सेना सबकी लेकिन, रेजिमेंट जाति के नाम पर …..?

अग्निवीर 200 साल पुराने इस सिस्टम में ही काम करेंगे, अंग्रेजों ने रेजिमेंट जाति के हिसाब से बनाए…

सेना में अग्निवीरों की भर्ती में जाति और धर्म के बारे में पूछे जाने पर कंट्रोवर्सी चल रही है। विपक्षी नेताओं के आरोप हैं कि जाति और धर्म के बारे में पहली बार पूछा गया।

उधर, सरकार का कहना है कि यह व्यवस्था पहले से लागू है और सेना की भर्ती से जाति या किसी भी धर्म का कोई लेना-देना नहीं।

हमने विपक्ष के आरोप और सरकार के जवाब की पड़ताल की तो पता चला कि सेना में कास्ट, कम्युनिटी और रीजन बेस्ड रेजिमेंट्स यानी सैन्य दल अंग्रेजों ने बनाए थे, जो आज भी कायम हैं। हालांकि, सेना की भर्ती में जाति, धर्म, समुदाय का कोई रोल नहीं होता।

खुद आर्मी ने 2013 में सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट जमा करते हुए कहा था कि सेना में जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर भर्ती नहीं होती।

वहीं रेजिमेंट्स में एक ही क्षेत्र से आने वाले लोगों को जस्टिफाई करते हुए कहा था कि ऐसा एडमिनिस्ट्रेटिव और ऑपरेशनल रिक्वायरमेंट्स के चलते किया जाता है।

सरकार के प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो, यानी PIB ने 10 दिसंबर 2021 को बताया कि सेना में अभी कुल 27 इंफ्रेंट्री रेजिमेंट्स (पैदल चलने वाला सैन्यदल) हैं। इनमें सबसे पुरानी 1705 में बनी पंजाब रेजिमेंट है।

खबर में आगे बढ़ने से पहले आप इस चार्ट में देखिए कौन सी रेजिमेंट किस साल में बनी

   

आपके मन में सवाल होगा कि अंग्रेजों ने जाति, समुदाय और धर्म आधारित ये रेजिमेंट क्यों बनाईं और आजादी के 75 बरस बाद भी ये क्यों बनी हुई हैं…

इस बात की पड़ताल की शुरूआत हमने रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल संजय कुलकर्णी से की। उन्होंने बताया कि, ‘भारत की सेना में रेजिमेंट सिस्टम है। जैसे जाट, सिख, डोगरा, गढ़वाल…। भर्ती के बाद जवानों से रेजिमेंट की चॉइस पूछी जाती है। फिर ये देखा जाता है कि उन्हें किस रेजिमेंट में भेजा जा सकता है। इसमें ये पता होना जरूरी है कि जवान की जाति या धर्म क्या है। क्योंकि हमारे रेजिमेंट इसी आधार पर खड़े हैं।’

‘बहुत से रेजिमेंट ऐसे भी हैं, जिनमें सभी जाति, क्षेत्र, समुदाय के लोग शामिल हैं। कुछ में दो-तीन जाति के लोग हैं। जैसे, राजपूताना राइफल्स में राजपूत और जाटों की संख्या एक जैसी होती है।

वहीं राजपूत रेजिमेंट में राजपूत, गूजर और मुस्लिम होते हैं। हालांकि, इस तरह के रेजिमेंट के बावजूद सेना की भर्ती में किसी भी जाति, धर्म या क्षेत्र का कोई लेना-देना नहीं होता।’

‘जो भी यह कह रहा है कि सेना की भर्ती में धर्म और जाति के बारे में पहली बार पूछा जा रहा है, वो सरासर गलत बोल रहा है। क्योंकि, सेना में भर्ती की जो प्रॉसेस चल रही है वो तो अंग्रेजों के वक्त से चली आ रही है। कुछ रेजिमेंट्स को तो 200 साल से भी ज्यादा हो चुके हैं। अंग्रेज जब सेना में भारतीयों को रखते थे तो वो भी जाति और धर्म के बारे में पूछते थे।’

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन के मुताबिक अंतिम संस्कार करने के लिए भी जवान का धर्म पता होना जरूरी है। रेजिमेंट्स के अलग-अलग नॉर्म्स होते हैं।

कास्ट, रिलिजन और रीजन जाने बिना जवान के लिए सही रेजिमेंट का चुनाव करना मुमकिन नहीं है। अग्निपथ स्कीम के बाद क्या इसमें कोई बदलाव होने जा रहा है, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।

