देश में अमीरों को ही शुद्ध खान-पान की सहूलियत है, गरीबों की इम्युनिटी तो स्ट्रांग है?

ये सरकार तो हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गई है। तनख्वाह मिलती ही है दस, बीस या तीस प्रतिशत टैक्स काटकर। उस टैक्स कटे पैसे पर आखिर और कितना टैक्स चुकाया जाए? पेट्रोल, डीजल लेने जाओ तो केंद्र और राज्य सरकार का टैक्स उसकी मूल कीमत के बराबर बैठता है। कोई सामान लो तो जीएसटी। एक अदद आटा-दाल बचा था, उस पर भी सरकार की निगाह पड़ गई। मध्यम वर्ग करे तो क्या करे! …और तो और, मध्यम वर्ग से वसूले गए टैक्स के जिन पैसों से चिकने-चुपड़े रोड बनाए जा रहे हैं, उन पर वाहन चलाओ तो उसका भी टैक्स!

आप चुनाव जीतने और वोट कबाड़ने के लिए पानी की तरह पैसा बहाते हैं और जो मुफ्त की योजनाएं देते जाते हैं- जिनमें बेशुमार पैसा खपता है- उसका भार आम आदमी ढोए! राजनीतिक दलों को मिल रहे चंदे में तो किसी की भागीदारी नहीं होती! उसका तो कोई हिसाब-किताब भी नहीं होता। छोटी-छोटी राशि के रूप में करोड़ों का चंदा इकट्ठा कर लिया जाता है और कोई इन दलों से इस बारे में कुछ पूछता तक नहीं! जैसे तमाम आफतों का ठीकरा फोड़ने के लिए अकेला गरीब ही रह गया है!

ऊपर से महंगाई कम करने की बारी आती है तो सबके सब सुन्न हो जाते हैं। वित्तमंत्री कहती हैं- बारिश अच्छी होने का अनुमान है, इससे महंगाई पर काबू पाने में मदद मिलेगी। उन किसानों की कोई नहीं सोचता जो सूखे से बेहाल हैं या अत्यधिक बारिश ने जिनकी फसल चौपट कर दी है। अच्छे मानसून की चक्की में वे गेहूं के घुन की तरह पिसते ही रहते हैं और कोई सहानुभूति या मुआवजे की कोई कोर तक उनके पास नहीं पहुंच पाती! क्यों? बात करते हैं देश के बेहतर स्वास्थ्य की, और कहते हैं जो आटा, दाल, चावल खुला बेचेंगे, उस पर जीएसटी नहीं लिया जाएगा।

एक तरफ पौष्टिक खान-पान की बात की जाती है और दूसरी तरफ खुला आटा-दाल बेचने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। यह कैसी दोहरी नीति है? यह कैसा मानदण्ड है देश को निरोग रखने का? आखिर खुले में बेचे या खरीदे जा रहे सामान, खासकर आटा-दाल की शुद्धता की गारंटी कौन देगा? साफ कहते क्यों नहीं कि इस देश में केवल अमीरों को ही शुद्ध खान-पान की सहूलियत है? गरीबों की इम्युनिटी तो वैसे भी स्ट्रांग है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला! फिर पच्चीस किलो से ज्यादा के पैकेज्ड सामान तो व्यापारी ही खरीदेगा, उस पर टैक्स नहीं है।

हम जो घरों के लिए किलो-दो किलो पैकेज्ड सामान खरीदेंगे, उस पर बाकायदा टैक्स चुकाना होगा। कुल मिलाकर मध्यम वर्ग को इस टैक्स जाल से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। सरकारें गिरती-बनती रहेंगी और हमारा बोझ बढ़ता जाएगा। चुनाव की नाव आखिर पानी में तो चलती नहीं! वह तो हरदम पैसों की बाढ़ पर तैरती रहती है! इसलिए इलाज कुछ नहीं है। सिवाय भुगतने के। एक तरफ पौष्टिक खान-पान की बात की जाती है और दूसरी तरफ खुला आटा-दाल बेचने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। भला यह कैसी दोहरी नीति है? यह किस तरह का मानदण्ड है देश को निरोग रखने का?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *