिनेंट कर्नल ठाकुर गोविंद सिंह। उनके डिप्टी थे साहबजादा याकूब खान, जो बाद में पाकिस्तानी आर्मी से जुड़ गए थे।
- वर्तमान में, PBG में 4 ऑफिसर, 14 जूनियर कमिशंड ऑफिसर्स यानी JCO और 161 ट्रूपर्स समेत करीब 180 से 200 जवान होते हैं। इनके अलावा एडमिनिस्ट्रेटिव सपोर्ट कर्मचारी भी होते हैं।
- PBG के जवानों की खासियत इनके मजबूत घोड़े होते हैं। इसमें जर्मनी की खास ब्रीड के घोड़े शामिल होते हैं। खास बात ये है कि ऊंचे कद के इन घोड़ों का वजन करीब 450 से 500 किलो होता है।
- ये घोड़े 50 किमी प्रति घंटे की स्पीड से दौड़ सकते हैं। भारतीय सेना में केवल इन्हीं घोड़ों के बाल लंबे रखे जा सकते हैं।
राष्ट्रपति भवन का इतिहास
राष्ट्रपति भवन भारत के राष्ट्रपति का आधिकारिक आवास है। ये बेहद शानदार इमारत नई दिल्ली में रायसीना हिल पर राजपथ के पश्चिमी किनारे पर स्थित है।
अंग्रेजों ने जब 1911 में राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से दिल्ली ले जाने का फैसला किया, तो उन्होंने वायसराय हाउस बनाने का भी फैसला लिया। इस शानदार इमारत को बनाने का श्रेय अंग्रेज आर्किटेक्ट्स एडविन लुटियंस और हबर्ट बेकर को जाता है।
इसका निर्माण 1912 में शुरू हुआ और ये 17 साल बाद 1929 में बनकर तैयार हुआ। इस इमारत का उद्घाटन 1931 में हुआ था। आजादी के बाद अंग्रेजों का बनवाया यही वायसराय हाउस भारत का राष्ट्रपति भवन बना।
खासियत
इस भवन की भव्यता का अंदाजा 12 दिसंबर 1928 को डेली टेलीग्राफ लंदन में पब्लिश एक आर्टिकल से होता है। अखबार के मुताबिक, ‘इस भवन में 340 कमरे, 227 खंभे, 35 बरामदे, 37 फव्वारे, 14 लिफ्ट हैं।’
राष्ट्रपति भवन की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक, इस भव्य इमारत को बनाने में 70 करोड़ ईंटें और 30 लाख क्यूबिक फीट पत्थरों का इस्तेमाल हुआ था। इसे बनाने में 23 हजार मजदूर लगे थे और करीब 1.4 करोड़ रुपए की लागत आई थी।
राष्ट्रपति भवन का पूरा इलाका 330 एकड़ में फैला है, जिसमें H शेप में बनी राष्ट्रपति भवन की बिल्डिंग 5 एकड़ में बनी है। इसका फ्लोर एरिया 2 लाख स्क्वायर फीट है।
इसमें राष्ट्रपति भवन के अलावा राष्ट्रपति गार्डन, ओपन स्पेस, अंगरक्षकों और कर्मचारियों के आवास, अस्तबल और अन्य दफ्तर शामिल हैं। एरिया के लिहाज से ये दुनिया में किसी भी राष्ट्राध्यक्ष का सबसे बड़ा निवास स्थान है।
रोचक किस्से
राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली के जिस इलाके में है उसे रायसीना हिल कहते हैं। रायसीना हिल में भारत सरकार की सबसे महत्वपूर्ण इमारतें बनी हैं। इन इमारतों में राष्ट्रपति भवन के अलावा, संसद भवन, राजपथ, इंडिया गेट, सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग-जिसमें प्रधानमंत्री ऑफिस और अन्य अहम मंत्रालयों के दफ्तर शामिल हैं।
इस इलाके का नाम रायसीना पड़ने का भी किस्सा बहुत रोचक है। 1912 में जब यहां अंग्रेजों ने वायसराय हाउस बनाने का फैसला किया, तो वहां बसे रायसीना गांव के 300 परिवारों को अंग्रजों ने ‘लैंड एक्विजिशन ऐक्ट, 1894’ के तहत हटा दिया था। इसी के बाद इस जगह का नाम रायसीना हिल पड़ा।
इसे ‘हिल’ इसलिए कहते हैं, क्योंकि ये जगह 873 फीट ऊंची है, जो आसपास के इलाके से 59 फीट ऊंची है।