1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने बदली पॉलिसी
ग्लोबल सिक्योरिटी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक 1892 से आर्मी की पॉलिसी धीरे-धीरे बदलना शुरू हुई। टेरिटोरियल बेसिस पर रिक्रूटमेंट बंद की गई और क्लास लाइन पर शुरू की गई।

मतलब एक जैसे धर्म, जाति और नस्ल के लोगों को सेना में रिक्रूट करना शुरू किया गया। 1892 से 1914 के बीच भर्तियां मार्शल रेस तक ही सीमित थीं। आर्मी को मार्शल और नॉन मार्शल की दो कैटेगरी में बांटा।

अरविंद गनाचारी की किताब ‘इंडियंस इन द फर्स्ट वर्ल्ड वॉर’ के मुताबिक, जोनाथन पील कमीशन को सोशल ग्रुप्स, रीजन और लॉयल सोल्जर्स को आइडेंटिफाई करने का जिम्मा दिया गया।

1857 का विद्रोह देश के पूर्वी और दक्षिणी भाग से हुआ था, इसलिए यहां के लोगों को आर्मी में रिक्रूट नहीं किया गया। रिक्रूटमेंट के सेंटर उत्तरी भारत में बनाए गए।

मार्शल और नॉन मार्शल की क्लास बनाई

मार्शल क्लास : इसमें उन लोगों को रखा गया जिनका युद्ध लड़ने का इतिहास रहा है। जिनके पूर्वज लड़ाके रहे हैं। इनमें नॉर्थ इंडियंस को प्रिफरेंस दिया गया।

नॉन मार्शल क्लास : इसमें उन लोगों को रखा गया जिन्हें युद्ध के लिए अनफिट माना गया। 1857 के विद्रोह के चलते बंगाल के लोगों को इसी कैटेगरी में रखा गया।

एक्सपर्ट्स कहते हैं कि ऐसा कहा जा सकता है कि नस्ल और जाति के आधार पर भर्ती इसलिए की गई ताकि औपनिवेशिक भारतीय समाज को बांटा जा सके और भविष्य में होने वाले विद्रोहों को रोका जा सके।

कम्युनिटी को बांटने के लिए बनाई रेजिमेंट

अरविंद गनाचारी की किताब ‘इंडियंस इन द फर्स्ट वर्ल्ड वॉर’ के मुताबिक, 1857 के विद्रोह के बाद आर्मी में रिक्रूटमेंट की जो पॉलिसी बनाई गई वो एक कम्युनिटी को दूसरी कम्युनिटी से अलग करने के मकसद से बनाई गई थी।

सैनिकों की भर्ती में किसी इंडिविजुअल के बजाए वह किस कम्युनिटी से आता है इस बात को तवज्जो दी गई। एक सैनिक की भर्ती में उसकी कास्ट, रिलिजन और नस्ल ज्यादा जरूरी हो गई।

मार्शल रेस में नॉर्थ और वेस्टर्न हिस्से के लोगों को रखा गया। इनमें सिख, पठान, बलूची और मुस्लिमों की कुछ कम्युनिटी शामिल थीं। गोरखा और डोगरा कम्युनिटी को भी रखा गया।

1857 के विद्रोह के बाद ही मजहबी सिख भारतीय सेना में शामिल किए गए और पहली सिख रेजिमेंट बनाई गई। उच्च जाति से आने वाली बंगाल की आर्मी को काउंटर करने के लिए बड़ी संख्या में जाट, गोरखा, सिख, पठान यूनिट्स में शामिल किए गए।

उत्तर-पश्चिम में मिलिट्री एक्टिविटीज बढ़ने के चलते ये वर्ग ब्रिटिश अधिकारियों के बीच पॉपुलर हो गए और इससे लोअर क्लास के लोगों की भर्तियां धीरे-धीरे कम होने लगीं।

रेजिमेंट सिस्टम शुरू करने वाले अंग्रेजों ने यह पॉलिसी भी बनाई थी कि भर्ती एक ही जगह से न की जाए। इसके पीछे मकसद ये था कि किसी एक जगह से विद्रोह हो तो दूसरे को उसके खिलाफ खड़ा किया जा सके।

1949 के बाद इस तरह की नई रेजिमेंट नहीं बनाई गईं
आजादी के बाद भारत ने अंग्रेजों के बनाए सिस्टम को ही फॉलो किया। लेकिन 1949 के बाद कम्युनिटी, कास्ट या रीजन बेस्ड कोई भी नई रेजिमेंट नहीं बनाई गई। कुछ रेजिमेंट्स को रीऑर्गनाइज जरूर किया लेकिन उनके टाइटल के साथ छेड़छाड़ नहीं की।

