गुजरात में सिर्फ नेताओं का हल्ला, जनता ने चुप्पी साधी
गुजरात चुनाव में इस बार सिर्फ नेता बोल रहे हैं। जनता खामोश है। ज्यादातर जगह तो जनसभाओं में भी पहले जैसी रौनक नहीं है। कुल मिलाकर लोगों में पहले की तरह चुनाव के प्रति उत्साह तो नहीं ही है। गांवों में तो फिर भी एक साथ कई गाड़ियों का काफिला आता है तो लोग घर से निकल आते हैं, लेकिन शहरों में तो लगता ही नहीं कि चुनाव चल रहे हैं। पोस्टर-बैनर की भी वैसी भरमार नहीं है जैसी पहले हुआ करती थी।
जनता की खामोशी या कहें उसमें उत्साह न होने के दो ही कारण हो सकते हैं। या तो लोग पहले से तय करके बैठे हैं कि किसे वोट देना है। या इस चुनाव और इसके प्रचार से वे तंग आ चुके हैं और गुस्से में भी हैं। कुछ पता नहीं चल पा रहा है। यही वजह है कि जो भाजपा पहले जीत के प्रति निश्चिंत रहती थी, उसे भी पक्का भरोसा नहीं आ रहा।
कांग्रेस ने तो जैसे सोच ही लिया है कि उसे अब राज्यों की सत्ता के लिए दौड़-धूप करनी ही नहीं है। सीधे 2024 के लोकसभा चुनाव में ही वह अपने करतब दिखाएगी। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का भी राज्यों के चुनावों से ज्यादा मतलब नहीं रह गया है। उसका उद्देश्य भी अगला लोकसभा चुनाव ही दिखाई दे रहा है।
जनता की खामोशी या कहें उसमें उत्साह न होने के दो ही कारण हो सकते हैं। या तो लोग पहले से तय करके बैठे हैं कि किसे वोट देना है। या इस चुनाव और इसके प्रचार से वे तंग आ चुके हैं और गुस्से में भी हैं।
राजनीति के जानकार कहते हैं कि कांग्रेस और विपक्ष में बैठे तमाम दल अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को पूरी तरह हराने की बजाय उसे 250 सीटों तक सीमित करने के उद्देश्य से आगे बढ़ना चाहते हैं। क्योंकि जिस स्तर पर भाजपा आज बैठी है, वहां से उसे सौ-डेढ़ सौ तक सीमित करना तो नामुमकिन है।
हां, भाजपा के ढाई सौ सीटों तक सीमित होने के कई दूरगामी मायने हो सकते हैं। विपक्ष उन्हीं दूरगामी मायनों को साकार करने का लक्ष्य लेकर चलना चाहता है, क्योंकि साफ दिखाई दे रहा है कि जिन राज्यों में सौ प्रतिशत लोकसभा सीटें भाजपा की हैं, वैसा ही रिजल्ट तो इस बार आने की संभावना कम ही है। दो-दो, तीन-तीन सीटें भी घटती हैं तो विपक्ष का उद्देश्य पूरा होने की संभावना बढ़ जाती है।
जहां तक गुजरात का सवाल है, यहां हर बार से ज्यादा संघर्ष है। सभी पार्टियों के लिए। चाहे वो भाजपा हो, कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी। पहले भाजपा के प्रत्याशियों को स्पष्ट अंदाजा हुआ करता था जीत का। इस बार ऐसा नहीं है। पूरा चुनाव इस बार बिहार की तरह जातीय गणित में उलझ गया है। पार्टियों की बजाय इस बार जातियां ही वोट काटेंगी और वे ही जीत-हार का फैसला भी करेंगी।
इतना जरूर तय माना जा रहा है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस सरकार बनाने के आंकड़े तक पहुंचने का दम भी नहीं भर रही हैं। बम्पर जीत की अपेक्षा किसी को भी नहीं है। हालांकि जनता की खामोशी की असल वजह आठ दिसंबर को ही पता चलेगी, जब चुनाव परिणाम आएंगे।