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल कुलकर्णी के मुताबिक, ‘एक जाति या क्षेत्र से जब भर्ती होती है एक ही जैसे लोग बड़ी संख्या में सेना में आते हैं। इससे इन्हें अपनी इज्जत का ख्याल रहता है कि यदि मैं लड़ाई से भाग गया तो गांव में मेरी इज्जत नहीं रह जाएगी। मेरे परिवार वालों को लोग क्या कहेंगे। ऐसे में जवान भागने के बजाए लड़ता है। यह भी रीजन बेस्ड रिक्रूटमेंट करने का एक बड़ा कारण है।’

अग्निपथ स्कीम जब लाई गई थी तब यह सवाल खड़े किए गए थे कि इससे तो हमारा सालों पुराना रेजिमेंट सिस्टम ही खत्म हो जाएगा।

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल कुलकर्णी के मुताबिक ‘अग्निवीरों को भी रेजिमेंट में ही नियुक्त किया जाएगा। फर्क सिर्फ ये है कि उनमें से 75% का सेवाकाल 4 बरस में खत्म हो जाएगा। बाकी सब जैसा होता आया है, वैसे ही होगा।’

कास्ट बेस्ड रेजिमेंट में दूसरी जाति भी शामिल
इंडियन आर्मी की रेजिमेंट का टाइटल कास्ट बेस्ड हैं, लेकिन एक ही रेजिमेंट में दूसरी जाति के जवान भी शामिल होते हैं।

जैसे राजपूताना राइफल्स में राजपूत और जाटों की संख्या एक जैसी होती है। राजपूत रेजिमेंट में राजपूत, गूजर और मुस्लिम होते हैं।

वहीं सेना में भर्ती के लिए किसी एक जाति या धर्म का होना जरूरी नहीं है। किसी भी जाति या धर्म के लोग सेना में रिक्रूट हो सकते हैं।

रिक्रूटमेंट के दौरान रेजिमेंट की च्वॉइस भी जवानों से पूछी जाती है। लेकिन यह जरूरी नहीं कि जिस रेजिमेंट को जवान चुने, वही उसे मिल जाए।

पहले विश्व युद्ध के बाद ब्राह्मण, दूसरे के बाद चमार रेजिमेंट भंग
अंग्रेजों ने 1903 में कास्ट बेस्ड ब्राह्मण रेजिमेंट बनाई थी। जिसे फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के बाद भंग कर दिया गया था। इसी तरह उन्होंने सेकंड वर्ल्ड वॉर के टाइम चमार रेजिमेंट बनाई।

इसे भी दिसंबर 1946 में भंग कर दिया गया। 1941 में बनाई गई लिंगायत बटालियन को अगले कुछ सालों में खत्म कर दिया गया था।

पहले विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सेना में कई बदलाव किए। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद और ज्यादा बदलाव किए गए। इसके बाद भारत को आजादी ही मिल गई।

आजादी के बाद सेना में भर्ती प्रक्रिया में सुधार करने के लिए 4 समितियां बनाई गईं, लेकिन किसी ने भी सेना में नई जातीय रेजिमेंट बनाने या भंग करने की बात नहीं कही।

2016 में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने सेना में रेजिमेंट खत्म करने के मुद्दे पर संसद में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि रेजिमेंट सिस्टम से सैनिकों में एकता बनी रहती है। हर जंग में रेजिमेंट सिस्टम सफल रहा है। इसलिए इस सिस्टम को भंग करने का हमारा कोई इरादा नहीं है।

सिर्फ तीन जाति के लोग ही बन सकते हैं प्रेसिडेंट के बॉडीगार्ड
2013 में आर्मी ने सुप्रीम कोर्ट में यह बात एडमिट की थी कि प्रेसिडेंट के बॉडीगार्ड सिर्फ हिंदू राजपूत, हिंदू जाट और जाट सिख ही बन सकते हैं। ऐसा सिर्फ फंक्शनल रिक्वायरमेंट के लिए जाता है।

इसका किसी भी जाति या धर्म का पूर्वाग्रह नहीं है। राष्ट्रपति भवन में होने वाली सेरेमोनियल ड्यूटीज के लिए एक कॉमन हाइट, बिल्ट और अपियरेंस जरूरी होता है।

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